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This Article is From Apr 21, 2017

पर्यावरण के अनुकूल हैं गरीबों के लिए चलने वाले परिवहन के साधन...

Dr Sanjay Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 21, 2017 16:28 pm IST
    • Published On अप्रैल 21, 2017 16:08 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 21, 2017 16:28 pm IST
वक्त के साथ-साथ लोगों के यातायात के साधन में बदलाव आता गया. भारत में जनसंख्या के लगातार बढ़ने से भी यात्रा के माध्यम बदलते जा रहे हैं. लोग जैसे-जैसे समृद्ध होते जाते हैं, उनके यातायात के साधन बदलते जाते हैं. जिस प्रकार मानव का विकास हो रहा है, यातायात के माध्यमों में भी विकास देखने को मिला है. इससे ज्ञात होता है कि मनुष्य यातायात के माध्यम पर कितना निर्भर है. जैसे-जैसे हमारे देश में शहरीकरण बढ़ता जा रहा है, वाहनों पर निर्भरता भी बढ़ती जा रही है. बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण एवं बिगड़ते पर्यावरण से यातायात के साधनों का सामंजस्य बिठाना देश के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रहा है, क्योंकि जीवाश्म ईंधन से चलने वाले मोटर वाहन शहरों के पर्यावरण मानकों के गिरने में बड़ी भूमिका निभाते हैं.

हाल के वर्षों में, वायु प्रदूषण ने भी 'नए आयाम' हासिल किए हैं और अधिकांश भारतीय शहरों में हवा की गुणवत्ता वातावरण में वायु प्रदूषण स्तरों के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) दिशानिर्देशों को पूरा करने में विफल रही है. पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तर (2.5 माइक्रोमीटर और 10 माइक्रोमीटर से कम व्यास वाले कण) तथा साथ ही सल्फर डाईऑक्साइड (एसओ2) और नाइट्रोजन डाईऑक्साइड (एनओ2) जैसे खतरनाक कार्सिनोजेनिक पदार्थों की एकाग्रता खतरनाक अनुपात तक पहुंच गई है अधिकांश भारतीय शहरों में, लोगों को श्वसन रोगों और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं के अतिरिक्त जोखिम में डालते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में दिल्ली सबसे ऊपर है.

दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 13 भारत में हैं. भारत उन देशों के समूह में है, जिनके पास सबसे अधिक कणिक पदार्थ (पीएम) स्तर हैं. 150 से अधिक माइक्रोग्राम के स्तर पर, दिल्ली में सबसे अधिक हानिकारक माना जाने वाला वायु प्रदूषित पदार्थ पीएम 2.5 का उच्चतम स्तर है. ये आंकड़े 25 माइक्रोग्राम की डब्ल्यूएचओ 'सुरक्षित' सीमा से छह गुना अधिक है. अनियंत्रित वाहनों का ट्रैफिक प्राथमिक कारण लगता है. वाहन उत्सर्जन में दहन प्रक्रिया के उप-उत्पादों में एचसी, एनओ2, सीओ, सीओ2 शामिल हैं. ये प्रमुख ग्रीनहाउस गैसें हैं, जो ग्रीनहाउस प्रभाव को जन्म देते हैं एवं इसकी विशालता है. सरकारी एजेंसियां निजी वाहनों की बढ़ोतरी पर रोक नहीं लगा पा रही हैं, परन्तु सार्वजनिक परिवाहन को विनियमित करने में सफल हो सकती है. सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करना पर्यावरण के लिए भी उचित होगा एवं सार्वजनिक परिवहन की पहुंच से दूर इलाकों में बसे गरीब यात्रियों, जिन्हें अंतिम मील के यात्री कहा जाता है, के लिए यातायात का टिकाऊ उपाय भी होगा.

दूरदराज के इलाकों में बसे लोगों के यातायात के लिए शहरों में साइकिल रिक्शा का उपयोग होता है. रिक्शाचालकों के साथ कार्य कर रहे संस्थान FoRPA (फेडरेशन ऑफ रिक्शा पुलर्स एसोसिएशन या Federation of Rickshaw Pullers' Association) के मुताबिक लगभग छह लाख रिक्शा दिल्ली में चल रहे है एवं समूचे देश में लगभग डेढ़ से दो करोड़ रिक्शा चलते हैं. प्रत्येक रिक्शा लगभग 40 किलोमीटर की दूरी प्रतिदिन तय करता है और लगभग दो टन कार्बन उत्सर्जन प्रतिवर्ष बचाता है.

