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This Article is From Oct 11, 2017

राजनीति, नौकरशाही के बीच जारी 'धूप-छांव' के खेल से अवाम असमंजस में

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 11, 2017 14:24 pm IST
    • Published On अक्टूबर 11, 2017 14:24 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 11, 2017 14:24 pm IST
गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स, यानी GST में किए गए बदलावों के बारे में जवाब देते हुए एक न्यूज़ चैनल पर राजस्व सचिव हंसमुख अधिया ने एक सामान्य-सी लगने वाली बात कही थी, जिससे आज की सरकार और प्रशासन की कार्यप्रणाली पर काफी रोशनी पड़ती है. जब बात GST काउंसिल पर आई, तो उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से उसकी प्रशंसा में कहा कि दरअसल राजनेता लोगों से सीधे जुड़े रहते है, तो उन्हें लोगों की ज़रूरतें मालूम होती हैं, जिन्हें नौकरशाह नहीं जानते. मालूम नहीं कि उन्होंने यह कटु-सत्य वाक्य खुद सोच-समझकर कहा या यूं ही अपने-आप निकल गया, या उनसे कहलवाया गया. लेकिन है यह दमदार बात और विचारणीय भी, क्योंकि विचार करने पर यह वाक्य अनेक प्रश्न खड़े कर उत्तरों की मांग कर रहा है.

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पहला प्रश्न तो यही है कि क्या इसका अर्थ यह हुआ कि GST के सारे नियम-कानून देश की जड़ से अलग-थलग रह रहे नौकरशाहों ने ही बनाए हैं... वैसे इस बात की ताकीद सुब्रमण्यम स्वामी ने भी अपने एक साक्षात्कार में कुछ यूं की है कि "सारे निर्णय ब्यूरोक्रैट्स (नौकरशाहों) द्वारा लिए जा रहे हैं..."

अगला प्रश्न यह है कि फिर हमारे राजनेता क्या कर रहे हैं... क्या केवल यह बता रहे हैं कि "हम यह चाहते हैं..." क्या मंत्रिमंडल, मंत्रिपरिषद तथा संसदीय समितियां अपनी भूमिका क्रमशः खो रही हैं... साथ ही यह भी कि यदि यह सच है, तो क्या इस सच को जानने के बावजूद GST जैसी चुनौतीपूर्ण नीति को बनाने की ज़िम्मेदारी ऐसे अव्यावहारिक नौकरशाहों को सौंपना विवकेपूर्ण निर्णय कहा जा सकता है...?

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ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. फटाफट बदलावों की दुर्बल, अस्थिर एवं तथाकथित क्रांतिकारी नीतियों को देश इससे पहले विमुद्रीकरण में देख और झेल चुका है. आश्चर्य की बात तो यह लगती है कि विमुद्रीकरण, यानी नोटबंदी एवं GST के मामलों में हमारे नीति-निर्माता उन बहुत सारी उन सामान्य-सी व्यावहारिक परेशानियों तक को नहीं देख पाए, जिन्हें देश का आम आदमी देख रहा था और उनके प्रति खुलेआम अपनी आशंकाएं भी ज़ाहिर कर रहा था. यह इस बात का जीता-जागता प्रमाण है कि न केवल ब्यूरोक्रेसी ही, बल्कि पॉलिटिक्स भी अपनी ज़मीन को छोड़ चुकी है.

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यहां एक और मुश्किल है, जिसका संबंध नीतियों को लागू करने से है. जब आप अपने लोगों को जानते ही नहीं, तो फिर आप उनके लिए काम कैसे करेंगे... क्या डंडे के दम पर...? यदि इसका उत्तर 'हां' में है, जो ब्यूरोक्रैट्स को सबसे अधिक सूट करता है, तो फिर प्रधानमंत्री के 'सुशासन' तथा 'न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन' वाले लुभावने नारों का क्या होगा... क्या सरकार ऐसी नौकरशाही की प्रणाली और चरित्र में बदलाव के लिए कुछ करने जा रही है, 'गाजर और छड़ी' की परम्परागत नीति के अतिरिक्त...?

ऐसा लग रहा है, मानो, असफलताओं का ठीकरा नौकरशाहों के सिर फोड़ना अब अंतरराष्ट्रीय चलन बनता जा रहा है. इसका प्रमाण उस समय मिला, जब अमेरिका के राष्ट्रपति ने अभी-अभी संयुक्त राष्ट्र महासभा के सम्मेलन में 'संयुक्त राष्ट्र में सुधार' विषय पर बोलते हुए कहा था कि "इसके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा नौकरशाही है..." तो फिर उस बाधा को हटा क्यों नहीं दिया जाता, उसे बदल क्यों नहीं दिया जाता...? क्या राजनीति उनके सामने इतनी असहाय है...?

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इसका सबसे अच्छा उदाहरण मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के पिछले छह महीनों के वक्तव्यों में देखा जा सकता है. एक दिन उन्होंने कहा कि 'राज्य की नौकरशाही बेस्ट है...' कुछ ही दिन बाद उन्होंने इसी 'बेस्ट ब्यूरोक्रेसी' को धमकी दे डाली कि "सुधरो, वरना टांग दूंगा..." और अभी-अभी एक गांव में जाकर वहां की दुर्दशा पर आंसू बहाते हुए कह आए कि "मेरा दिल यह देखकर रो रहा है..." यानी, मैं करना तो चाह रहा हूं, लेकिन करने दिया नहीं जा रहा है...

कुल मिलाकर यह कि राजनीति और नौकरशाही के इस धूप-छांव वाले खेल से अवाम काफी कुछ भ्रम में है कि वह जिम्मेदार किसे ठहराए.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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