बहरहाल अम्मा थाने में आ गयीं। यह बात दो साल पहले की है। पता अब चली है। पुलिस का अच्छा काम या अच्छी बात धीरे धीरे ही फैलती है। थाने में आयी थीं किसी समस्या को लेकर। अपनों से दुखी थीं। संतान से परित्यक्त रही होंगी। वहां के हालिया कप्तान सत्यार्थ अनिरुद्ध पंकज ने मुझे बताया, 'एक सीओ साहब जिनका नाम शिवराज जी है, ने तरस खाकर थाने में ही एक तख्त डलवा दिया। अम्मा चिड़चिड़ी रहती थीं। नियमित खाने पीने का प्रबंध भी कर दिया गया। थाने का सब स्टाफ उसे अम्मा-अम्मा बुलाने लगा तो अम्मा ने भी सिपाहियों को अपना बच्चा समझ लिया। महिला सिपाहियों को अपनी बेटी समझने लगीं।' अम्मा दुर्बल शरीर की थीं। थाने ने जियाफ़त कर दी। सोनवती अम्मा को रोज़ाना की जरूरत की चीज़ें मिल जाती हैं। अम्मा खुश रहने लगी हैं। पुलिस को दुआओं से नवाज़ती हैं। अम्मा की अपनी कोई संतान खैर ख़बर लेने नहीं आयी है। थाना ही अब उनका घर है।
यह घटना कोई ब्रैंड स्टोरी नहीं है। वैसे भी पुलिस ब्रैंडिंग करने के मामले में पिछलग्गू महकमा है। यहां ज्ञापन तो चलते हैं, विज्ञापन नहीं चलते। आजकल प्रचलन तो विज्ञापन का ही है, पूरे पूरे पेज के विज्ञापन...। सोनवती अम्मा शायद विज्ञापन का केंद्र न बने। पुलिस के अच्छे काम का प्रचार करना समाचार नियंताओं के लिए कोई सहज काम नहीं होता। कल शाम को ही तो एक प्रोग्राम करके बखिया उधेड़ी थी इनकी! ये गुड वर्क कहां अडजस्ट करें? शाम को फिर 'अत्याचार' पर एक स्टोरी आयी है। 'प्राइम टाइम' पर जाएगी। ओह! ये अम्मा की स्टोरी कहां फिट करें। अच्छा छपनी तो है ही। चलो छाप दो। कभी-कभी ही तो पुलिस अच्छा काम करती है। जाने दो प्रिंट में। सोनवती अम्मा प्रिंटिंग मशीन में चली गयी हैं। मशीन के दांतों के बीच में अम्मा फंसी हुई हैं और पुलिस की पोशीदा नेकख्याली की दुनिया भी।
प्रिंटिंग मशीन चल पड़ी है। लाखों पन्ने प्रिंट हुए हैं। दुनिया की बदहाली हमारे हिस्से आयी है। बदअमनी की तोहमत हमारे सिर आयी है। हम फ़िर भी खुश हैं। सोनवती अम्मा हमारे जिम्मे आयी हैं। हमें गहरे स्याह रंगो से रंग दिया गया है। हम इतने तो स्याह नहीं हैं। हमें भी कुछ उजले रंग लगा दो। कुछ चमकता हुए,साफ धवल रंग। इतनी भी बदरंग, बदसूरत नहीं है थाने की दुनिया। आओ कभी, सोनवती अम्मा से मिलने। कभी हमसे भी मिलने। कोई प्रथम सूचना लिए बिना। कोई तहरीर लिए बिना। आओ कभी हमारी जीडी के पन्ने तो पलटो। इस डायरी के जर्रे-हर्फ़ जहां दर्द की लकीर दूर क्षितिज तक जाती है, उस लकीर के साथ-साथ चलो। ये लकीर तुम्हें सिपहिये की जिंदगी की नामालूम तह तक ले जायेगी। कमियां भी हैं। अवगुण भी हैं। पर पूरी तरह बदरंग नहीं हुआ है वह। उसे कुछ अच्छे रंग दे दो। रंग तो तुम्हारे ही पास हैं। वह तो कच्ची पेंसिल से ड्रॉ की गयी एक तस्वीर है। रंग तो हम सभी को ही भरने हैं। उसके अच्छे कामों को थोड़ी ज्यादा जगह दे दो। उसकी आलोचना करो। पर नफ़रत से नहीं। उसकी कमी बताओ पर उसे कमजोर न बनाओ। उसके दिल में अपनी अम्मा से दूर रहने की गिरह फंसी है। पुलिसिए की जिंदगी मानो गिरहों से ही बाबस्ता हो। गुलज़ार के जुलाहे के पास भी कोई तरकीब नहीं। उसने भी हाथ खड़े कर दिए हैं। गिरहें पेचीदा हैं।
मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे,
अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
मैनें तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे
मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
- गुलज़ार
पुलिसिया जिंदगी की सारी 'गिरहें' तार तार हैं। जिन साहब ने उन्हें पनाह दी है, वह निसंदेह बड़े ह्रदय के ही होंगे। नहीं तो डीडी बसु केस के मुताबिक़ कोई महिला सूर्यास्त के बाद भला थाने में कैसे रह सकती है? क्या खूब आइन-ए-निज़ाम हैं! जहां एक पुलिस को छोड़कर सभी महकमे काबिल-ए-भरोसा हैं, उनकी साख है। पुलिस को अपनी फ़रदों में समाज के कम से कम एक शरीफ़ शख्स को गवाह बनाने का नियम है। पर और महकमों का क्या! उनकी फरदें, उनके अहक़ाम भरोसे लायक हैं...! हम इस क़ाबिल नहीं माने गए हैं। अभियोजन की शुचिता के लिए यह 'अविश्वास' जरुरी है, ऐसा क्रिमनल जुरिस्प्रूडेंस में माना गया है। चलो मान लो। किसी और को भरोसा न रहा हो, सोनवती अम्मा को तो है ही।
अम्मा को भी लग गया होगा कि पुलिस वालों के पास एक द्रवित हो सकने वाला ह्रदय है। ये लोग भी गांव, देहात के ही लड़के हैं जो ज्यादा सीन फुलाकर, फर्राटा दौड़ मारकर इस महकमे में भर्ती हो गए। इसी समाज के वाज़िब, गैर-वाज़िब प्रचलन देख देखकर ये भी लगभग उसी तरह के कर्मचारी बने हैं जैसे सूट-बूट पहनकर इसी समाज के दूसरे नागरिकगण दूसरे महकमों में कर्मचारी बने हैं। इनमें शिवराज जी जैसे नेक-ख्याल लोग भी हैं और अनाम बद-नीयत लोग भी। लेकिन, सोनवती अम्मा इस गुणा भाग से दूर हैं। उन्हें वक्त से थाने में रोटी लगी थाली मिल जाती है जो शायद उसे अपने घर अपनी औलाद से हासिल न थी। थाने के सिपाहियों को नाम से पुकारती हैं अम्मा। अम्मा का झुर्रियोंदार चेहरा अब कुछ बेहतर हो गया है।
सोनवती अम्मा थाने के तख्त पर बैठी हैं। ठीक उसी तरह जैसे घर के आंगन में भोर होते ही अम्मा बैठ जाती हैं। अम्मा, अम्माओं के मिज़ाज मुताबिक़ कुछ न कुछ बुदबुदाती रहती हैं। थाने की दुनिया थाने के मिज़ाज मुताबिक़ चलती रहती है।
धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...
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