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This Article is From Sep 14, 2016

#मैंऔरमेरीहिन्दी : दुनिया की भाषा नहीं है अंग्रेज़ी...

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 21, 2016 15:57 pm IST
    • Published On सितंबर 14, 2016 17:13 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 21, 2016 15:57 pm IST
भारत में रहते हुए हमें यही लगता है कि अंग्रेजी न केवल दुनिया की भाषा है, बल्कि यह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भाषा भी है. दुनिया का जितना भी ज्ञान है, केवल इसी भाषा में है. इसलिए यदि यह आ गई, तो मान लो कि आप दुनिया के ज्ञानी व्यक्ति बन गये और ‘विश्व नागरिक’ भी.

यहां आप कह सकते हैं कि ‘हिन्दी दिवस’ के मौके पर इस अंग्रेजी की बात का भला क्या औचित्य है. इसका औचित्य है और औचित्य इस बात में है कि हमारे देश में हिन्दी की जो आज दुर्गति है, वह सिर्फ और सिर्फ इस अंग्रेजी के ही कारण है. अंग्रेजी की इस अमरबेल को हटा दीजिए, हिन्दी के साथ-साथ सारी भारतीय भाषायें हरहरा उठेंगी. तो आइये, थोड़ा जानते हैं- अंग्रेजी के उन हालतों के बारे में, जिसकी गलत छवि ने हम भारतीयों को गुलाम बना रखा है.

शुरुआत करते हैं उस इंग्लैंड से जिसने अंग्रेजी के विश्व भाषा संबंधी मिथक को लोगों की चेतना में रचाया-बसाया है. सवाल यहां यह है कि क्या स्वयं इंग्लैंड के सारे लोग अंग्रेजी बोलते हैं? इस ‘ग्रेट ब्रिटेन’ में इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स आते हैं. आपको यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अंग्रेजी की इस जननी वाले देश की अपनी तीन राजभाषायें हैं - अंग्रेजी, स्कॉटिश और वेल्स. इससे भी मज़ेदार बात यह है कि कुल साढ़े छः करोड़ की आबादी वाले (उत्तर प्रदेश जितनी) इस देश में स्कॉटिश बोलने वाले मात्र 60 हजार (एक प्रतिशत) तथा वेल्सभाषी 8 लाख के करीब हैं.

तो क्या अंग्रेजी पूरे यूरोप की भाषा है? इसके भाषाई सूरते-हाल को हम यूरोपीय संघ के आइने में देखते हैं, जिसमें अभी 29 देश हैं. लगभग 50 करोड़ लोगों वाले इस संघ की संसद में 23 भाषायें स्वीकृत हैं. इस संसद में अंग्रेजी से लेकर मल्तिज भाषा तक बोली जाती है, जिसे जानने वालों की संख्या केवल, केवल और केवल पौने चार लाख है. यह है हमारे उन देशों की भाषा-नीति, जिन्होंने एक समय दुनिया पर राज किया था. जिन पर उन्होंने राज किया, उनमें से कुछ देशों का संगठन है, सार्क, जिनमें भारत भी है. इस संगठन की भाषा है - अंग्रेजी. कुछ इसी तरह का दुर्भाग्य हमारा भी है.

फ्रांस की हालत तो यहां तक है कि वे लोग अंग्रेजी से चिढ़ते हैं. एक दशक पहले वहां की संसद ने बाकायदा अंग्रेजी के कुछ शब्दों के प्रयोग को प्रतिबंधित कर दिया था. दुनिया के सबसे तकनीकी-ज्ञान वाले देश फिनलैंड में कभी इस बात पर बहस ही नहीं हुई कि वहां की भाषा अंग्रेजी हो या फिनिश.

आज ताइवान और कोरिया दुनिया के सबसे अधिक ‘नवोन्वेष’(innovation) देश माने जाते हैं. वहां कभी इस बारे में सोचा ही नहीं गया कि इनके यहां शिक्षा का माध्यम चीनी भाषा हो या अंग्रेजी. अपनी भाषा में ही यह दुनिया में अपना डंका बजा रहे हैं और दुनिया है कि सुन रही है और समझ भी रही है.

चलिए, थोड़ी नजर उपनिवेश की ओर भी घुमा लेते हैं. इंडोनेशिया नीदरलैंड (हॉलैंड) का उपनिवेष था. वियतनाम, कम्बोडिया और लाओस फ्रांस के अधीन रहे. आजादी के बाद इन सभी देशों ने अपनी-अपनी भाषाओं को अपनाया और स्वयं को दुनिया का गुरु बताने वाले हमारे देश ने आजादी के बाद अंग्रेजी को.

वस्तुतः भाषाई-सच्चाई यह है कि उपनिवेशवाद के अधीन रहे अधिकांश देशों ने ही अपनी भाषा को छोड़कर अपने उस समय के मालिकों की भाषा को अपनाया-राजकाज की भाषा के रूप में तथा उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में भी. इससे देश की ज्ञान की सत्ता कुछ लोगों के हाथों में सिमट गई. आज भी उदारीकरण का सारा लाभ इन्हीं कुछ लोगों की मुट्ठी में कैद है. क्या आर्थिक असमानता की इस समस्या पर कभी भाषाई दृष्टिकोण से विचार किया जायगा?

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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