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This Article is From Nov 23, 2016

नोटबंदी, शराबबंदी, तीन तलाक और देश की राजनीति का नया चेहरा

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 24, 2016 15:01 pm IST
    • Published On नवंबर 23, 2016 16:12 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 24, 2016 15:01 pm IST
विशेषकर पिछले चार महीनों के दौरान हमारा देश चार ऐसे अत्यंत चर्चित मुद्दों से गुज़रा है, जिनमें देश की राजनीति के बदले और बदलते चेहरे की झलक देखी जा सकती है.

पहली घटना है, बिहार सरकार द्वारा की गई शराबबंदी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह कदम न नया था, न अंतिम. उनसे पहले भी कई राज्य इसे लागू कर चुके हैं, वापस भी ले चुके हैं, लेकिन नीतीश कुमार के लिए यह इस मायने में नया है कि उन्हें इसके बावजूद इसमें वोटों का 'थोकीकरण' दिखाई दे रहा है कि एक गरीब राज्य की आय को इस फैसले से भारी धक्का पहुंचेगा. तभी तो हाईकोर्ट द्वारा शराबबंदी के कुछ नियमों को गलत ठहराने के बावजूद उन्होंने शराबबंदी को वापस नहीं लिया. जाहिर है, उनकी राजनीति अब जातिगत ध्रुवीकरण की बजाय लैंगिक ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रही है. निःसंदेह इस मुद्दे ने नीतीश कुमार को गांव की सभी महिलाओं का चहेता मुख्यमंत्री बना दिया है... एक ऐसा मुख्यमंत्री, जो उनके हितों के बारे में 'सचमुच' सोचता है...

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बिल्कुल इसी तरह की राजनीति भारतीय जनता पार्टी की 'तीन तलाक' के मामले में है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका खुलेआम विरोध ही नहीं किया, सुप्रीम कोर्ट में अपना यह मन्तव्य भी दाखिल किया है कि "हम इसे नहीं चाहते..." ऐसा उन्होंने यह जानते-बूझते किया है कि इससे देश की 13 फीसदी मुस्लिम आबादी उनके खिलाफ हो जाएगी, लेकिन यह राजनीति का वह पुराना चेहरा और गणित है, जिससे अभी तक शेष पार्टियां चिपकी हुई हैं.

नई राजनीति यह है कि इस आबादी का आधा हिस्सा, जो महिलाओं का है, तलाक की इस प्रथा से त्रस्त होने के कारण इसके विरोध में है, इसलिए वह उनके साथ है, जो इसका विरोध कर रहे हैं. शेष आधों में भी पढ़ा-लिखा वर्ग न केवल इसे गलत मानता है, बल्कि इसका उसके जीवन से कोई वास्ता ही नहीं है. महिलाओं के लिए खुशखबरी यह है कि मतदान गुप्त होता है.

तीसरी घटना देश की राजनीति का केंद्र रहे उत्तर प्रदेश की है, जहां सरकार में नहीं, सरकार में बैठी राजनैतिक पार्टी में महाभारत मचा. ऊपरी तौर पर तो यह पिता-पुत्र, चाचा-भतीजा या बूढ़े-नौजवान के बीच की सत्तात्मक कलह दिखाई देती है, लेकिन है यह मूलतः पुराने और नए राजनीतिक चेहरों के बीच की मुंहचिढ़ाई. पुरानी पीढ़ी के पिता और चाचा इसी राजनीति के हिमायती हैं, जिस पर सवार होकर वे सिहासन तक पहुंचे.

उनकी मुश्किल यह रही कि इसके बाद विशेषकर पिछले 15 वर्षों से वे अपने चापलूसों के घेरे को चटकाकर बाहर कुछ नहीं देख पाए, जबकि मुख्यमंत्री के रूप में सक्रिय अखिलेश यादव इस परिवर्तन को न केवल देख रहे थे, बल्कि स्वयं उस परिवर्तन को खुद के अन्दर महसूस कर रहे हैं. यह परिवर्तन मूलतः विकास का परिवर्तन है. यह युवाओं के नवीन चेहरे पर झलकता आकांक्षाओं का एक ऐसा परिवर्तन है, जिसमें जाति, धर्म और क्षेत्र के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं रह गई है, लेकिन पहले तो परिवर्तनों को पहचानना, और फिर उन्हें स्वीकार कर पचाना आसान नहीं होता. उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले चुनाव इस परिवर्तन की गवाही देंगे.

अब आते हैं चौथे और आखिरी मुद्दे पर, जिसे लेकर फिलहाल देशभर में घमासान मचा हुआ है. यह मुद्दा काले धन का है, जिसे देखकर भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के बाद दिया गया 'गरीबी हटाओ' का नारा याद आता है. इस नारे ने देखते-देखते तत्कालीन प्रधानमंत्री को 'गरीबों का मसीहा' बना दिया था. क्या आपको काले धन का खात्मा करने के संकल्प को लेकर उठाए गए नोटबंदी के कदम से इसी नारे की ध्वनि सुनाई नहीं पड़ रही है...? उत्तर यदि 'हां' में है, तो इसका अर्थ हुआ कि आपको राजनीति का बदलता हुआ चेहरा दिखाई दे गया है. ज़ाहिर है, सत्ता उसी का वरण करेगी, जो राजनीति के वर्तमान चेहरे को पहचान पाएगा.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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