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क्या रोकी जा सकती थी धराली आपदा, लापरवाहियों का नतीजा हैं हिमालयी आपदाएं?

हिमांशु जोशी
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 06, 2025 14:46 pm IST
    • Published On अगस्त 06, 2025 13:58 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 06, 2025 14:46 pm IST
क्या रोकी जा सकती थी धराली आपदा, लापरवाहियों का नतीजा हैं हिमालयी आपदाएं?

उत्तराखंड के धराली गांव में पांच अगस्त 2025 को बादल फटने से भारी मलबा आया और उसकी चपेट में आने से कई घर और दुकानें बह गई हैं. अब तक कुछ लोगों के मरने की पुष्टि हुई है और कई लोग लापता बताए जा रहे हैं. इससे पहले ठीक इसी तरह का हादसा 2013 में केदारनाथ में हुआ था. इस हादसे के बाद 2016 में भूवैज्ञानिक पीयूष रौतेला ने चेतावनी तंत्र की कमजोरियों और सुधार की दिशा में जो सुझाव दिए थे, वे अगर समय रहते अपनाए गए होते तो इस हादसे से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता था.

कैसे रोकी जा सकती हैं आपदाएं

अब हालिया रिपोर्ट में पीयूष रौतेला ने साफ कहा है कि हिमालयी आपदाएं सिर्फ प्राकृतिक नहीं, बल्कि हमारी लापरवाहियों का नतीजा भी हैं. समय पर चेतावनी, स्थानीय निगरानी व्यवस्था और लोगों की भागीदारी ही इस तरह की आपदाओं से बचाव का रास्ता है.

भूवैज्ञानिक पीयूष रौतेला के पेपर '16/17 June 2013 disaster of Uttarakhand, India and lessons learnt' से यह पता चलता है कि जून 2013 की केदारनाथ आपदा में समय पर और सही जगह की चेतावनी मिलती, तो कई जानें बच सकती थी. उस समय मौसम विभाग ने केवल पूरे राज्य में भारी बारिश की सामान्य जानकारी दी थी, किसी खास इलाके की सटीक चेतावनी जारी नहीं की गई थी. आज तकनीक से यह मुमकिन है कि हिमालय जैसे क्षेत्रों में बाढ़ और भूस्खलन की पहले से जानकारी दी जा सके, लेकिन इसके लिए मौसम स्टेशनों का अच्छा नेटवर्क और तुरंत सूचना देने वाली व्यवस्था होनी चाहिए. इसके साथ ही, लोगों को यह समझाना भी ज़रूरी है कि चेतावनी मिलने पर उन्हें क्या करना चाहिए, इसके लिए बड़े स्तर पर जागरूकता अभियान चलाने की ज़रूरत है.

यह पेपर 2016 में प्रकाशित हुआ था. अगर 2025 आने तक इससे कोई सीख ली गई होती तो धराली में नुकसान कुछ कम हो सकता था, भविष्य की आपदाओं से बचाव पर अधिक जानकारी के लिए हमने पियूष रौतेला से संपर्क किया, उन्होंने 'रिस्क अवॉइडर' वेबसाइट में इस विषय पर अपनी रिपोर्ट 'Dharali's Deluge: A Tragic Hymn of a Wounded River' साझा की.

धराली त्रासदी, अब चेतना का समय

भूवैज्ञानिक पीयूष रौतेला की हालिया रिपोर्ट के अनुसार धराली में हाल की त्रासदी ने एक बार फिर यह साफ कर दिया है कि हिमालयी क्षेत्रों में आपदा केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि हमारी गलतियों का नतीजा भी होती है. अगर हमने समय पर चेतावनी संकेतों को समझा होता, नदी के प्राकृतिक मार्ग का सम्मान किया होता और पुराने अनुभवों से सबक लिया होता तो यह त्रासदी रोकी जा सकती थी. 

रिपोर्ट में लिखा है कि नदी किनारे रहने वाले लोगों को जागरूक और प्रशिक्षित करना जरूरी है ताकि वे समय रहते नदी के प्रवाह में किसी भी असामान्य बदलाव को पहचान सकें. ऐसे बदलाव किसी ऊपर के इलाके में बन रहे बांध या भूस्खलन का संकेत हो सकते हैं. इसके लिए सही सूचना तंत्र और स्थानीय स्तर पर निगरानी व्यवस्था ज़रूरी है. साथ ही, उच्च जोखिम वाले इलाकों का मानचित्रण कर अस्थायी झीलों और भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए, ताकि समय रहते कार्रवाई की जा सके.

रिपोर्ट में भूवैज्ञानिक लिखते हैं कानूनन नदी किनारे निर्माण पर सख्ती से रोक लगनी चाहिए. इस पर बिना अपवाद सख्ती से अमल होना चाहिए. ऊपरी इलाकों में निगरानी और अलर्ट सिस्टम विकसित करने होंगे, जिनमें मौसम केंद्र, नदी सेंसर और सैटेलाइट डेटा का उपयोग किया जाए. आज जरूरत यह है कि हम मुनाफे के दबाव में प्रकृति से छेड़छाड़ न करें, बल्कि अपने पुरखों के ज्ञान और सतर्कता से प्रेरणा लें. तभी हम भविष्य में धराली जैसी त्रासदियों को टाल सकेंगे.

अस्वीकरण: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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