नौ बैंक यूनियनों के महासंघ की हड़ताल में 10 लाख बैंक कर्मचारियों के शामिल होने का दावा किया गया है. 30 और 31 मई को हड़ताल रहेगी. इनका कहना है कि इंडियन बैंकिंग एसोसिएशन जानबूझ कर यूनियनों की मांग पर फैसला करने में देरी कर रहा है. सरकार भी बैंकरों की सैलरी बढ़ाने को लेकर गंभीर नहीं है. हाल ही में आईबीएफ के साथ यूनियन की बातचीत हुई थी, जिसमें 2 प्रतिशत सैलरी बढ़ाने का प्रस्ताव किया गया था, जिसे बैंकरों ने मंज़ूर नहीं किया. इनका कहना है कि इतना काम करने के बाद अगर 500, 1000 की सैलरी बढ़ाने का प्रस्ताव उनके साथ मज़ाक है. पांच साल से उनकी सैलरी नहीं बढ़ी है. इस बात को लेकर बैंकर कई दिनों से प्रयास कर रहे हैं.
दिल्ली में भी स्टेट बैंक मुख्यालय के सामने अपनी मांग को लेकर बैंकर जमा हुए हैं. बैंकर का कहना है कि बैंकों का घाटा उनकी गलती के कारण नहीं बढ़ा है. बड़े उद्योगपतियों ने हज़ारों करोड़ का लोन लिया उसे आम बैंकर नहीं देने गया था. उन्होंने अपना काम ईमानदारी से किया है. इसके अलावा अब बैंकर अपने मूल काम के साथ सरकार की तमाम योजनाएं भी लागू कर रहे हैं. हर दिन योजनाओं को पूरा करने का टारगेट दिया जाता है. बीमा बेचने का टारगेट इनकी ज़िंदगी के लिए मुसीबत बन चुका है. इसे हम क्रॉस सेलिंग कहते हैं.
बैंक सीरीज़ के दौरान अनेक बैंकरों ने पत्र लिखकर बताया कि उनका मूल काम बदला जा रहा है. जब तक निश्चित संख्या में बीमा नहीं बेचते हैं तब तक घर नहीं जाने दिया जाता है और शनिवार रविवार को भी काम करना पड़ता है. 2016 में जब इन बैंकरों पर नोटबंदी का फैसला थोपा गया तो उस चुनौती को स्वीकार किया और दिन रात लगाकर काम किया. आप जानते हैं कि इस दौरान बैंकों में करोड़ों के नोट आ गए, जिससे गिनने में गलती हुई. सड़े गले नोट आ गए और नकली नोट भी चले आए. इसकी भरपाई 20,000 सैलरी पाने वाले कैशियरों ने 5000 से लेकर 2-2 लाख तक अपनी जेब से की है. कई कैशियरों ने हमें लिखा है कि उन्हें अपनी जेब से 20000 देना पड़ा तो किसी को 48000 देना पड़ा. ज़ाहिर है जहां आप दिन के 60-70 लाख नोट गिनते हों, वहां आप 5 करोड़ 10 करोड़ गिनने लगें तो चूक होगी.
कई बैंकों में नोट गिनने की मशीन तक नहीं थी उस वक्त. हमारे पास पूरी जानकारी नहीं है कि सारे कैशियरों ने मिलकर नोटबंदी के समय कितना पैसा अपनी जेब से जुर्माना के तौर पर दिया है. ये सब कहानी बैंकर छिपा गए, क्योंकि इन्हें लगा था कि इनके त्याग से सरकार खुश होगी और सैलरी बढ़ा देगी क्योंकि इनकी सैलरी काफी होती जा रही है. ऐसा ये दावा करते हैं.
बैंक सीरीज़ के दौरान हमें कई महिला बैंकरों ने लिखा था कि उनकी शाखा में महिला शौचालय तक नहीं है. कई जगहों में तो स्त्री पुरुष दोनों के लिए एक ही शौचालय है. महिला बैंकरों का कहना है कि सिर्फ छह महीने का मातृत्व अवकाश मिलता है, जबकि केंद सरकार की नौकरियों में दो साल का चाइल्ड केयर लीव मिलता है. अगर वे बिना सैलरी के छुट्टी लेती हैं तो वो छुट्टी भी आसानी से नहीं मिलती हैं. उसकी प्रक्रिया काफी जटिल है. दिल्ली में सुशील महापात्रा ने इन सवालों पर कई महिला बैंकरों से लंबी बात की है.
