भारत की बहुरंगी संस्कृति में सर्वाधिक रंग भरने वाला यदि कोई एक त्योहार है, तो वह है- दीपावली. दीपावली देश के लगभग हर हिस्से और संस्कृति में मनाई जाती है. यह केवल एक धार्मिक पर्व भर नहीं है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय दृष्टि से भी इसकी महत्ता है. 'दीपों की पंक्ति' अर्थात् 'दीपावली' शब्द ही अपने भीतर प्रकाश, पवित्रता और आशा का प्रतीक समेटे हुए है. किंतु आधुनिक समय में यह प्रकाश पर्व अनेक पर्यावरणीय संकटों का कारण भी बन गया है. आज जब ध्वनि प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण जैसी समस्याएं मानव -सभ्यता के सामने गंभीर चुनौती के रूप में खड़ी हैं, तब यह आवश्यक हो गया है कि हम अपने पारंपरिक पर्वों पर पर्यावरणीय दृष्टि से पुनर्विचार करें.
पिछले दस दिनों से लगभग छोटे-बड़े सभी शहरों और महानगरों में सड़कों पर गाड़ियों और लोगों की जबर्दस्त भीड़ है. ट्रैफिक जाम के कारण कहीं आना-जाना मुहाल हो गया है. सामान्य दिनों में जिन जगहों पर पहुंचने में घंटा भर लगता है, इन दिनों वहां पहुंचने में तीन घंटे लग रहे हैं. बाजार में न तो तरह-तरह के साज-सज्जा और रंग-बिरंगी रोशनियों से सजी दुकानों की कमी है और न ही उनमें उमड़ पड़ने वाले ग्राहकों की ही कमी है. इन दुकानों में मिलने वाली दीपावली से जुड़ी सामाग्री अक्सर प्लास्टिक और हानिकार रसायन से बनी हैं. ऐसा लगता है जैसे सारी दुनिया एक साथ बाजार में खरीदारी के लिए आ गई हो. दीपावली से पहले के दिनों का यह दृश्य अब बहुत सामान्य हो गया है. आज की पीढ़ी के लिए दीपावली के त्योहार का मतलब बाजार, खरीदारी, उपहार और पार्टी ही है. लेकिन केवल दो-तीन दशक पहले मुड़ कर देखें तो दीपावली का मतलब कुछ और हुआ करता था.
लोक चेतना में दीवाली
उत्तर भारत के अवध में एक प्रसिद्ध लोकगीत है- 'आओ बहिनी दीया जलाई, गोबर से आँगन लीपाई...', इसका अर्थ है कि बहन आओ हम दीपावली के अवसर पर गोबर से आंगन की लिपाई करें और मिट्टी का दीया जलाएं. इस पंक्ति में 'गोबर से लीपना' केवल धार्मिक शुद्धि नहीं, बल्कि स्वाभाविक कीटाणुनाशक प्रक्रिया है. यह गीत परोक्ष तौर पर घर की सफाई-रंगाई और सजावट में रासायनिक पेंट या प्लास्टिक की सजावट नहीं, बल्कि मिट्टी और गोबर जैसी प्राकृतिक चीजों के उपयोग की परंपरा की ओर इशारा कर रहा है. कुछ इसी तरह का एक लोकगीत भोजपुरी में भी है, 'मिट्टी के दीया बरे अंगनवां में, चमके अंधियारी रात...' इस पंक्ति का अर्थ है कि आंगन में मिट्टी का दीया जलने से अंधेरी रात चमक उठी है. यहां 'मिट्टी का दीया' अपने पर्यावरणीय अर्थ में महत्वपूर्ण प्रतीक है कि मिट्टी का दीया जल कर फिर मिट्टी में ही मिल जाता है. इसमें जलने वाला तेल भी प्राकृतिक होता है. दीया जलाने के लिए बिजली की ऊर्जा की जरूरत नहीं पड़ती है. लोक कथाओं से भी दीपावली मनाने के पारंपरिक तौर-तरीकों के बारे में पता चलता है और ये पुराने तौर-तरीके प्रकृति, पर्यावरण और पृथ्वी के सहअस्तित्व पर आधारित थे न कि अंधाधुन बाजारवाद से प्रेरित. अति उपभोग के इस समय में हर पारंपरिक त्योहार केवल विशुद्ध बाजार और उपभोग की संस्कृति का पर्याय बन कर रह गया है और दीवाली इसका सबसे खतरनाक उदाहरण है. लोक साहित्य में इस बात के साक्ष्य हैं कि पारंपरिक दीवाली तो हरित दीवाली ही हुआ करती थी. यह तो अंधाधुन बाजारवाद और अति उपभोग की संस्कृति ने दीपावली को पर्यावरण और पृथ्वी के नुकसान का पर्याय बना दिया है. इसीलिए हमें अलग से हरित- दीपावली की अवधारणा की जरूरत हो रही है.

