रिपोर्टर की डायरी: बलविंदर के आंसू, नेपाली युवक की बेबसी... धराली और दर्द का वो सैलाब

धराली धीरे धीरे सदमे से उबर रहा है, लेकिन जिंदगी अभी भी थमी हुई है. 40 से 50 फीट तक का मलबा धराली के जिस्म को जकड़े हुए है. इससे वह कब आजाद होगा किसी को नहीं पता. NDTV रिपोर्टर किशोर रावत ने धराली के दर्द को करीब से देखा. बढ़िए एक रिपोर्टर की आंखोंदेखी...

रिपोर्टर की डायरी: बलविंदर के आंसू, नेपाली युवक की बेबसी... धराली और दर्द का वो सैलाब

5 अगस्त 2025. धराली में करीब दोपहर डेढ़ बजे सैलाब आया. मोबाइल से होते हुए टीवी स्क्रीन पर छाए एक खौफनाक वीडियो ने हर किसी के रोंगटे खड़ कर दिए. 5 अगस्त की शाम 3 बजे ही मैं देहरादून से धराली के लिए निकल पड़ा. रास्ते में कई बड़े लैंडस्लाइड, पहाड़ों से पत्थरों को गिरते देखा. क्या ही खौफनाक मंजर था! रात में अलमास से करीब 10 किलोमीटर आगे अचानक पहाड़ का एक हिस्सा गाड़ी के ठीक आगे गिरा. जैसे-तैसे कार को पीछे किया गया. ड्राइवर के साथ उतरकर पहले बड़े पत्थर हटाए और फिर मलबे से रास्ता बनाया. पहाड़ से धीरे-धीरे पत्थर गिर रहे थे. आधी रात किसी तरह से हम उत्तरकाशी पहुंचे.

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अलसुबह सुबह 4 बजे हम धराली के लिए निकले. भटवाड़ी में 100 मीटर के करीब रोड धंस गई थी. वहां इंतजार किया और उसके बाद रैथल-दयारा बुग्याल वाले रास्ते से लगभग 19 किलोमीटर आगे ऊंचे पहाड़ों से होते हुए भटवाड़ी से आगे पहुंचे. वहां सड़क का 250 से 300 मीटर हिस्सा बह चुका था. पूरा एक दिन इंतजार किया. रास्ता नहीं खुला, तो पैदल ही उस हिस्से को किसी तरह पार किया. हम गंगनानी पहुंचे. दूरी करीब 16 किलोमीटर. इसमें से 6 किलोमीटर पैदल चलना पड़ा. किस्मत से एक गाड़ी मिली. हम गाड़ी पर लटक गए. अंदर जगह नहीं थी. गंगनानी से भटवाड़ी तक गाड़ी आ सकती थी, उसके आगे नहीं जा रही थी. 

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...फैसला किया नाला पार करेंगे

गंगनानी से 3 किलोमीटर आगे लिमच्यागाड में पुल बह चुका था. धराली अभी भी बहुत दूर था. पुल न होने से पार जाना मुमकिन नहीं था. हम भटवाड़ी लौट आए.  भटवाड़ी के पास रात गुजारी. 7 अगस्त की सुबह फिर से कोशिश की. उस सड़क को पैदल ही पार करते हुए 16 किलोमीटर दूर गंगनानी गए. लिमच्यागाड में ध्वस्त पुल वाले हिस्से को पार करने की काफी कोशिश की. हम सफल नहीं हो पाए. 7 अगस्त की रात गंगनानी में काटनी पड़ी. लेकिन मन में तय किया जा चुका था कि पार जाना है.  8 अगस्त की सुबह 4 बजे उठकर लिमच्यागाड पुल को पार करने के लिए रस्सी का इंतजाम किया. वह सफल नहीं हो पाया. इसके बाद एसडीआरएफ और दूसरी एजेंसी का इंतजार किया कि वह शायद हमें इस रास्ते को पर करवाएगी. लेकिन उसके बाद एक साहसिक फैसला किया. 

...और हम नाला लांघ गए 

हम करीब 300 मीटर पहाड़ी में नीचे उतर गए. खतरनाक ढाल और फिर उतनी ही चढ़ाई. बेहद फिसलन भरी. फिसलन इतनी कि उतरने और चढ़ते वक्त पहाड़ी ढालों पर घास, बिच्छू घास (जिसे पहाड़ में कंडाली कहा जाता है), रिंगाल ,पत्थर, मिट्टी सब को पकड़ा. किसी तरह पहाड़ पार करना था. सच मानिए उस समय सिर्फ एक ही चीज दिमाग में थी कि इस खतरनाक पहाड़ को पार करना है. हाथों में कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था. 
 

