शुरुआत तीन स्थापनाओं से करते हैं...
पहली स्थापना यह है कि हंसाना सबसे कठिन काम है, रुलाना सबसे आसान... आप एक ही बात से, एक ही चुटकुले से तथा एक ही एक्शन से उसी व्यक्ति को दोबारा हंसा नहीं सकते... हां, रुला ज़रूर सकते हैं... आज भी लोग रामलीला में राम-भरत मिलन तथा लक्ष्मण मूर्च्छा के प्रसंग पर फूट-फूटकर रोते हैं, और ऐसा उनके साथ बचपन से होता आ रहा है... यहां गौर करने की बात यह है कि वे ऐसा करते नहीं हैं, अपने आप हो जाता है...
काश! ऐसा ही कपिल शर्मा जैसे स्टैण्ड-अप कॉमेडियन द्वारा पेश किए जाने वाले प्रोग्राम के साथ भी हो पाता... दरअसल, हास्य और व्यंग्य के कालजयी (अपने समय से परे) बनने की अनिवार्य और एकमात्र शर्त यह होती है कि वह व्यक्ति की सामूहिक चेतना और भावों के मूल को छू सके...
दूसरी स्थापना यह है कि फूहड़ता हास्य नहीं होती... दुर्भाग्य से आज यह भेद लगभग खत्म हो गया है... फूहड़ता के ज़रिये हंसाना अपेक्षाकृत आसान होता है... इसके लिए किसी तरह की रचनात्मकता की ज़रूरत नहीं होती... समाज में जो प्रतिबंधित है, समाज जिसके प्रदर्शन और कथन को असांस्कृतिक मानता है, उसे प्रदर्शित कर देना ही फूहड़ता है... और जब हास्य कलाकार उस निहायत ही व्यक्तिगत गतिविधि को सार्वजनिक मंच पर अंजाम देते दिखते हैं, तो दर्शक अपने आश्चर्यजनक भावों को हंसी तथा दबी हुई हंसी के ज़रिये व्यक्त कर देता है... इसमें जुगुप्सा होती है, जो दर्शकों के जायके को खराब कर देती है...
कपिल, वैसे तो आप पहले भी ऐसे ही थे, लेकिन कुछ-कुछ ही थे, इतने ज़्यादा नहीं थे... आपने अपने प्रोग्राम के इस द्वितीय खण्ड की शुरुआत ही (जो देश की राजधानी में कुछ गणमान्य लोगों के सामने की गई) फूहड़ता के जबर्दस्त छौंक के साथ की है... भविष्य दिखाई दे गया और यह भी साफ-साफ लग गया था कि 'आप चूक रहे हैं और बहुत जल्दी पूरी तरह चूकने वाले हैं,' क्योंकि अब आपके कहने और करने से पहले ही हमें पता चल जाता है कि आप क्या कहने वाले हो और क्या करने वाले...
क्या यह बेहतर नहीं होता कि कलर से सोनी में शिफ्ट करने की यात्रा के दौरान आप कुछ नया सोचते... खुद का अनुसंधान करते, इनोवेट करते... सोनी का यह शो एक नया शो है, सो, कुछ तो नया दिखता... ऐसा लगता है कि आप एक टेस्टेड फॉर्मूले को दोहराए जा रहे हैं... क्या नए से डर लगने लगा है...? यदि यह सच है, तो यह सच भी बहुत जल्दी घटित होगा कि 'समय आपको बाहर कर देगा...' वर्तमान को अतीत होना ही होता है, लेकिन जो अपने वर्तमान में हमेशा भविष्य को खींचकर लाने का माद्दा रखते हैं, वे कभी नहीं बीतते...
भले ही हो यह मार्क्सवादी स्थापना, लेकिन तीसरी स्थापना पूरी तरह सच है कि 'जैसे ही कोई कला बिकाऊ होती है, उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है...' मैं इसी में जोड़ना चाहूंगा कि उसकी विश्वसनीयता भी खत्म हो जाती है... हालांकि कहीं न कहीं ये दोनों एक भी हैं, क्योंकि जिस पर आपको भरोसा नहीं होगा, वह सुन्दर लग ही नहीं सकता... हां, इसके विपरीत ज़रूर हो सकता है...
मैं पिछले दिनों एक चैनल पर उस व्यक्ति के द्वारा की गई एक फिल्म की समीक्षा सुन रहा था, जिन पर मैं पूरा विश्वास करता था... उन्होंने उस फिल्म की तारीफ के कुछ इतने अधिक पुल बांधे कि मुझे अविश्वास होने लगा, तो मैंने दूसरे चैनल की समीक्षा भी सुन डाली, जो पहले के बिल्कुल उलट थी... पहले ने कहा, 'इसे हाउसफुल कीजिए, आप हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएंगे...' दूसरे ने कहा, 'बिल्कुल मत जाइए, बशर्ते आप फूहड़ता पर हंस न सकते हों...'
मैं समझ गया, मूल समस्या कहां है... सचमुच उसे कॉमेडी फिल्म नहीं, फूहड़ फिल्म कहना चाहिए...
कभी-कभी सोचता हूं कि यदि कपिल शर्मा चैनल पर न आकर अपने लिए अभिव्यक्ति का कोई अन्य माध्यम चुनते, तो वह आज क्या होते और कैसे होते... शायद टीआरपी के दबाव से मुक्ति उनकी रचनात्मकता की उड़ान का सबब बन गई होती, लेकिन आज के समय में क्या इस मुक्ति को पा लेना भी इतना आसान है...?
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Jun 14, 2016
यह क्या है, कपिल शर्मा...? क्या कभी टीआरपी के दबाव से मुक्ति पा सकेंगे आप...?
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:जून 14, 2016 11:45 am IST
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Published On जून 14, 2016 11:43 am IST
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Last Updated On जून 14, 2016 11:45 am IST
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