मारियो पूजो के बेहद मशहूर उपन्यास 'द गॉडफ़ादर' में यह ड्रग्स का कारोबार है जिसको लेकर विटो कॉर्लियोन की हिचक उस पर हमले की वजह बनती है. 1969 में छपे इस उपन्यास पर 1972 में उतनी ही अच्छी फिल्म बनी. जाहिर है, साठ के दशक तक भी ड्रग्स के कारोबार को इटली की माफिया संस्कृति कुछ संदेह से देखती है- बेशक, इस वजह से कि इस कारोबार से पुलिस और सरकार के दुश्मन हो जाने का ख़तरा था. लेकिन नशे की दुनिया शायद इस सभ्यता और समाज की 'अंडरबेली' में सदियों से सक्रिय रही है.
अमिताव घोष का उपन्यास 'सी ऑफ़ पॉपीज़' याद दिलाता है कि कैसे अंग्रेज़ों ने भारतीय किसानों को पारंपरिक फ़सलों की जगह अफ़ीम की खेती के लिए मजबूर किया और वह दौलत कमाई जिनसे उनका सोने का साम्राज्य विराट होता चला गया. अलका सरावगी के उपन्यास 'कलि-कथा वाया बाइपास' में मारवाड़ी व्यापारियों द्वारा अफ़ीम के कारोबार का ज़िक्र आता है.
दरअसल एक दौर में अफ़ीम दर्दनाशक का काम किया करती थी. जब कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम बताया था तो दरअसल वह नशे के अर्थ में नहीं, दर्दनिवारक दवा के रूप में बताया था. उसका पूरा कथन इसकी पुष्टि करता है. दरअसल मार्क्स ने हीगल के फिलॉसफ़ी ऑफ राइट की आलोचना करते हुए जो किताब लिखी, उसकी भूमिका में धर्म को एक सामाजिक निर्मिति बताते हुए कहा था- 'इंसान धर्म को बनाता है, धर्म इंसान को नहीं.
धर्म दरअसल इंसान की आत्मचेतना, उसका आत्मसम्मान है जो या तो ख़ुद को जीत नहीं सका है या फिर खुद को हार चुका है.' इसी के कुछ आगे वह कहता है- धर्म उत्पीड़ित लोगों की आह है, एक हृदयहीन दुनिया का हृदय है और आत्माहीन स्थितियों की आत्मा है. ये लोगों की अफ़ीम है.' लेकिन अफ़ीम धीरे-धीरे नशे का पर्याय बनता चला गया. खास कर पश्चिम में युवाओं में ड्रग्स का चलन खूब बढ़ा. दो-दो विश्वयुद्धों ने नौजवानों को बुरी तरह हताशा और अवसाद में डाल दिया. इन दो विश्वयुद्धों में दस करोड़ लोगों के मारे जाने का अनुमान लगाया जाता है.
इसके अलावा करोड़ों लोग विकलांग भी हुए. इसके बाद जो आस्थाविहीन पीढ़ी पैदा हुई, उसने ड्रग्स की दुनिया में भी शरण ली. साठ के दशक में प्रतिरोध का संगीत रचने वाले बीटल्स का ड्रग्स से रिश्ता काफ़ी असुविधाजनक रहा. ड्रग्स में डूबे क्लबों में देर रात तक परफॉर्म करने के लिए ड्रग्स मददगार भी होती थी. पॉल लैनन ने बाद में एक इंटरव्यू में माना कि वे एलएसडी लेते थे और कहा कि वे किसी का आदर्श होने में दिलचस्पी नहीं रखते. बीटल्स के दूसरे स्तंभों ने भी ड्रग्स से जु़ड़े अपने अनुभव अलग-अलग अवसरों पर साझा किए.
सच तो यह है कि पश्चिम के लोकप्रिय संगीत की दुनिया में- बीटल्स के बाद पॉप और जैज़ म्यूज़िक की दुनिया में भी ड्रग्स का साया बहुत गहरा. अवसाद, उन्माद, असमय मौत और आत्महत्या की बेसुरी ख़बरें भी इस संगीत की दुनिया से बीच-बीच में आती रहीं. साठ के दशक में अमेरिका में जो हिप्पी संस्कृति पैदा हुई, वह भी ड्रग्स और धुएं के बीच जीती रही. देव आनंद ने इसी हिप्पी संस्कृति से प्रभावित होकर 'हरे रामा हरे कृष्णा' जैसी फिल्म बनाई जिसमें आनंद बख़्शी ने लिखा- दम मारो दम, मिट जाए ग़म...दुनिया ने हमको दिया क्या दुनिया ने हमसे लिया क्या, हम सबकी परवाह करें क्यूं, सबने हमारा किया क्या.'
लेकिन ड्रग्स की यह काली-अंधेरी दुनिया कैसे माफ़िया गिरोहों के सबसे बड़े कारोबार में बदलती चली गई, इसको लेकर कई कहानियां हैं. कोलंबिया का ड्र्ग्स लॉर्ड कहा जाने वाला पाब्लो एस्कोबार कभी दुनिया के सबसे अमीर लोगों में गिना जाता था.
दरअसल, हम जिस शिष्ट-शालीन दुनिया में रह रहे हैं, वह भीतर से बहुत डरावनी और हिंसक भी है. हमारे अख़बार और टीवी चैनल बस इसकी ऊपरी सतह की खुराक पर चलते हैं- यह चिंता जताते हुए कि हमारे समाज में अपराध किस तरह बढ़ रहे हैं. इसकी तह खुरचते ही- या किसी हादसे या इत्तिफ़ाक़से इसके क़रीब आते ही- एक भयावह दुनिया खुलती है.
'द गॉडफ़ादर' में विटो का सबसे छोटा बेटा माइकल कॉर्लियोन समझदार है.
वह अपराध के काले पैसे को धीरे-धीरे सफ़ेदपोश धंधे में बदलता जाता है. हम बहुत सारे अपराधियों को ऐसे ही सफेदपोश धंधों से लेकर राजनीति की सफेद पोशाकों में देख रहे हैं. ब्राजील के रियो में ड्रग्स कार्टेल पर जितनी व्यापक कार्रवाई हुई है, वह बस एक इशारा है कि हमारे चारों ओर ड्रग्स का कैसा संसार पसरा हुआ है.
भारत में भी ड्रग्स का यह संसार और कारोबार बड़ा होता जा रहा है- इसके प्रमाण बहुत सारे हैं. पंजाब में तो इसने एक महामारी जैसा रूप ले लिया था. बीच-बीच में तमाम विश्वविद्यालयों के आसपास ड्रग्स के धंधे की चिंताजनक ख़बरें आती रही हैं. इसका वास्ता किस नशे से है, कहना मुश्किल है- इफ़रात में आ रहे आसान पैसे से या फिर उस अवसाद और उन्माद से जिसकी ओर हम अपने युवाओं को कायदे की शिक्षा और संस्कृति के अभाव में धकेल रहे हैं. उनके जीवन में या तो कमाई का नशा है या फिर धर्म और कठमुल्लेपन के नाम पर चलने वाला तमाशा है. लेकिन यह एक बीमार समाज बना रहा है जिससे हमें सतर्क होना चाहिए.