लोकतंत्र पर मंडराती नौकरशाही तंत्र की छाया

यदि किसी नौकरशाह के भीतर सचमुच राष्ट्रप्रेम की भावनाएं ज़ोर मार रही हैं, तो मेरी समझ से उनके लिए सर्वोच्च और आदर्शतम मार्ग अरविंद केजरीवाल और अजीत जोगी की बजाय अरुणा राय का हो सकता है.

लोकतंत्र पर मंडराती नौकरशाही तंत्र की छाया

छत्तीसगढ़ के आईएएस ओपी चौधरी ने बीते दिनों नौकरी से इस्तीफा देकर बीजेपी की सदस्यता ग्रहण की.

नई दिल्ली:

यह 1988 की बात है, जब डॉ शंकरदयाल शर्मा भारत के उपराष्ट्रपति थे. मैं उनका निजी सचिव था और इसी हैसियत से मैं उपराष्ट्रपति जी के सचिव के पास; जो एक सीनियर IAS अधिकारी थे, अपने पीए के लिए सरकारी मकान की प्रार्थना लेकर गया था. उस समय नियम में यह था कि VVIP के निजी स्टाफ को आउट ऑफ टर्न, यानी बिना बारी आए सरकारी मकान मिल सकता था. मेरे इस अनुरोध को सुनते ही सचिव महोदय ने आश्चर्य से अपनी आंखें फैलाते हुए मुझसे कहा था, "दिल्ली में भला रहने के मकानों की कोई समस्या कहां है...?" यहां यह बताना सही होगा कि वह दून स्कूल में पढ़े थे और उनके पिता खुद एक IAS ऑफिसर रहे थे.

अपने विषय को इस घटना से शुरू करना थोड़ा अजीब ज़रूर लग सकता है, लेकिन आगे मैं जिस संदर्भ में बात करने जा रहा हूं, उसके लिए इस घटना की चर्चा मुझे सबसे उपयुक्त लगी. दरअसल, यह घटना कुछ दिन पहले छत्तीसगढ़ कैडर के IAS अधिकारी ओपी चौधरी द्वारा अपनी 13 साल की नौकरी के बाद त्यागपत्र देकर राजनीतिक पार्टी ज्वाइन कर लेने से जुड़ी हुई है. इस घटना के कुछ ही दिन बाद छत्तीसगढ़ के लगभग 14 IAS, IPS तथा भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारियों ने विधिवत तरीके से सत्तारूढ़ दल को ज्वाइन किया.

यदि इस घटना को संवैधानिक, कानूनी एवं प्रशासनिक आचार संहिता के आईने में देखें, तो इसमें कहीं कुछ भी गलत नहीं है. बल्कि इस रूप में देश का एक बहुत बड़ा वर्ग इस तरह की घटनाओं का दिल खोलकर स्वागत ही करेगा कि इससे राजनीति में पढ़े-लिखे, अनुभवी तथा अच्छे लोगों का प्रवेश होगा. इससे देश के लिए अच्छी नीतियां बन सकेंगी तथा संसद एवं विधानसभाओं में बहस का स्तर बेहतर हो सकेगा. हालांकि कुछ-एक अपवादों को छोड़कर इस तबके से राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले तथाकथित नेताओं ने जनता के इस विश्वास को बनाए रखने का अब तक कोई पुख्ता सबूत देने की ज़रूरत नहीं समझी है.
 
लेकिन आइए, यहां इससे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण सवालों और समस्याओं पर विचार करें...

यहां हमें थोड़ा रुककर यह सोचना होगा कि लोकतंत्र की आत्मा मूलतः लोक में बसती है या ब्यूरोक्रेसी में...? इतने उच्च स्तर पर प्रवेश करने से पहले ब्यूरोक्रेसी के ये सदस्य आए भले ही लोक-जीवन से क्यों न हों, लेकिन मसूरी की प्रशासनिक अकादमी में प्रवेश करते ही उनकी चेतना का जो रूपान्तरण होता है, वह उन्हें लोकतंत्र पर शासन करने वाले एक विशिष्ट तंत्र में तब्दील कर देता है, और 10 साल की नौकरी करने के बाद यह तब्दीली इतनी सीमेंटेड हो जाती है कि उसमें फिर किसी भी तरह की तब्दीली की गुंजाइश नहीं रह जाती.