साइकिल रिक्शा पर्यावरण के लिए एवं अंतिम मील के यातायात के लिए सबसे उपयुक्त है, परन्तु रिक्शाचालकों की परिस्थति बहुत दुखदायी होती है. लगभग सभी रिक्शाचालक अनपढ़ होते हैं एवं शिक्षा, कौशल एवं पूंजी के अभाव में रिक्शा चलाने को मजबूर होते हैं. यदि इनके कार्य को देखा जाए, तो यह अपनी कड़ी मेहनत से पर्यावरण को बचाने में मददगार साबित होते हैं, परन्तु इन्हें उसका कोई लाभ नहीं मिलता. किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा के अभाव में यह समाज की सबसे कमजोर श्रेणी में आते हैं. FoRPA के रिपोर्ट के मुताबिक 45-50 वर्ष की उम्र के बाद रिक्शाचालक दमा एवं क्षय रोग अथवा इनमें से किसी एक बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं.

पिछले कुछ वर्षों में बैटरी रिक्शा का चलन बढ़ा है, जो अंतिम मील को यातायात से जोड़ने में कारगर साबित हो रहा है. साइकिल रिक्शा एवं बैटरी रिक्शा संकरी गलियों में जाने में सक्षम होते हैं, इसलिए गरीब एवं मध्यवर्ग के लोग दोनों का भरपूर इस्तेमाल करते हैं. यातायात के ये दोनों माध्यम प्रदूषणरहित हैं, परन्तु इन दोनों साधनों में नीतिगत सुधार की अत्यंत आवश्यकता है.

रिक्शाचालकों को सामाजिक सुरक्षा से जोड़ना अत्यंत आवश्यक है. उनके श्रम एवं कार्य की पहचान होनी चाहिए. उनकी मज़बूरी उनकी तबाही का कारण नहीं बननी चाहिए. रिक्शाचालकों के लिए सस्ती दर पर क़र्ज़ एवं सब्सिडी की भी व्यवस्था की जा सकती है, ताकि वे बैटरी रिक्शा खरीद सेहतमंद तरीके से जीविकोपार्जन कर सकें. जहां एक रिक्शा 10,000 रुपये में मिलता है, वहीं बैटरी रिक्शा एक से सवा लाख में मिलता है. दिल्ली जैसे शहर में रिक्शाचालक औसतन 250 से 300 रुपये प्रतिदिन कमा पाते हैं, परन्तु बैटरी रिक्शा से बिना स्वास्थ्य हानि के तीन से चार गुना कमाई बढ़ सकती है. जिस दर से बैटरी रिक्शा की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है, उनके संचालन को सुनियोजित करने की ज़रूरत है. उनके लिए रिक्शा पड़ाव की उचित व्यवस्था होनी चाहिए. दिल्ली एवं अन्य बड़े शहरों में चालकों के लिए ट्रैफिक के नियमों के प्रशिक्षण की व्यवस्था स्किल इंडिया के तहत की जानी चाहिए. साथ ही बैटरी रिक्शा को सतत चलायमान बनाए रखने के लिए विभिन्न जगहों पर चार्जिंग स्टेशन बनाने की आवश्यकता है. जापान में पेट्रोल स्टेशन से ज़्यादा बैटरी चार्जिंग स्टेशन है. इस कार्य से स्वरोजगार भी पैदा हो सकता है.

अंतिम मील के यातायात के लिए सर्वाधिक लोकप्रिय परिवहन को सरकार द्वारा विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है. पर्यावरण को सुदृढ़ बनाए रखने में आम व्यक्तियों द्वारा उपयोग में लाए जाने वाला परिवहन हमेशा से कारगर रहा है और यही 'टिकाऊ' भी है. इसे रोज़गार बढ़ाने वाला क्षेत्र, अंतिम मील के लिए टिकाऊ यातायात का माध्यम एवं पर्यावरण के रक्षक के रूप में देखते हुए एक व्यापक योजना के रूप में अंजाम देने की अत्यंत आवश्यकता है.

डॉ संजय कुमार हार्वर्ड विश्वविद्यालय साउथ एशिया इंस्टीट्यूट के इंडिया कंट्री डायरेक्टर हैं...

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