दिवाली के अवसर पर फोड़े जाने वाले पटाखे ध्वनी और वायु प्रदूषण के सबसे बड़े स्रोत हैं.
आधुनिक दीवाली और पर्यावरणीय संकट
इस बार सुप्रीम कोर्ट ने दीपावली पर हरित पटाखे के प्रयोग की अनुमति दी है. रोशनी से जगमगाते शहर और पटाखों से भरे आसमान वाली दीपावली पर्यावरण को किस कदर नुकसान पहुंचा रही है- दीपावली के बाद सांसों की भयानक तकलीफ के बावजूद लोग त्योहार के उत्साह में इसका अंदाजा नहीं लगा पाते हैं. पटाखों के प्रयोग से वायु में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, सीसा, पारा और अन्य विषैले धात्विक तत्वों की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है. पटाखे फोड़ने के कुछ घंटों के भीतर वायु गुणवत्ता सूचकांक 'गंभीर' स्तर तक पहुंच जाता है. दिल्ली, कानपुर, पटना, लखनऊ जैसे शहरों में यह स्थिति हर वर्ष देखने को मिल रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वायु में PM 2.5 कणों का स्तर यदि 50 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक हो जाए तो वह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, जबकि दीवाली की रात यह स्तर कई शहरों में 400-600 तक पहुंच जाता है. यह प्रदूषण न केवल श्वसन तंत्र के लिए हानिकारक है, बल्कि बच्चों, बुजुर्गों और गर्भवती महिलाओं पर इसका प्रभाव अत्यंत गंभीर होता है. अस्थमा, आंखों में एलर्जी, संक्रमण, हृदय रोग और नींद की समस्याएं दीवाली के बाद सामान्य रूप से बढ़ जाती हैं.
दीवाली पर पटाखों से उत्पन्न शोर 100 से 140 डेसिबल तक पहुंच सकता है, जबकि सुरक्षित सीमा 75 डेसिबल मानी जाती है. यह ध्वनि न केवल मानव स्वास्थ्य पर, बल्कि पक्षियों, पालतू पशुओं और वन्यजीवों पर भी विपरीत प्रभाव डालती है. कई पक्षी दिशा भ्रमित होकर मर जाते हैं, कुत्ते-बिल्लियां भयभीत होकर छिप जाते हैं और पर्यावरणीय तंत्र में अस्थिरता उत्पन्न होती है. पटाखों और रंगीन झालरों में प्रयुक्त धातुएं और प्लास्टिक सामग्री मिट्टी और जल में घुलकर उन्हें प्रदूषित करती हैं. प्लास्टिक की झालरें, रासायनिक रंग और गिफ्ट रैपर्स कई बार नालियों में बहकर नदियों तक पहुंच जाते हैं. इससे जलजीवों का जीवन संकट में पड़ जाता है. मिट्टी के दीयों की जगह प्रयोग होने वाले एकल उपयोग प्लास्टिक के दीये और विद्युत बल्ब भी पर्यावरणीय कचरे का बड़ा स्रोत बन चुके हैं. बिजली की झालरों और रोशनी के अत्यधिक प्रयोग से ऊर्जा की खपत बढ़ जाती है. भारत में दीवाली के समय बिजली की मांग सामान्य से 20-25 फीसदी तक बढ़ जाती है. यह अतिरिक्त ऊर्जा प्रायः कोयले से उत्पन्न होती है, जिससे कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि होती है और जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिलता है.