चुनाव जीतने की मजबूरी भले ही उन्हें लोगों के बीच जाने के लिए प्रेरित करे, लेकिन उनकी कार्यपद्धति में कहीं भी लोकतंत्र की आत्मा दिखाई नहीं देती, और न ही समाज अथवा राष्ट्रसेवा का वह पवित्र भाव दिखाई देता है, जिसका दावा करते हुए वे राजनीति में प्रवेश करते हैं. सच बात तो यह है कि यहां अस्थायी कार्यपालिका एवं स्थायी कार्यपालिका की वह विभाजन रेखा भी मिट जाती है, जिसके तहत यह कहा जाता है कि अस्थायी कार्यपालिका (मंत्री) स्थायी कार्यपालिका (नौकरशाह) का नेतृत्व करते हैं. यह नौकरशाहों द्वारा नौकरशाहों का नेतृत्व किए जाने वाली स्थिति बन जाती है.

जहां तक इन नौकरशाहों द्वारा जनाकांक्षाओं की अनुभवजन्य जानकारियों का प्रश्न है, ऐसी कल्पना करना मृगमरीचिका से अधिक कुछ नहीं होगा. इसके प्रमाण के तौर पर कुछ महीने पहले के एक पूर्व नौकरशाह (जो अब मंत्री हैं), द्वारा पेट्रोल की कीमत बढ़ने पर दिए गए उनके बयान से समझा जा सकता है. उन्होंने कहा था कि पेट्रोल की कीमत बढ़ने का कोई प्रभाव गरीबों पर नहीं पड़ता और जो बाइक एवं कार चलाते हैं, वे बढ़ी हुई कीमत पर पेट्रोल खरीद सकते हैं.


दूसरी बात नौकरशाही के 'तटस्थता' के मूलभूत सिद्धांत से भी जुड़ी हुई है. यदि कोई नौकरशाह नौकरी छोड़ने के अगले ही दिन अपने ही राज्य के सत्तारूढ़ दल को ज्वाइन करता है, तो यह मानने और विश्वास करने का कोई कारण नज़र नहीं आता कि वह अपने प्रशासनिक निर्णयों के संदर्भ में राजनीतिक रूप से तटस्थ रहा होगा. हां, यह बात अलग है कि उसके विरुद्ध ऐसा कोई प्रामाणिक साक्ष्य न मिले, लेकिन यह भी तो है कि क्या इससे भी बड़े किसी अन्य साक्ष्य की ज़रूरत रह जाती है.


अखिल भारतीय सेवा में प्रवेश करने के बाद इस सच्चाई का एहसास होने में अधिक वक्त नहीं लगता है कि वे वस्तुतः यहां जिस अधिकार-सम्पन्नता की कल्पना करके आए थे, वह राजनीतिक वर्ग के पास है. ऐसी स्थिति में उनके पास तीन विकल्प शेष रह जाते हैं - वे सामान्य रूप से नौकरी करते रहें, राजनेताओं के साथ गठजोड़ करके अधिकारों में भागीदारी करते रहें या स्वयं को राजनेताओं में तब्दील कर लें. पहली स्थिति एक ऐसी आदर्शवादी स्थिति है, जो अब अपवाद रूप में ही शेष रह गई है. दो स्थितियों की बहुतायत है और इसमें तीसरी स्थिति तेज़ी के साथ आगे बढ़ रही है.

यहां इस बात का भी उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि अब सरकारों के पास अन्य ऐसे बहुत-से पद हो गए हैं, जिनका इस्तेमाल वे सेवानिवृत्त नौकरशाहों को दिखाने के रूप में करते हैं. इससे नौकरशाहों और राजनेताओं का जो गठबंधन तैयार हो रहा है, उससे मूलतः न केवल लोकतंत्र की आत्मा का ही हनन होता दिखाई पड़ रहा है, बल्कि उसकी काली छाया प्रशासन की दक्षता, गुणवत्ता एवं उसकी विश्वसनीयता को भी प्रदूषित कर रही है.

यदि किसी नौकरशाही के भीतर सचमुच राष्ट्रप्रेम की भावनाएं ज़ोर मार रही हैं, तो मेरी समझ से उनके लिए सर्वोच्च और आदर्शतम मार्ग अरविंद केजरीवाल और अजीत जोगी की बजाय अरुणा राय का हो सकता है. ग्रासरूट लेवल से आए हुए नेताओं की जगह नौकरशाहों का आना लोकतंत्र की दृष्टि से बहुत शुभ मानने में फिलहाल हिचक महसूस हो रही है.

डॉ विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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