क्या यही बैंकर बैंकों की स्थिति के लिए ज़िम्मेदार हैं. 2012 में जो सैलरी बढ़नी थी वो 2015 के अंत में बढ़ी. 2017 में जिसे बढ़नी चाहिए थी वो अभी तक नहीं बढ़ी है. इस दौरान बैंकरों का धीरज जवाब दे रहा है क्योंकि उनका ख़र्च नहीं चल रहा है. इसका एक ही उपाय है, हर बैंक में गोदी मीडिया का हिन्दू मुस्लिम सिलेबस और प्रोपेगैंडा रोज सुबह एक घंटा दिखाया जाए. मेरा विश्वास है कि ये लोग फ्री में काम करने लगेंगे. वैसे प्राइम टाइम पर कई हफ्ते सीरीज़ चलाने से भी बैंकरों को कोई लाभ नहीं हुआ. हमने पता किया कि पांच साल नौकरी कर चुके क्लर्क और मैनेजर को हाथ में कितना मिलता है, ताकि आप एक दर्शक के तौर पर जान सकें कि जिस बैंक की नौकरी को अच्छी नौकरी समझा जाता था, आज उसकी हालत क्यों हुई है. पांच साल अनुभव वाले क्लर्क को करीब 27000 मिलता है. वहीं, पांच साल अनुभव वाले अफसर को 32-34000 मिलता है.
क्या यह कम नहीं है जबकि वे काम कितना करते हैं. सारे सरकारी बैंक ऐतिहासिक घाटे से गुज़र रहे हैं. उनकी हालत लगातार बिगड़ रही है. इसके अलग अलग कारण हैं मगर सबका प्रभाव यही है कि 2017-19 में बैंकों का घाटा अब कई हजार करोड़ का होने लगा है. हम कुछ बैंकों का घाटा बताने जा रहे हैं. पंजाब नेशनल बैंक का घाटा- 12, 282 करोड़, आईडीबीआई का घाटा 8,237 करोड़, एसबीआई का घाटा 6547 करोड़, बैंक ऑफ इंडिया का 6043 करोड़, ओरियंटल बैंक ऑफ कार्मस का घाटा 5871 करोड़, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया का घाटा 5247 करोड़ है.
एक सवाल खुद से कीजिए क्या हर बैंक में इतने निठल्ले और नकारे बैंकर बैठे हैं कि उन्हीं की वजह से करीब 80,000 करोड़ तक का घाटा हो गया या कोई और जिम्मेदार होगा इसके लिए. जैसे कि सरकार, प्रबंधन, उद्योगपति. आज के बिजनेस स्टैंडर्ड में एक रिपोर्ट है कि जो लघु वित्त बैंक का एनपीए भी 5-6 प्रतिशत हो गया है, जो नोटबंदी के पहले के साल में 1 प्रतिशत था. एनपीए मतलब लोन लिया मगर चुका नहीं पाए. बिजनेस स्टैंडर्ड ने ही छापा है कि 2017-18 की चौथी तिमाही में 37 बैंकों के एनपीए में 1 लाख 40 हज़ार करोड़ और जुड़ गए हैं. क्या इसके लिए भी आम बैंकर ज़िम्मेदार है. धारणा बनाने के पहले तथ्यों को ठीक से देख लेना चाहिए. इसलिए बैंकरों ने अपनी मांग पत्र में इस बात को शामिल किया है कि अक्सर स्टाफ को देर तक काम करने के लिए बाध्य किया जाता है, उसका समय दर्ज हो. मौखिक आदेश से काम बंद हो, काम के समय में बदलाव का आदेश लिखित आए. किसी भी स्टाफ को लगातार सात दिन से ज़्यादा काम करने के लिए बाध्य न किया जाए. आठ घंटे से ज्यादा वे काम न करें, सप्ताह में 40 घंटे ही काम करने को कहा जाए. सभी शनिवार को छुट्टी है जो अब शायद ही कभी मिलती है.
ज़ाहिर है बैंकरों को इससे ज्यादा करना पड़ता है. तभी उनकी मांगपत्र में इन बातों का ज़िक्र आया है. एक मांग यह भी है कि धमकाने और दबाव डालने के लिए तबादले का इस्तमाल बंद कर दिया जाना चाहिए. मांग पत्र को देखने से लगता है कि बैंकर सैलरी तो चाहते हैं मगर काम करने के हालात में भी भयंकर गिरावट आई है. इसमें पेंशन की भी मांग है जिसके बारे में अब कोई बात नहीं करना चाहता. विधायक सांसद खुद पेंशन लेते हैं मगर दूसरों को पेशन न मिले इसके लिए नीतियां बनाते हैं.
