मृत्यु न जाने कब से- बरसों से या दशकों से- दिलीप कुमार के सिरहाने आ-आकर लौटती रही. वे जैसे किसी भीष्म पितामह की तरह अपनी कीर्ति के सूर्य के किसी उत्तरायण में जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे. या ऐसी किसी प्रतीक्षा का भी उनके लिए कोई अर्थ नहीं रह गया था. वह एक बीता हुआ युग थे जिसे उनकी भुरभुरी होती देह अपने साथ लिए चल रही थी. उनके निधन के साथ जैसे एक कौंध की तरह वह पूरा युग हमारी आंखों के सामने चला आया.
हालांकि चालीस के दशक में 'ज्वार भाटा' के साथ दिलीप कुमार अपना फिल्मी सफ़र शुरू कर चुके थे, और 'जुगनू', 'मेला' और 'शहीद' जैसी फिल्म में काम करते हुए ख़ासी शोहरत भी बटोरी, लेकिन यह पचास और साठ के दशक थे जिनमें उनकी चमक को नई दिशाएं मिलीं. राज कपूर और देवानंद के साथ उन्होंने वह तिकड़ी बनाई जिसने इन दो दशकों में सिनेमा के रजत पट पर राज किया और कई यादगार फिल्में दीं. यह वह दौर था जब कुंदनलाल सहगल गुज़र चुके थे और अशोक कुमार अधेड़ हो चले थे. ऐसे में नए दौर में नए नायकों की एक नई फ़सल को सामने आना ही था. ख़ास बात यह थी कि जहां राज कपूर और देवानंद फिल्म निर्माण में भी उतरे, दिलीप कुमार ने मोटे तौर पर ख़ुद को इससे अलग रखा. 'गंगा-जमुना' और 'लीडर' जैसी कुछ गिनी-चुनी फिल्मों को छोड़ दें जिनका उन्होंने निर्माण या लेखन किया तो उनकी मूल छवि अभिनेता की ही रही.
अभिनेता के तौर पर दिलीप कुमार की रेंज बहुत बड़ी रही. वे अपनी भृकुटियों का बहुत सुंदर इस्तेमाल करते रहे- कम अभिनय करते हुए अधिकतम भाव पैदा करने की उनकी क्षमता उन्हें अपने समकालीनों राज कपूर और देवानंद से आगे ले जाती रही. दिलीप कुमार के अभिनय की दूसरी खूबी उनकी आवाज़ थी- एक लरजती हुई आवाज़ जिसके उतार-चढ़ावों पर उनका अद्भुत नियंत्रण था. वे बहुत धीमे से बहुत सख़्ती भरी बात कह सकते थे और बहुत चीख कर भी अपनी बेबसी का इजहार कर सकते थे.
शायद 'देवदास' जैसी फिल्मों में भूमिका अदा करने की वजह से उन्हें ट्रैजेडी किंग कह दिया गया, लेकिन उनके पास ऐसी कई फिल्में भी थीं जिनकी वजह से उन्हें कॉमेडी किंग या डांस किंग भी कहा जा सकता था. फिल्म 'संघर्ष' में 'मेरे पांवों में घुंघरू बंधा दे तो फिर मेरी चाल देख ले, जैसे गीत पर उन सी थिरकन कौन दिखा सकता था? या 'सगीना महतो' के 'साला मैं तो साहब बन गया' का खेल किससे संभव था? 'कोहिनूर', 'राम और श्याम' जैसी फिल्मों में उनके ऐसे अभिनय की छाप देखी जा सकती है. बेशक, 'मुगले आज़म' अपनी भव्यता और कामयाबी में वह फिल्म थी जो दिलीप कुमार के संदर्भ में सबसे पहले याद आती है. 'नया दौर' का तांगे वाला जिस ठसक से अकबर जैसे शहंशाह का गुस्ताख़ और बागी वारिस बनता है- वह देखने लायक था. पृथ्वीराज कपूर की जलती हुई आंखों और पत्थर सी कड़कती आवाज़ को दिलीप कुमार अपनी भावुक आंखों और उतार-चढ़ाव से भरी आवाज़ के साथ टक्कर देते रहे. अपनी हल्की सी थकी आवाज़ में जब वे अपने ज़ख़्मों को फूल बताते हैं तो उनकी दृढ़ता इसमें अलग से बोलती है.
दूसरी बात यह थी कि किसी अजब जादू से दिलीप कुमार अपने किरदार में ढल जाते हुए भी दिलीप कुमार ही बने रहते थे. उनकी शख़्सियत जैसे उनके अभिनेता को चुनौती देती रहती थी और उनका अभिनेता उनकी शख़्सियत को बचाए रखते हुए भी अपना रास्ता निकाल लेता था. बाद के वर्षों में अमिताभ बच्चन और शाह रुख़ ख़ान ने इसी ख़ूबी को अख्तियार करने की कोशिश की और दिलीप कुमार के अभिनय की छाप उनके काम में कई-कई बार दिखती रही.
यह बात बार-बार कही जा रही है कि दिलीप कुमार के साथ एक पूरा युग चला गया. एक हद तक इसमें सच्चाई है, लेकिन ज़्यादा बड़ी सच्चाई यह है कि दिलीप कुमार का वास्तविक युग काफी पहले जा चुका था. बल्कि उन्होंने सिनेमा के कई दौर देखे थे. साठ के दशक में जिस उछल-कूद के लिए शम्मी कपूर को जाना जाता है, और सत्तर के दशक में ऐंग्री यंग मैन की जो छवि अमिताभ बच्चन के साथ जोड़ी जाती है- इन दोनों की कई छायाएं दिलीप कुमार की एकाधिक फिल्मों में मिल जाती हैं.
उन्होंने ज़िंदगी बड़ी भी पाई और लंबी भी. इस लंबी ज़िंदगी में अनुभव भी तरह-तरह के पाए. जब उन्हें निशाने पाकिस्तान के सम्मान से नवाज़ा गया तो शिवसेना के बाल ठाकरे उनके विरुद्ध खड़े हो गए. उन्हें पाकिस्तान चले जाने की सलाह तक दी गई. लेकिन आज उद्धव ठाकरे ख़ुद उनको श्रद्धांजलि देते नज़र आए. यह दिलीप कुमार के होने का मतलब था. फौरी राजनीति अपने मक़सद के लिए उन पर हमले कर सकती थी, लेकिन ये हमले उनकी शख्सियत को छू नहीं पाते थे. यही वजह है कि जब वे गए तो पूरे देश ने उन्हें और उनके दौर को शिद्दत से याद किया. वे हिंदी फिल्मों के भीष्म पितामह जैसे थे जो सबके गुरु थे, लेकिन सबसे निर्लिप्त थे.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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