क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ख़ुद को दुनिया का सबसे बड़ा और महान लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटने वाले भारत की संसद में बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका और चीनी मूल के उम्मीदवार चुनाव जीतकर पहुंच जाएं। भारत के पास मौजूदा समय में सोनिया गांधी के अलावा ऐसा कोई उदाहरण नहीं है। ब्रिटेन में हुए चुनावों में जिस तरह एशियाई मूल के लोगों ने फ़तह हासिल की है वह हम भारतीयों के लिए आईना है। ब्रिटेन और अमरीका की संसद ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी हैं और एक हम हैं कि किसी की देशभक्ति को जन्मभूमि के आधार पर तय करते रह जाते हैं, नागरिकता देकर उसे संस्थाओं से दूर रखने का हर संभव प्रयास करते हैं।
आखिर ब्रिटेन की जनता और वहां की संस्थाओं को हमारे यहां जैसा ख़तरा क्यों नहीं होता है? वहां की जनता की परिपक्वता या आत्मविश्वास हमसे ज्यादा कैसे है कि वे दूसरे देशों से आए लोगों के बच्चों को अपना बच्चा समझते हैं और प्रतिनिधि चुनते हैं। हमारे यहां तो तरह-तरह के दल वाले लाठी लेकर आ जाएंगे और बताने लगेंगे कि एक दिन इनकी आबादी बढ़ जाएगी, एक दिन ये संसद और फिर देश पर ख़तरा बन जाएंगे। इन दलों को ब्रिटेन में जाकर प्रचार करना चाहिए था कि प्लीज़ आप एशियाई मूल के लोगों को वोट मत दो। ये देशभक्ति के लिए ख़तरा हैं।
ब्रिटेन में तो यहां तक कहा जा रहा है कि एक दिन हमारा प्रधानमंत्री एशियाई मूल का होगा। यह बात डराने के लिए नहीं कही जा रही है, बल्कि ब्रिटेन गौरव के उस क्षण का इंतज़ार कर रहा है। विश्व गुरु और शक्ति बनने का सपना संजोने वाला भारत क्या कभी ऐसा आत्मविश्वास दिखा पाएगा। आखिर ब्रिटेन का कौन सा राष्ट्रवाद है, जो अपने नागरिकों के जन्मस्थान का पता लगाकर ख़ौफ़ नहीं खाता। भारत में जैसे ही सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री की बात होती है हमारा लोकतंत्र सकपका जाता है।
नागरिक होने के बाद भी सोनिया गांधी के मूल को लेकर बहस चलती रहती है कि वे सांसद तक तो ठीक हैं मगर कोई विदेशी प्रधानमंत्री कैसे बन सकता है। हम संविधान के दिए नागरिक अधिकारों का भी सम्मान नहीं करते हैं। साल 2004 में यूपीए की जीत के बाद सुषमा स्वराज ने तुरंत ऐलान कर दिया कि अगर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो अपना सर मुड़वा लेंगी। 2013 में भी लोकसभा चुनावों के दौरान सुषमा स्वराज ने फिर कह दिया कि मैं अभी भी इस राय पर कायम हूं कि सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहिए। ये और बात है कि तुरंत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह दिया कि सोनिया गांधी के इटालियन मूल का मुद्दा अब मर चुका है। यह मुद्दा मरा है या नहीं इसका प्रमाण तुरंत मिल जाएगा बस कोई कह दे कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनेंगी। देख लीजिएगा कि किसके कैसे बयान आते हैं।
अगर हम ब्रिटेन या अमरीका की संसद में भारतीय मूल के लोगों के जीतने पर इतना गौरव करते हैं तो क्या हम वही गौरव दूसरे मूल के लोगों को दे सकेंगे। क्या कोई चीनी मूल का व्यक्ति दिल्ली की किसी सीट से चुनाव जीत सकेगा। कोई पार्टी टिकट देने का भी साहस करेगी। कोई चुनाव ऐसा नहीं गुज़रता जिसमें बांग्लादेशी नागरिकों का मुद्दा न उठता हो। इसका एकमात्र मकसद होता है भारतीय मुसलमानों को संदिग्ध कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना।