प्लास्टिक के सजावटी सामान से सजावट करने की जगह हम असली फूल-पत्तियों का इस्तेमाल कर सकते हैं.
हरित दीवाली हो सकता है विकल्प
पर्यावरण की इस खतरनाक स्थिति को देखते हुए यह अति आवश्यक हो गया है कि हम दीवाली के उत्सव को 'हरित दीवाली' के रूप में पुनर्परिभाषित करें. इसका अर्थ यह नहीं है कि उत्सव को त्याग दिया जाए, बल्कि यह है कि उत्सव और पर्यावरण का संतुलन बनाया जाए. थोड़ी सी सूझबूझ और समझदारी से हम दीपावली के पर्व को प्रकृति और पर्यावरण के लिए भी खुशी का अवसर बना सकते हैं. ये छोटे-छोटे कदम इसमें हमारी सहायता कर सकते हैं.
मिट्टी के दीयों का उपयोग: रोशनी की रंगीन बीजली की लड़ियों की जगह मिट्टी के दीयों का उपयोग करें. मिट्टी के दीये स्थानीय कुम्हारों की आजीविका से भी जुडे हैं. ये पर्यावरण के अनुकूल भी हैं. इन्हें पुनः प्रयोग किया जा सकता है और जलने के बाद ये मिट्टी में मिल जाते हैं, जिससे कोई प्रदूषण नहीं होता.
हरित पटाखों का प्रयोग: हमें कोशिश करनी चाहिए कि या तो हम पटाखों का प्रयोग बिल्कुल न करें या फिर हरित पटाखों का प्रयोग करें. यदि बच्चों की खुशी के लिए पटाखे जलाने जरूरी हो जाएं तो केवल भारतीय वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद द्वारा विकसित हरित पटाखों का ही प्रयोग किया जाए. इनमें सल्फर और भारी धातुएं नहीं होतीं. इनसे 30 प्रतिशत तक कम प्रदूषण होता है. कृत्रिम प्लास्टिक सजावट की जगह फूलों, पत्तियों, मिट्टी के बर्तनों, रेशमी कपड़ों और पुनर्चक्रित कागज से घर सजाना चाहिए. इससे न केवल सौंदर्य बढ़ता है, बल्कि स्थानीय कारीगरों को भी प्रोत्साहन मिलता है.
ऊर्जा संरक्षण: ऊर्जा संरक्षण के लिए बिजली की झालरों की जगह कम ऊर्जा खपत करने वाले एलईडी बल्ब या सौर-ऊर्जा आधारित लाइटें इस्तेमाल की जा सकती हैं. कुछ लोग घरों की छत पर सौर पैनल लगाकर दीवाली की रोशनी को पूरी तरह हरित बना रहे हैं. ऐसे उदाहरणों से सब लोगों को प्रेरणा लेनी चाहिए.
कचरा प्रबंधन: दीवाली के बाद बचे गिफ्ट रैपर्स, मिठाइयों के डिब्बे और अन्य पैकेजिंग सामग्री का सही निपटान करना आवश्यक है. जैविक और अजैविक कचरे को अलग-अलग इकट्ठा कर पुनर्चक्रण की आदत डालनी चाहिए.
सामाजिक साझा संस्कृति: दीवाली का वास्तविक अर्थ है- 'प्रकाश बांटना' इसलिए इस अवसर पर हम जरूरतमंदों को (गरीब बच्चों, झुग्गियों, वृद्धाश्रमों और अनाथालयों) को अपना प्यार बांटें. उनके साथ मिठाइयां और दीए साझा करें. इससे अनावश्यक उपभोग घटता है और सामूहिक संतोष बढ़ेगा. तो आइए, इस दीपावली को हम मिलकर पर्यावरणीय चेतना और मानवीय करुणा के प्रसार के पर्व के रूप में मनाएं.
अस्वीकरण: लेखिका मेधा दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में पढ़ाती हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी हैं और उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.