लोकतंत्र खतरे में है - यह सुनने या पढ़ने के बाद आप में से अधिकतर के मन में एक उबासी जैसी भावना पैदा हो जाती होगी. शायद आपमें से अधिकतर इसके बाद कुछ सुनना भी नहीं चाहेंगे. खासकर जब लोकसभा के चुनाव नजदीक हों, तो चंडीगढ़ जैसे छोटे शहर के मेयर के चुनाव पर कौन ध्यान देता है, ऐसा सोचने के लिए आप स्वतंत्र हैं.
आम आदमी पार्टी (आप) के उम्मीदवार कुलदीप कुमार को सही मेयर घोषित करने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने भारतीय चुनावों में अक्सर नजरअंदाज किए जाने वाले ऐसे ही एक चिंताजनक मुद्दे को उजागर कर दिया है.
रिटर्निंग ऑफिसर अनिल मसीह की शर्मनाक हरकतें जिस तरह से कैमरे पर रिकॉर्ड हुईं, उससे चुनावी संस्थानों की अस्मिता और अखंडता पर सवालिया निशान खड़े होते हैं. चंडीगढ़ के मेयर का चुनाव भाजपा के इसी कदाचार का प्रतीक बन चुका है.
अनिल मसीह सत्ता का मोहरा बना हुआ एक व्यक्ति नहीं है. यह सत्ता के लिए एक भूखी पार्टी के चरित्र का परिचायक है. यह मोहरा अपने पीछे के निर्देशक चेहरे के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार है.
तमाम शक्ति और संसाधनों का इस्तेमाल उस व्यक्ति को रोकने के लिए किया गया, जिसे चंडीगढ़ के लोग चुनना चाहते थे. इससे पता चलता है कि कुछ लोग चुनाव जीतने के लिए जनादेश की धज्जियां उड़ाएंगे, कितने भी अनिल मसीह मैदान में उतारने पड़ें, उतारेंगे, संविधान का चीरहरण करेंगे.
सलीके से निष्पक्ष जांच हो तो अनिल मसीह के पीछे का सच भी सामने आ जाएगा कि आखिर क्यों रिटर्निंग ऑफिसर एक भाजपा समर्थक व्यक्ति अनिल मसीह को चुना गया, जबकि ऐसे पदाधिकारी हमेशा तटस्थ होते हैं. चुनाव तटस्थ लोगों द्वारा चलाया जाना चाहिए, यहीं से भाजपा रचित षड्यंत्र का धागा खुलने लगेगा. उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि वे जानते थे कि चुनाव में उनकी हार निश्चित है. इसलिए पहले तो उन्होंने चुनाव टालने की भरसक कोशिश की. इस देरी से उन्हें साजिश रचने का पूरा अवसर मिल गया.
दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का दम भरने वाली पार्टी भाजपा को मेयर चुनाव में कैमरे पर कदाचार करते पूरी दुनिया ने देखा, राजनैतिक शुचिता के मिट्टी में मिल जाने का यह दृश्य अभूतपूर्व नहीं है. याद करें कि भारतवर्ष की लोकतांत्रिक आस्था के क्षय का यह दुर्भाग्यपूर्ण दृश्य बंगारू लक्ष्मण युग की याद दिलाता है. बेशक वह मामला दूसरा था, लेकिन संदर्भ तो सत्ता लोलुपता ही है और यह देश के संविधान में भरोसा रखने वाले लोगों के लिए चिंता का विषय है. यह सोचने वाली बात है कि जहां न कैमरा है, न माइक्रोफोन है वहां भाजपा क्या कर रही होगी? सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए इस मामले में केंद्र सरकार की पोल खोल दी है, लेकिन सब लोकतंत्र बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट क्यों जाएं और जाएं भी तो कितनी बार?
भाजपा पहले से ही राज्यपालों, स्पीकरों, चुनाव आयोग के कायार्लयों का दुरुपयोग कर रही है. वे पहले से ही लोकसभा चुनाव में मजबूती हासिल करने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर (आईटी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) जैसी जांच एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल विपक्ष को कुचलने के लिए कर रहे हैं.
लोकतांत्रिक प्रहरी के तौर पर मीडिया के एक तबके ने इन भ्रष्ट प्रथाओं को "चाणक्य नीति" के रूप में स्थापित करने का कुत्सित प्रयास भी किया है. नतीजतन, ये लोग अब चुनाव का, जनादेश का अपहरण करने पर उतर आए हैं. शुक्र है कि चोरी की उनकी कोशिशें कैमरे में कैद हो गई, जिससे उनका गलत काम सामने आ गया, लेकिन जहां कैमरे नहीं वहां क्या? न जाने ऐसे कितने चुनाव परिणामों को इन्होंने बेईमानी से अपने पक्ष में किया होगा.
वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति पर मुझे दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति याद आ रही है.
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं.
चाणक्य नीति का मकसद लोककल्याण और देशहित होता, तो कितना अच्छा होता, लेकिन व्यक्ति पूजा के इस दौर में जब तमाम अनैतिक कृत्यों को चाणक्य नीति कहकर जायज ठहरा दिया जाता है तो ऐसे में क्या अपेक्षा रखी जाए और किससे रखी जाए. यह देश के आम नागरिक का प्रश्न है विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र से.
जबरिया लोकतंत्र का अपहरण चाणक्य नीति नहीं वरन् अतिशय सत्तालोलुपता का प्रतीक है. अगर अब भी समय रहते नहीं चेते तो वास्तव में संवैधानिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं का कोई मतलब नहीं रह जाएगा और लोकतंत्र खत्म हो जाएगा. शुक्रिया, माननीय उच्चतम न्यायालय!
(लेखक आम आदमी पार्टी के दिल्ली प्रदेश उपाध्यक्ष और तिमारपुर से विधायक हैं)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.