ब्रिटेन की संसद में इस बार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की भतीजी तुलिप सिद्दीक़ जीती हैं। अलन मक चीनी मूल के पहले ब्रिटिश सांसद बने हैं। मक ने कहा है कि उनके मूल को लेकर ज्यादा उत्सव मनाने की ज़रूरत नहीं हैं। मैं ब्रिटेन में पैदा हुआ हूं और यही मेरा मुल्क है। ज़ाहिर है मुल्क पर अधिकार या उससे लगाव सिर्फ जन्मस्थान के कारण नहीं होता होगा। ब्रिटेन की क्रिकेट टीम में ही कई बार ऐसी विविधता दिख जाती है, जिसे लेकर हम पंजाब से लेकर दिल्ली तक में जश्न मनाने लगते हैं।
क्या आप सोच सकते हैं कि पाकिस्तानी मूल की नसीम शाह को भी वहां की जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना है, जिनकी मां अपने अत्याचारी पति की हत्या के आरोप में जेल जा चुकी हैं। भारत में ऐसी पृष्ठभूमि का कोई उम्मीदवार आ जाए तो उसके मां बाप को ही मुद्दा बना देंगे और भीड़ को उकसाया जाने लगेगा कि अपराधी परिवार का सांसद बनेगा तो वही करेगा जो एक अपराधी करता है। हालांकि अपराधियों को सांसद बनाने के मामले में हमारा रिकार्ड दुनिया के किसी देश से ख़राब नहीं होना चाहिए।
लीसा नंदी विगन से और सीमा मल्होत्रा साउथ वेस्ट लंदन से सांसद बनी हैं। सुएला फर्नाडिस फेयरहैम से और प्रीति पटेल विटहम से सांसद बनी हैं। आलोक शर्मा रिडिंग वेस्ट से तो वीरेंद्र शर्मा ईलिंग साउथॉल से सांसद बने हैं। इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति के दामाद ऋषि सुनाव भी सांसद चुने गए हैं। शैलेश वारा को ब्रिटिश जनता ने कैमब्रिज़शर नोर्थ वेस्ट से अपना सांसद चुना है। इन नामों से गर्व हो रहा है तो यही गौरव भारत को भी दुनिया के इतिहास को लौटाना होगा।
अमरीका ब्रिटेन या कहीं भी दूसरे देशों के मूल के लोगों का चुना जाना बता रहा है कि सांसद होने या लोकतांत्रिक संस्थाओं को चलाने की ज़िम्मेदारी या पात्रता किसी के जन्मस्थान के मूल से नहीं तय होती है। देशभक्ति जन्मस्थान के आधार पर परिभाषित नहीं होगी बल्कि इसका पैमाना होगा किसी का नागरिक कर्तव्य। एक बड़े देश की पहचान सिर्फ वसुधैव कुटुंबकम कहने से नहीं होती है। उसकी पहचान इस बात से भी होगी कि वह अपनी ज़मीन पर दूसरे मुल्कों के लोगों को सर्वोच्च पदों पर पहुंचने के नागरिक अधिकार देगा।
इस मामले में भारत अभी महान नहीं हुआ है। अतीत के दो चार उदाहरणों से हम खुश नहीं हो सकते हैं। हमें अपने दोहरेपन से निकलना होगा। यह नहीं हो सकता कि दूसरे मुल्कों में भारतीयों के शिखर पर पहुंचने से खुश हों और अपने मुल्क में कोई दूसरे मुल्क का संसद तक में न पहुंच पाए इसकी राजनीति करें।
This Article is From May 09, 2015
क्या कोई चीनी मूल का व्यक्ति भारत में बन सकता है सांसद?
Ravish Kumar
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Updated:मई 09, 2015 23:49 pm IST
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Published On मई 09, 2015 23:12 pm IST
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Last Updated On मई 09, 2015 23:49 pm IST
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