हर साल दो नवंबर को मॉरीशस में अप्रवासी दिवस उन पुरखों की स्मृति में मनाया जाता है, जिन्होंने सैकड़ों साल पहले अपनी जन्मभूमि छोड़ दी और दूसरे देशों में मजदूरी करने निकल पड़े.दो नवंबर 1834 में 'एटलस' नामक जहाज भारतीय मजदूरों को लेकर मॉरीशस पहुंचा था. इन लोगों में ज्यादातर बिहार और उत्तर प्रदेश के थे. इन लोगों को गिरमिटिया कहा जाता है. गिरमिट शब्द एग्रीमेंट का बिगड़ा हुआ रूप है. तब, भारतीय मजदूरों से एक एग्रीमेंट (गिरमिट) पर अंगूठा लगवाया जाता था. इन्हें समुद्र के रास्ते दूसरे देशों को भेज दिया जाता था. देसी भाषा में एग्रीमेंट बोलना मुश्किल है, इसलिए उसे गिरमिट कहते थे और गिरमिट के तहत जाने वाले लोग गिरमिटिया कहलाए.
सोना के लालच में गिरमिटिया बन गये
अंग्रेज उस समय लोगों को यह कहकर बहलाते थे कि बस गंगा-सागर पार करना है और वहां पहुंचकर सोना लाना है.इसी छलावे में पूर्वांचल के सैकड़ों लोग अपना गांव, परिवार और खेत-खलिहान छोड़कर हिंद महासागर के पार निकल गए. लेकिन सोना की जगह उन्हें मिला दुख, अन्याय और यातना का समुद्र. गिरमिटिया जीवन गुलामी का दूसरा नाम था. न पुरुषों को स्वतंत्रता थी, न महिलाओं को सम्मान. विवाह जैसी मूलभूत स्वतंत्रता भी उनसे छीन ली गई थी. यदि किसी गिरमिटिया ने विवाह कर भी लिया, तो भी उनके जीवन पर गुलामी के कठोर नियम लागू रहते थे. औरतों की स्थिति तो और भी भयावह थी. अंग्रेज मालिक उन्हें अपनी संपत्ति मानते थे. युवा औरतों को मालिक रख लेते थे और जब उनका आकर्षण समाप्त होता, तो उन्हें मजदूरों के हवाले कर दिया जाता था. इन रिश्तों से जन्मी संतानें भी मालिकों की संपत्ति मानी जाती थीं. मालिक चाहें तो उन्हें अपने खेतों में मजदूरी के लिए रख लें या किसी और को बेच दें. गिरमिटियों को सिर्फ जीवित रहने भर का भोजन और कपड़ा दिया जाता था. दिन के 12-18 घंटे तक वे धूप में पसीने और दर्द के बीच काम करते थे. बीमार पड़ने पर इलाज नहीं मिलता था और अमानवीय हालातों में सैकड़ों मजदूर हर साल अकाल मौत मरते थे. उनके आंसू, उनकी पुकार किसी के कान तक नहीं पहुंचती थी, क्योंकि उनकी तकदीर पर मालिकों की मुहर लग चुकी थी.
गिरमिटिया बन गए गवर्नमेंट
गिरमिटिया लोगों के वंशज आज दुनिया के कई देशों में सत्ता के शिखर पर हैं, मॉरीशस, फिजी, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद-टोबैगो हर जगह. जहां कभी कुछ भी नहीं था, वहां आज अपनी सरकार है, अपनी पहचान है, अपनी सत्ता है. जो कभी गुलाम बनकर गए थे, आज शासक बन गए हैं. जो मजदूर बनकर गए थे, आज मालिक बन गए हैं. जो गिरमिटिया बनकर गए थे, आज 'गवर्नमेंट' बन गए हैं.

भारत से गए गिरमिटिया मजदूरों ने इन्हीं सीढ़ियों से मॉरीशस की धरती पर कदम रखा था. वहां की सरकार ने इसे आज तक संभाल कर रखा था.
अपनी धरती छोड़ना मुश्किल नहीं होता, मुश्किल होता है उससे रिश्ता तोड़ना. लेकिन मॉरीशस ने यह रिश्ता कभी नहीं तोड़ा. वहां आज भी भारत धड़कता है. जो लोग ईख बोने गए थे, उन्होंने अपने जीवन का रस उस ईख में उडेल दिया. गन्ने में मिठास बढ़ी और मॉरीशस हरा-भरा होकर धरती का स्वर्ग बन गया.
