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This Article is From Dec 27, 2018

राजनीति की भट्टी में पिघलाया जा रहा स्टील प्रेम...

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    December 27, 2018 20:50 IST
    • Published On December 27, 2018 20:50 IST
    • Last Updated On December 27, 2018 20:50 IST

पहले देश के तीन राज्य के लोगों ने सत्ता में बैठे राजनीतिक दलों में बदलाव किया. नई पार्टी सत्ता पर आसीन हुई, और गद्दी पर आने के बाद उसने जो दूसरा बड़ा काम किया, वह था - बड़ी संख्या में प्रशासनिक फेरबदल. मीडिया में इसे 'प्रशासनिक सर्जरी' कहा गया. 'सर्जरी' किसी खराबी को दुरुस्त करने के लिए की जाती है. ज़ाहिर है, इससे ऐसा लगता है कि इनके आने से पहले प्रशासन में जो लोग थे, वे सही नहीं थे. अब उन्हें ठिकाने (बेकार के पद) लगाया जा रहा है, जैसा व्यक्तिगत रूप से बातचीत के दौरान एक नेता ने थोड़ा शर्माते हुए कहा था, "पहले उनके लोगों ने मलाई खाई, अब हमारे लोगों की बारी है..."

सत्ता के साथ प्रशासन के संबंध के बारे में स्थानांतरण के इस दृष्टिकोण पर बहुत संवेदनशीलता के साथ विचार किए जाने की ज़रूरत है, क्योंकि उनकी यह कार्रवाई हमारे उच्चाधिकारियों की कार्यप्रणाली और यहां तक कि उनकी सत्यनिष्ठा की पर भी अंगुली उठाती है, बशर्ते उनका दृष्टिकोण सही हो.

राजनीतिक नेतृत्व इस 'मास ट्रांसफर' को अपने 'फेवरेबल' अधिकारियों के चयन की एक आवश्यक प्रक्रिया मानता है, ताकि उनके चुनावी वचनों को पूरा किया जा सके, तथा मंत्री एवं प्रशासन के संबंध भी बेहतर बने रहें. इससे काम अच्छे से चलता रहता है.

दरअसल, यह विचार अपने आप में लोकतांत्रिक प्रशासनिक व्यवस्था के बिल्कुल विरुद्ध विचार है. राजनेता प्रशासन को विधि संबंधी नेतृत्व (आदेश) मात्र देता है, और प्रशासन इस नेतृत्व को स्वीकार करके उस आदेश को स्थापित विधियों के फ्रेम में लागू करता है. निश्चित रूप से मंत्रियों द्वारा दिए गए ये आदेश (लिखित) संविधान के दायरे में ही हो सकते है, लेकिन यहां द्वन्द्व लिखित आदेशों का नहीं, उन अदृश्य आदेशों का है, जो लिखित रूप में नहीं दिए जा सकते. यहीं पर ये 'तथाकथित फेवरेबल अधिकारी', जिन्हें सम्मानजनक भाषा में 'योग्य, सक्षम एवं सक्रिय' अधिकारी कहा जाता है, उनके काम आते हैं. इसी तरह के गठबंधन अनेक तरह के नियम विरुद्ध कार्यों का कारण बनकर लोकतंत्र के माथे पर काला टीका लगाते हैं.

अन्यथा, जहां तक प्रशासन के अधिकारियों की बात है, ब्रिटेन की तर्ज पर उनसे स्पष्ट रूप से 'राजनीतिक तटस्थता' की न केवल उम्मीद की जाती है, बल्कि यह उनके लिए अनिवार्य है. अधिकारियों की यह तटस्थता राष्ट्र के तीनों महत्वपूर्ण वर्गों के मन में प्रशासन के प्रति विश्वास का भाव पैदा करती है. जनता के मन में इससे यह भाव निर्मित होता है कि अधिकारी वर्ग राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर (दोनों ही ओर से) उसका काम करेगा. स्वयं मंत्रियों को भी इससे यह विश्वास मिलता है कि उन्हें लोकसेवकों की पूरी निष्ठा प्राप्त होगी. तटस्थता की यह नीति सिविल सेवकों में यह विश्वास बनाए रखकर प्रशासन को कुशल बनाए रखती है कि उनका करियर उनकी योग्यता पर आधारित है, राजनीतिक मान्यताओं पर नहीं.

'प्रशासनिक सर्जरी' की कार्रवाई, दुर्भाग्य से इन मूलभूत विश्वासों पर गहरी चोट करती है. यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो शेष सिविल सेवक 'राजनीतिक तटस्थता' की मर्यादा का पालन करते ही हैं. यदि कोई अधिकारी अपनी विशेष योग्यता तथा व्यवहारकुशलता के कारण किसी मंत्री के साथ सौहार्दपूर्वक अपेक्षाकृत लम्बे समय तक काम कर लेता है, तो इसे उस अधिकारी की उस मंत्री की राजनीतिक पार्टी के प्रति निष्ठा मान लेना एक भयंकर गलती होगी. ऐसा मानकर सत्ता दल न केवल उस योग्य अधिकारी के कार्यों के लाभ से ही समाज को वंचित करता है, बल्कि अधिकारियों के नैतिक मनोबल को कमज़ोर भी करता है. साथ ही राष्ट्र का यह 'स्टील फ्रेम' भी इससे अपनी मजबूती और दृढ़ता को खो देगा, जो अंततः देश के लिए कतई हितकर नहीं होगा.

आज़ादी के बाद केंद्र एवं राज्यों में लगातार सत्ता-परिवर्तन होते रहे हैं, लेकिन ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जब इस परिवर्तन ने प्रशासन में कोई परिवर्तन नहीं किया. इसके अच्छे उदाहरण के रूप में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने को प्रस्तुत किया जा सकता है. उनके प्रधानमंत्री बनने पर जो कैबिनेट सेक्रेटरी (देश का सर्वोच्च नौकरषाह) थे, उनका कार्यकाल केवल एक माह बचा था. लेकिन उन्हें सेवा में विस्तार दिया गया. प्रधानमंत्री कार्यालय के निदेशकों एवं संयुक्त सचिवों ने अपना-अपना कार्यकाल पूरा किया. 

लोकसेवकों के प्रति यह दृष्टिकोण देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के उन शब्दों के अनुकूल है, जो उन्होंने स्वतंत्र भारत में भर्ती किए गए पहले बैच को मेटकॉफ हाउस में संबोधित करते हुए 21 अप्रैल, 1949 को कहे थे, 'सिविल सेवक सरकार के उपकरण हैं. उनकी निष्ठा राज्य के प्रति होती है. यह सरकारों के ऊपर है कि वह इनका उपयोग किस प्रकार करती हैं...' ज्ञातव्य हो कि जिस तारीख को सरदार पटेल ने ये शब्द कहे थे, उसी तारीख को हमारा यह देश 'सिविल सर्विस दिवस' के रूप में मनाता है. सच्चा मनाना तो उन विचारों को लागू करने में होगा.
 

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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