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भूख और गांववालों के दिए वे सेब

जैसे-तैसे पार कर गए. रास्ते को पार करते हुए परिवार और भगवान याद आ गए. बेहद ही खतरनाक रास्ता था. उसके बाद पैदल ही सुनसान गंगोत्री नैशनल हाइवे पर डाबरानी पहुंचे. 100 मीटर की सड़क गायब थी. रास्ते को पैदल पार करते हुए आगे सोनगाड़ पहुंचे. यह लगभग गंगनानी से 7 किलोमीटर की दूरी पर था. वहां पर भी 350 मीटर सड़क पूरी तरह से बह चुकी थी. नदी के बीच होते हुए रास्ता पार किया. वहां से करीब 12 किलोमीटर आगे सुक्खी टॉप पैदल पहुंचे. सुक्खी टॉप पहुंचने पर वहां चारों तरफ सेब के बागान थे. भूख खूब लग रही थी. बागवालों से हमने सेब मांगे. मांगा एक सेब था, लेकिन दिल देखिए कि पूरा पॉलिथीन भरकर सेब हमें दे दिए. साथ में वह अपनापन- आप इनको खा लो. आप बहुत दूर से पैदल चलकर आए हो. आपको इसकी जरूरत है. ये बातें दिल को छू गईं. 

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धराली का मंजर डराने वाला था...

सुक्खी टॉप से हर्षिल तक रोड ठीक थी. वहां से एक गाड़ी में बैठकर हर्षिल पहुंचे. हर्षिल से मुखबा 4 किलोमीटर दूर था और वहां से धराली गांव करीब डेढ़ किलोमीटर नीचे पैदल रास्ता था. हर्षिल से मुखबा भी एक गाड़ी की छत पर बैठकर गए और वहां से पैदल होते हुए घराली गांव पहुंचे. वहां का नजारा बेहद भयानक था. सब कुछ तबाह हो चुका था. जहां तक नजर जा रही थी, वहां तक बड़े-बड़े बोल्डर फैले थे. मलबा था. कुदरत का यह क्रोध देख मन खौफ से भर गया. धराली बाजार में इक्का दुक्का घर बचे थे. जब उस मलबे के बीच से निकलते हुए गए तो कई जगह पर धंसने लग गए. बड़ी मुश्किल से पत्थरों पर पैर रखकर गांव पहुंचे. कुछ घर तो मलबे में छत तक डूबे हुए थे. कुछ घर पहली मंजिल तक दफन थे.  बेड, ड्रेसिंग टेबल, सोफा... सबकुछ दफन. 35 से 40 फीट मलबा पूरी घाटी को समतल कर चुका था. 

सोमेश्वर मंदिर में सदमे में बैठे थे लोग... 

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धराली गांव के सोमेश्वर मंदिर में पहुंचा तो वहां गांव के बुजुर्ग महिलाएं, बच्चे और पुरुष मौजूद थे. सब आपस में एक दूसरे को सांत्वना और हिम्मत दे रहे थे. सभी ने कुछ ना कुछ खोया था. मंदिर के परिसर में खाना बनाने की तैयारी चल रही थी. घरों में अब कुछ बचा नहीं था. जिनके पास जो कपड़े थे, वही पिछले चार-पांच दिन से पहने हुए थे. करीब डेढ़ सौ लोगों का खाना बन रहा था. किसी की आंखें नम थीं, तो कोई बेसुध होकर चुपचाप था. छोटे बच्चे हालांकि अपने आप में खेल रहे थे. अपने माता-पिता और बुजुर्गों को जरूर देख रहे थे. शायद उनको भी पता था कि बहुत कुछ उनका चला गया है.

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नेपाली युवक का दर्द दिल चीर गया...

