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This Article is From Aug 29, 2016

डोनाल्‍ड ट्रंप की जीत वैश्वीकरण के ताबूत में आखिरी कील होगी

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 29, 2016 16:48 pm IST
    • Published On अगस्त 29, 2016 16:15 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 29, 2016 16:48 pm IST
महात्मा गांधी से मिलने आए अमेरिका के एक प्रतिनिधिमंडल ने बातचीत के दौरान जैसे ही 'अमेरिका की संस्कृति' शब्द का इस्तेमाल किया, गांधी जी ने उन्हें वहीं रोकते हुए प्रश्न किया, "क्या अमेरिका की भी कोई संस्कृति है...?"

निश्चित रूप से इसमें बापू का पूंजीवादी संस्कृति के प्रति आक्रोश का भाव तो शामिल था ही, लेकिन साथ ही इसका एक दूसरा पक्ष भी था, और वह था - उसका समावेशी होना. विशेषकर 20वीं शताब्दी के शुरू होते ही अमेरिका ने अपने दरवाज़े दुनिया के लिए कुछ इस तरह खोले कि जीवन के हर क्षेत्र के लोग उसकी ओर खिंचते चले गए. अमेरिका की आज की समृद्धि और उसके सुपरपॉवर बनने का रहस्य उसके इसी खुलेपन में निहित है.

तो क्या अब अमेरिका अपने इतिहास के चक्के को उल्टा घुमाने जा रहा है...? रिपब्लिकन पार्टी की ओर से अमेरिका के अगले राष्ट्रपति के लिए नामांकित उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के विचारों से तो कमोबेश यही लग रहा है. ओहायो की अपनी चुनावी सभा में उन्होंने साफ-साफ कहा, "हमें उन्हीं लोगों को अपने देश में आने की इजाज़त देनी चाहिए, जो हमारे मूल्यों को समझते हैं... हमारे लोगों का सम्मान करते हैं... जो हमारे संविधान में विश्वास रखते हैं... अमेरिका में आने वाले नए लोगों की विचारधारा को लेकर परीक्षा होनी चाहिए..." ट्रंप ने इसे 'आइडियोलॉजिकल स्क्रीनिंग टेस्ट' का नाम दिया है.

ट्रंप का यह सुझाव कहीं न कहीं शीतयुद्ध के दौरान के जबर्दस्त वैचारिक विभाजन एवं टकराव की याद दिलाता है. साथ ही मन में एक भयानक किस्म का खौफ भी पैदा करता है. भले ही उनका इशारा शरिया कानून लागू करने वाले आतंकवादियों की ओर हो, लेकिन इसकी गिरफ्त में अन्य उन विचारों को आने से रोकना असंभव होगा, जो 'अमेरिका के मूल्यों' से मेल नहीं रखते होंगे.

दरअसल, ट्रंप जिन 'अमेरिकी मूल्यों' की बात कर रहे हैं, वे हैं क्या, इसे जानने के लिए हमें माइकल-डी-एन्टोनियो की नई पुस्तक 'ट्रूथ अबाउट ट्रंप' के पन्ने पलटने होंगे. इसमें एन्टोनियो डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका का एक विकराल प्रतिबिंब मानते हुए कहते हैं कि आम अमेरिकी केवल धन से प्यार करता है, और वह सहज भाव से जो कुछ भी करता हुआ दिखाता है, उसके पीछे एकमात्र प्रेरणा धन की प्राप्ति होती है. धन की भूख ही अमेरिका के लोगों के जीवन की धुरी है, और ट्रंप उसी धुरी पर घूमते हैं. परोक्ष रूप से ट्रंप अमेरिकी नागरिकों की इसी मूलभूत इच्छा को साकार करते हैं.

कहना न होगा, पूरी दुनिया से अमेरिका की ओर जाने वाला काफिला 'गोल्ड रश' वाला ही काफिला है. आज जिस वैश्वीकरण का गान पूरे गाजे-बाजे के साथ किया जा रहा है, उसके केंद्र में मुख्यतः अमेरिकी अर्थव्यवस्था का ही हित है. विश्व को संचालित करने वाली चाहे संयुक्त राष्ट्र जैसी राजनीतिक संस्था हो, अथवा विश्वबैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी आर्थिक संस्थाएं, ये न केवल लोकतांत्रिक सिद्धांतों का मुंह चिढ़ाती नज़र आती हैं, बल्कि इन सभी पर इसी 'बिग बॉस' अमेरिका का कब्ज़ा है. यहां तक कि आंखों के सामने जब कभी विश्व-संस्कृति का चेहरा उभरता है, तो वह मूलतः अमेरिका की ही संस्कृति होती है.

ज़ाहिर है, ट्रंप की आज की आवाज़ में इसी 'विश्व-विजेता' के अहंकार की हुंकार सुनाई दे रही है. सिकंदर को खुद की अवहेलना कतई स्वीकार नहीं थी... इसके बावजूद कि वह दूसरों की अवहेलना करने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता था... सो, अमेरिका आज का सिकंदर है.

...और यदि अमेरिका आज का सिकंदर है, तो ब्रिटेन बीते हुए कल का सिकंदर था. इसीलिए तो अपने ही महाद्वीप के देशों के संघ का साथ स्वीकार कर पाने में उसे दिक्कत हुई. साथ तो समान से होता है, बराबरी वालों से होता है. ब्रिटेन तो इन सबसे ऊपर रहा है, इसलिए उसने 'ब्रेक्ज़िट' कर लिया.

इसलिए लग रहा है कि 'विश्व-राष्ट्र' के दिन अब पूरे होने वाले ही हैं. यदि ट्रंप जीते, तो फिर इस जीत को इसके ताबूत की अंतिम कील मान लिया जाना चाहिए.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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