आप इस वक्त स्क्रीन पर ग्रामीण डाक सेवकों के अलग-अलग जगहों से भेजी गई तस्वीरें देख रहे, पिछले 17 दिनों से भारत भर के ग्रामीण डाक सेवक हड़ताल पर हैं. ये तस्वीरें ग्रामीण डाक सेवकों की हैं, जो हैरान हैं कि पौने दो लाख डाक सेवक होने के बाद भी उनकी हड़ताल को कवरेज नहीं मिल रहा है. जब दस लाख बैंकर पर कोई चर्चा नहीं है तो पौने दो लाख वाले को भी समझना चाहिए कि मीडिया के लोकतंत्र में असली लोग नहीं आते हैं. इन डाक सेवकों को भी पूछना चाहिए कि हड़ताल से पहले अखबारों और चैनलों में क्या देख रहे थे, क्या पढ़ रहे थे, क्या उन्होंने अपवाद छोड़कर आम लोगों की आवाज़ देखी है, जब नहीं देखी तो उनकी आवाज़ कैसे नज़र आएगी.
ग्रामीण डाकसेवकों ने सब करके देख लिया. सब्ज़ी बेच ली, कपड़े उतार लिए, तरह तरह की भंगिमाएं आईं मगर उनका दिल टूट गया. उन्हें लगा था कि देश की बाकी समस्याओं की तरह उनके हालात पर भी डिबेट होगा. ये फरीदाबाद के डाकघर की तस्वीर है. हड़ताल के कारण चिट्ठियां पड़ी हैं. लोगों के कितने ज़रूरी कागज़ नहीं पहुंच रहे होंगे. मगर ग्रामीण डाक सेवकों की सुन तो लीजिए ताकि उन्हें ये न लगे कि कोई सुनने वाहसाब से सैलरी देनी चाहिए. 35 साल की नौकरी करते हुए ये डाकसेवक पैकर मात्र 7-8000 सैलरी पाते हैं. अगर ऐसा है तो क्या यह दुखद नहीं है. 35 साल की नौकरी के बाद 7000 ला नहीं है. इनका कहना है कि चार साल पांच साल काम करने के बाद हाथ में छह हज़ार मिलता है, इससे इनका गुज़ारा नहीं चल रहा है. सरकार को इन्हें भी सातवें वेतन आयोग की सैलरी देनी चाहिए. इन्हें पेंशन तक नहीं मिलती है.
मोदी सरकार के समय ही कमलेश चंदा कमेटी बनी थी, उसने भी सैलरी बढ़ाने की बात कही थी, मगर नहीं बढ़ाई जा रही है. लिहाज़ा देश के अलग-अलग जगहों पर ग्रामीण डाक सेवक हड़ताल पर हैं. मेरी तो समझ से बाहर है कि वे 5000 की सैलरी पर कैसे गुज़ारा करते होंगे. शायद यही वो भारत है जो 99 प्रतिशत आता है जिसके पास कुछ नहीं है. 1 प्रतिशत भारतीयों के पास इतनी संपत्ति है जितनी 70 प्रतिशत भारतीयों की संपत्ति के पास है.
ऐसा नहीं है कि जनता संघर्ष नहीं करती है, कर रही है मगर हो क्या रहा है. कोई नतीजा निकल रहा है, शायद नहीं. ग्रामीण डाक सेवकों के कई सारे वीडियो आए हैं. इन वीडियो में एक ट्रेंड देख रहा हूं. सूरत के कपड़ा व्यापारी भी जब आंदोलन कर रहे थे तब उनका एक वीडियो आया था. उस वीडियो में वे गीत गा रहे हैं, अनुनय विनय कर रहे हैं जैसे कोई अपनी प्रेमिका से करता हो, उन गानों में आक्रोश नहीं है, ज़िंदाबाद मुर्दाबाद नहीं है, उसी तरह का एक वीडियो मिला है, आप देखिए और समझिए कि ग्रामीण डाक सेवक क्या कहना चाहते हैं.
हमने मुज़फ्फपुर के ग्रामीण डाक सेवक से बात की. उन्होंने बताया कि वे ब्रिटश जमाने से गांवों में डाक ले जा रहे हैं. पोस्टल विभाग के तहत काम करते हैं मगर विभाग उन्हें अपना कर्मचारी नहीं मानते हैं. इन लोगों ने अपनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट और कैट से जीत ली है मगर अभी तक इन्हें कर्मचारी के रूप में मान्यता नहीं मिली है. जबकि ये गांव-गांव में साइकिल चलाकर चिट्ठियां बांटते हैं. इस बीच 16 दिनों तक लगातार पेट्रोल के दाम बढ़ने के बाद आज कमाल ही हो गया. 1 पैसे सस्ता हो गया, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत साढ़े चार डॉलर कम हो चुकी है. 1 पैसे की कमी को कम न समझें. ब्रेक के बाद हम मंदसौर और कैंसर पर एक ज़रूरी रिपोर्ट देखेंगे.
This Article is From May 30, 2018
क्या बैंककर्मियों को उपयुक्त वेतन, भत्ते मिलते हैं?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:मई 30, 2018 23:14 pm IST
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Published On मई 30, 2018 23:14 pm IST
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Last Updated On मई 30, 2018 23:14 pm IST
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