मॉरीशस का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही रोमांचक भी है. तमाम ऐतिहासिक रिपोर्ट बताती हैं कि इस सुंदर द्वीप की खोज 1502 में हुई थी. इसके बाद यहां कई लोगों ने अपना प्रभाव जमाने की कोशिश की लेकिन इसे पहचान तब मिली जब 1715 में फ्रांस ने इस पर कब्जा किया. करीब सौ साल तक मॉरीशस फ्रांसीसी शासन के अधीन रहा. लेकिन 1810 में ब्रिटेन ने इसे अपने नियंत्रण में ले लिया और यहां की दिशा ही बदल दी.ब्रिटिशों के आने के बाद खेती-बाड़ी और औद्योगिक विकास के लिए उन्हें सस्ते और मेहनती मजदूरों की जरूरत थी. यह जरूरत पूरी की भारत ने. साल 1834 से लेकर 1924 तक अंग्रेज भारत से मजदूरों को मॉरीशस ले जाते रहे. हजारों की संख्या में लोगों को वहां बसाया गया.समय बीतने के साथ इन लोगों ने महसूस किया कि सिर्फ शरीर से जीना काफी नहीं, आत्मा को भी जिंदा रखना जरूरी है. भाषा, धर्म और संस्कृति के संरक्षण के लिए अनेक सामाजिक संगठनों और परिवारों ने काम शुरू किया. रामगुलाम परिवार ने भोजपुरी भाषा और धर्म को लेकर कई स्तर पर पहल की. इससे वहां के लोगों में एकजुटता बढ़ती गई. साल 1930 आते-आते शिवसागर रामगुलाम ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी. शिवसागर के पिता भी बिहार से मजदूरी करने मॉरीशस पहुंचे थे. धीरे-धीरे शिवसागर आम जनता के हीरो बन गए. उनकी संघर्षशीलता और दूरदर्शिता ने मॉरीशस को आजादी के रास्ते पर ला खड़ा किया और लंबे संघर्ष के बाद 12 मार्च 1968 को मॉरीशस को आजादी मिली.
शिवसागर रामगुलाम स्वतंत्र मॉरीशस के पहले प्रधानमंत्री बने और उन्हें देश का 'राष्ट्रपिता' कहा गया. उनके नेतृत्व ने मॉरीशस को राजनीतिक स्थिरता दी, लोकतंत्र की जड़ें मजबूत कीं और भारतीय मूल के लोगों में आत्मसम्मान की भावना जगाई. उनके विजन और समर्पण ने मॉरीशस को आधुनिक राष्ट्र के रूप में स्थापित किया. आज भी मॉरीशस की राजनीति में रामगुलाम परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका बनी हुई है. वर्तमान प्रधानमंत्री डॉक्टर नवीनचंद्र रामगुलाम, शिवसागर रामगुलाम के बेटे हैं. उन्होंने 2024 में तीसरी बार मॉरीशस के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. उनकी पारिवारिक जड़ें भारत के बिहार राज्य के भोजपुर जिले के आरा स्थित हरीगांव से जुड़ी हैं. इस तरह, मॉरीशस की सत्ता के शीर्ष पर आज भी भारतीय माटी की खुशबू महसूस की जा सकती है.
मॉरीशस में आज भी बसता है आरा, बलिया और छपरा
भारत और मॉरीशस के बीच भले ही छह हजार किलोमीटर का समुद्री फासला है, पर वहां के गांवों में जाइए तो लगेगा जैसे आरा, बलिया या छपरा में हैं. लोगों की भाषा, गीत, संस्कार सब कुछ अपना सा है. मॉरीशस में दो तिहाई आबादी भोजपुरी बोलती है. भाषा भौगोलिक दूरी मिटा देती है और यही सबसे बड़ा बंधन है.मार्क ट्वेन ने सच ही कहा था,''ईश्वर ने पहले मॉरीशस बनाया और फिर उसमें से स्वर्ग की रचना की.'' यहां हिंदी और भोजपुरी का गहरा प्रभाव देखकर लगता है जैसे भारत का टुकड़ा ही वहां बसा है.
मॉरीशस में सनातन परंपरा जीवित है. मंदिर, रामायण सेंटर, महावीरी झंडा, गीत-गवाई, सब कुछ आज भी धड़कता है. यहां गीत-गवाई संस्था को यूनेस्को ने हेरिटेज का दर्जा दिया है. मॉरीशस सरकार ने भोजपुरी को मान्यता दी है. प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों भोजपुरी बोलते हैं. ग्लोबलाइजेशन के दौर में भी मॉरीशस ने अपनी जड़ों से रिश्ता नहीं तोड़ा है.अपने पुरुखों के संघर्ष और विजय गाथा पर अपने एक गीत के अंश के साथ अपनी बात खतम कर रहा हूं.
हम तो मेहनत को ही हथियार बना लेते हैं
अपना हंसता हुआ संसार बना लेते हैं
मॉरीशस, फीजी, गुयाना कहीं भी देखो तुम
हम जहां जाते हैं सरकार बना लेते हैं
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