'प्रेमदीप जलावो रे भाई, हृदयमंदिर मां उजियारा थाय'
संत नरसी मेहता की इस पंक्ति को दीपोत्सव के पर्व का मर्म कहना गलत नहीं होगा. भारत की आत्मा उसकी विविधता में है. विभिन्न संस्कृतियों, नस्लों, धर्मों की विविधिता और बहुभाषिकता ही भारत की आत्मा का सौन्दर्य है. इसी कारण भारत एक उत्सवधर्मी देश है. कृषि-प्रधान देश होने के कारण यहां हर मौसम, हर फसल से जुड़े त्योहारों की एक लंबी परंपरा है. विभिन्न संस्कृतियों की विविधता अक्सर एक ही त्योहार को बहुरंगी बना देती है. मसलन हम दीपावली के त्योहार को ही लें. दीपावली का त्योहार देश के हर भाग में अलग-अलग ढंग से बनाया जाता है. इसे मनाने के पीछे की मिथकीय कथाओं में भी भिन्नता है. लेकिन सभी कथाओं के मूल में तम को आलोक से जीतने की स्मृतियां हैं. बुराई पर अच्छाई के विजय की कथा है. दरअसल मनुष्य-जीवन का सार ही बाहर और भीतर के अंधकार को जीत कर स्वयं को आलोकित करने की कथा है, क्योंकि इस पूरी सृष्टि का जन्म और हम मनुष्यों का भी जन्म उसी एक 'परम प्रकाश' से हुआ है, तभी नानकदेव जी कहते हैं, 'एक नूर ते सब जग उपजा ....' . और यह नूर 'परमात्मा के प्रेम' का नूर है. चूंकि हम उसी एक 'प्रेम के परम प्रकाश' से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए हमारी जीवन-यात्रा भी उसी 'प्रेम का परम प्रकाश' हो जाने की यात्रा है. सभी संतों और सिद्धात्माओं ने अलग-अलग अभिव्यक्तियों में यही बात कही है. कबीर ने प्रकाश के इस मानव-कथा को कुछ इस तरह व्यक्त किया है-
प्रेम रंग जिन पर चढ़े, उनके रंग अनंत..
सदा दिवाली संत की, आठों पहर आनंद.
अकलमता कोए उपजा, गिने इंद्र को रंक..
दीपावली से जुड़ी लगभग सभी कथाओं का भी मर्म यही है कि यह जो 'प्रकाश' है, वह 'प्रेम' और 'ज्ञान' का प्रकाश है, जो मनुष्य के भीतर व्यापे अज्ञान, तमस, ( अहंकार से उपजे इर्ष्या- द्वेष, क्रोध, भय आदि अवगुणों) को मिटा कर उसे निर्बैरी, निर्भयी और प्रेमीजन बनाता है. भारत के हर क्षेत्र, उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक में दीपावली अलग-अलग कथाओं, देवी-देवताओं और लोकाचारों से जुड़ी है. यह विविधता भारतीय संस्कृति की 'एकता में अनेकता' के दर्शन को उजागर करती है. ...तो यह लेख इस दीपावली भारत के सभी क्षेत्रों की दीपावली का आनंद लेने का एक मधुर निमंत्रण है.

कार्तिक मास की अमावस्या को दिवाली का पर्व देश भर में अलग अलग रूप में मनाया जाता है.
उत्तर भारत: सीता और राम के 'परम-प्रेम के प्रकाश' की कथा
उत्तर भारत में दीपावली का पर्व भगवान राम की अयोध्या वापसी के उपलक्ष्य में मनाया जाता है. रामायण की कथा के अनुसार भगवान राम 14 साल के वनवास और रावण-वध के बाद जब सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे तो अयोध्यावासियों ने हर्ष के अतिरेक में कार्तिक अमावस्या की उस रात को जगमग दीपों से पूर्ण प्रकाश की रात बना दिया. तभी से उस दिन हर वर्ष दीपोत्सव का यह त्योहार मनाया जाने लगा. और इस तरह इस त्योहार का नाम दीपावली पड़ गया. इस क्षेत्र में दीपावली 'धर्म की विजय' और 'सत्य के पुनर्स्थापन' का प्रतीक है. दार्शनिक दृष्टि से यह पर्व भीतर के रावण (अहंकार, क्रोध, असत्य) का अंत कर अपने भीतर की परम संभावना (आत्मा) को पूर्ण प्रकाशित करने का भी प्रतीक है. उत्तर भारत के लगभग सभी राज्यों में इस दिन घरों को दीपों से सजाया जाता है और लक्ष्मी-गणेश की पूजा की जाती है.
कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दीपावली मनाए जाने का अपना एक प्रतीकात्मक अर्थ भी है. अमावस्या की रात पूर्ण अंधकार की रात होती है. उस दिन दीपक के द्वारा हम अंधेरे को दूर करते हैं. अर्थात् बाहर चाहे अंधेरा जितना भी घना हो, हम मनुष्य अपने प्रयासों से और अपने भीतर के आलोक से उस अंधेरे को दूर कर सकते हैं. मनुष्य के परम-प्रकाश होने की संभावना पर विश्वास करके ही भगवान बुद्ध ने 'अप्पो दीपो भव' कहा होगा. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दीपावली सीता और राम के एकांतिक प्रेम और समर्पण की कथा से भी आकर जुड़ती है कि त्रिभुवन को अपने वश में रखने वाला रावण जैसा महाशक्तिशाली भी सच्चे प्रेम को डिगा नहीं सका. कहना गलत नहीं होगा कि उत्तर भारत में दीपावली सीता-राम के 'प्रेम के प्रकाश' का भी उत्सव है.
पूर्वी भारत: माँ काली की आराधना
पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम आदि राज्यों में दीपावली के दिन काली पूजा की जाती है. यहां इस पर्व को काली- पूजा के नाम से जाना जाता है. इस क्षेत्र में दीपावली से जुड़ी मिथकीय कथा यह है कि जब पृथ्वी पर राक्षसों का अत्याचार बहुत अधिक बढ़ गया था, तब उनका संहार करने के लिए मां काली प्रकट हुईं. इन संस्कृतियों में दीपावली का पर्व 'शक्ति के जागरण', अज्ञान के अंधकार और भय अर्थात् आंतरिक असुरत्व के अंत का प्रतीक है. इस क्षेत्र में दीपपर्व के अवसर पर रात भर दीपों की रोशनी, तांत्रिक साधनाओं और भक्ति संगीत के साथ मां काली की पूजा होती है. असम राज्य में विशेष तौर से केले के कंद और पत्तों से सजावट की जाती है. कह सकते हैं कि यहां दीप 'आत्मशक्ति के प्रकाश' का प्रतीक है.

दिवाली पर अंधकार को मिटाने के लिए दीये रोशन किए जाते हैं.
दक्षिण भारत: भगवान कृष्ण, नरकासुर-वध
दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में दीपावली को नरक चतुर्दशी कहा जाता है. इस क्षेत्र में दीपोत्सव मनाने की कथा यह है कि जब पृथ्वी पर असुर नरकासुर का अत्याचार बहुत बढ़ गया, तब भगवान कृष्ण ने उसका वध कर 16,000 बंदिनी स्त्रियों को मुक्त किया. यहां दीपावली की कथा 'स़्त्री-मुक्ति' के संदर्भ से भी आकर जुड़ जाती है. दीपावली की सुबह इस सांस्कृतिक क्षेत्र के लोग सुबह जल्दी उठकर शरीर पर खूब सारा तिल का तेल लगाते हैं, जिसे 'तेल-स्नान' भी कहा जाता है. उसके बाद जल-स्नान कर नए वस्त्र धारण करते हैं. दीप जलाते हैं और आतिशबाजी करते हैं. यहां लोग दिन में ही दीपावली मनाते हैं. कह सकते हैं कि इस क्षेत्र के लोगों के लिए दीपावली 'स्त्री-मुक्ति' और 'आत्मशुद्धि' का पर्व है.