यह 8 अगस्त की बात है. धराली गांव में एक नेपाली युवक से बात हुई. वह अपने पिता, जीजा, चाचा समेत 7 लोगों को तलाश रहा था. युवक ने बताया कि जब सैलाब आया था तो पिता ने फोन किया था. कहा था कि मुझे बचा लो, मैं दलदल में फंस गया हूं. उसके चेहरे पर बेबसी थी. बोला-  मैं कुछ ना कर सका. अगले दिन जब मैं दौड़कर यहां पहुंच तो देखा सब कुछ दफन हो चुका है. मैं पिछले 5 दिनों से अपने पिता और अपने परिवार के साथ लोगों को तलाश करने रोज आता हूं. शायद उनका कुछ पता चल जाए. युवक के दर्द ने दिल चीर दिया. बो रहा था-  मां, बहन और अपने रिश्तेदारों को क्या बोलूंगा? 

मौत करीब से देखने वाला बलविंदर   

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जैसे ही मलबे और गांव की तरफ बड़े, तो वहां उस व्यक्ति से मुलाकात हुई जिसकी तस्वीर 5 अगस्त के सैलाब के बाद वायरल हुई थी. उसे मलबे में रेंगता हुआ किनारे तक आया था. नाम था- बलविंदर सिंह. बलविंदर ने मौत को मात दी थी. उसने मौत को बेहद करीब से देखा था. बलविंदर सिंह की आंखें आंसुओं से भरी थीं. आंख के ऊपर बड़ा सा चोट का निशान था. उसने बताया कि जब ऊपर से सैलाब आया तो बिजली के खंभे भी टूटे. एक तार उसकी आंखों के ऊपर लगा. बलविंदर से पूछा कि उसे समय क्या लगा था? उसने बताया कि बस मौत दिख रही थी. बचने की कोई उम्मीद नहीं थी. लेकिन ऊपर वाले ने बचा लिया. मेरे पास जो पहने हुए कपड़े थे वह कीचड़ में सब सन गए थे. मुझे यह कपड़े किसी युवक ने दिए. तब से इन्हीं कपड़ों में मैं घूम रहा हूं. बलविंदर ने कहा कि बहुत करीब से मौत का मंजर देखा. वह सैलाब देखा और शायद मैं जिंदगी भर इस सैलाब को नहीं भूल सकता.ना ही यह त्रासदी कभी भूल पाऊंगा.

कल्प केदार की समाधि

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घराली गांव में महिलाओं से बातचीत की. बुजुर्ग महिलाओं की जुबान पर एक ही बात थी. हे भगवान, यह क्या हो गया. सब कुछ चला गया. हर किसी ने खोया है. मैं उस जगह पर पहुंचा, जहां पर कल्प केदार मंदिर था. सैलाब ने कल्प केदार को अपने में समा लिया था. लोगों ने बताया कि यहां पर मंदिर था और गंगोत्री के दर्शन करने से पहले कल्प केदार के दर्शन जरूर करते थे. आज कल्प केदार ने समाधि ले ली है. 

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सेना को सलाम

इसके बाद हम हर्षिल पहुंचे. भारतीय सेना का कैंप पहाड़ से आए सैलाब में बह गया था. चारों तरफ मलबा था. वहां भी आर्मी के जवान लापता थे. उन्हें तलाशने का काम चल रहा था. हर्षिल के पास एक बड़ी झील बनी हुई थी. आर्मी कैंप में बहे जवानों की तलाशी का काम चल रहा था. लगातार सर्च ऑपरेशन जारी था. इंडियन आर्मी के जवानों ने ही धराली गांव में आई आपदा में लोगों को बचाने का काम किया. वे दो मोर्चों पर डटे थे. कैंप खुद आपदा की चपेट में था. अपने लोगों की भी तलाश करनी थी और आम लोगों को भी बचाना था. सरहद पर भी सुरक्षा करनी थी. जवानों की जज्बे को सलाम किया. धराली और हर्षिल में आई त्रासदी में इंडियन आर्मी, एसडीआरएफ ,उत्तराखंड पुलिस, NDRF, ITBP, इंडियन एयर फोर्स लगातार रेस्क्यू ऑपरेशन में जुटी थी. स्थानीय लोग और अन्य विभाग के लोग भी हर तरह से राहत पहुंचाने में लगे थे. 8 अगस्त को धराली ,हर्षिल और उसके आसपास क्षेत्रों में आई प्राकृतिक आपदा ने बहुत नुकसान किया. बेहद करीब से यह विनाशलीला देखी. मन में बस एक ही बात है- प्रकृति की ताकत के आगे इंसान एक तिनके की तरह है.