पश्चिम भारत: लक्ष्मी पूजन और व्यापार वर्षारंभ
गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान राज्यों में दीपावली को धन की देवी लक्ष्मी के स्वागत का पर्व माना जाता है. एक कथा के अनुसार कार्तिक मास की अमावस्या को ही समुद्र मंथन से लक्ष्मी जी प्रकट हुई थीं. गुजरात में दीपावली के दिन ही नया वित्तीय वर्ष आरंभ होता है. इस अवसर पर व्यापारी लोग अपने बही-खाते (लेजर) की पूजा करते हैं. महाराष्ट्र में इस पर्व को बलिप्रतिपदा के रूप में मनाया जाता है. बलिप्रतिपदा का संबंध राजा बलि और भगवान विष्णु (वामन अवतार) की कथा से है. इस क्षेत्र में दीपावली समृद्धि, ईमानदारी और धर्मयुक्त व्यापार की भावना से जुड़ा पर्व है.
मध्य भारत: 'पूर्वजों की आत्मा के प्रकाश' का पर्व
छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश में दीपावली की कथाएं लोककथाओं और ग्राम-देवताओं से आकर जुड़ती हैं. कई जनजातीय समुदाय इसे फसल कटाई के बाद के उल्लास और पूर्वजों के स्मरण का दिन मानते हैं. जनजातीय संस्कृतियों में दीप प्रज्जवलित करना पूर्वजों की आत्माओं को प्रकाश दिखाने का प्रतीक है. आदिवासी समुदाय दीपावली को सामूहिक नृत्य और गीत के रंगों से सजाते हैं. कई समुदायों में उस दिन सामूहिक भोज का भी आयोजन किया जाता है. कहा जा सकता है कि इन जनजातीय सांस्कृतियों में दीपावली मनुष्य और प्रकृति के सह-अस्तित्व का उत्सव है.

दिवाली पर लोग अपने घर और आसपास साफ-सफाई और साज-सज्जा पर विशेष ध्यान देते हैं.
उत्तर-पूर्व भारत: वैष्णव भक्ति और गोवर्धन पूजा का पर्व
मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय में दीपावली का संबंध गोवर्धन पूजा और कृष्ण लीला से है. यहां दीपावली को भगवान कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत को उठाकर इंद्र के अहंकार का नाश के दिवस के रूप में मनाया जाता है. कई स्थानों पर गोवर्धन पर्वत की प्रतिमा बनाकर पूजा की जाती है और दीपों की सजावट की जाती है. वैष्णव भजन गाये जाते हैं और नृत्य किए जाते हैं. इस क्षेत्र में अहंकार से विनम्रता की ओर, दंभ से भक्ति की ओर बढ़ने का प्रतीक है दीपावली.
जैन परंपराः भगवान महावीर निर्वाण-पर्व
जैन धर्म में दीपावली का विशेष महत्व है क्योंकि इसी दिन जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया था. उनके अनुयायियों ने ज्ञान के प्रकाश को चिरस्थायी बनाने के लिए दीप जलाए. जैन धर्म में दीपावली का संदेश है- 'आत्मज्ञान ही परम प्रकाश है.' दीपावली यहां मोक्ष और आत्मशुद्धि का प्रतीक है.
सिख परंपराः 'बंदी छोड़ दिवस'
सिख दीपावली को 'बंदी छोड़ दिवस' के रूप में मनाते हैं. इतिहास के अनुसार जब गुरु हरगोबिंद सिंह जी ग्वालियर किले से 52 राजाओं के साथ मुगल शासक जहांगीर की कैद से रिहा होकर अमृतसर पहुंचे, तब गुरुद्वारे में दीप जलाकर उनकी रिहाई का उत्सव मनाया गया. तब से यह दिवस सिखों के लिए स्वतंत्रता, न्याय और करुणा का प्रतीक बन गया. सिख समुदाय के लोग इस दिन को दीपों की सजावट, कीर्तन और सेवा कार्य करके मनाते हैं.
इस तरह हम देखते हैं कि 'दीपावली का दीप' केवल बाहरी प्रकाश नहीं, बल्कि अंतर्मन के आलोक का प्रतीक है. विभिन्न कथाओं के बावजूद इसके मूल में एक ही संदेश है और वह संदेश- 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का है. इस तरह यह पर्व 'सामूहिक चेतना का उत्सव' और विविध संस्कृतियों को जोड़ने वाला एक 'प्रकाशपुल' बन जाता है.
अस्वीकरण: लेखिका मेधा दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में पढ़ाती हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी हैं और उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.