बिहार विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में नीतीश कुमार के नेतृत्व में नई सरकार ने सत्ता संभाल ली है.राज्य में दो चरण में मतदान कराया गया. इस दौरान सभी राजनीतिक दलों ने जोर-शोर से चुनाव प्रसार किया. लेकिन इस दौरान दुख की बात यह रही कि किसी भी दल ने बिहार में गहराते जल संकट को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया. यह हाल उस बिहार का रहा जहां राजनीतिक विमर्श स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही बाढ़ जैसे ज्वलंत मुद्दों के इर्द-गिर्द होता रहा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने सात निश्चय में जल, जीवन और हरियाली को प्रमुखता से स्थान दिया था. उन्होंने 'हर घर जल नल' योजना के तहत करीब 23 हजार करोड़ के बजट का प्रावधान किया. लेकिन, प्रशासनिक अकर्मण्यता की वजह से यह योजना धरातल की जगह कागजों में ही सिमट कर रह गई. इस साल सीतामढ़ी, दरभंगा, मधुबनी और आसपास के जिलों में अधिकांश हैंडपंप जुलाई के उत्तरार्ध में सूख गए. यह समय इन जिलों में पारंपरिक रूप से बाढ़ का समय होता है. मध्य मानसून में भी इन क्षेत्रों में महिलाओं और बच्चों को पीने का पानी जुटाने के लिए संघर्ष करते हुए देखा गया.इस साल जहां अपने थार (रेगिस्तान) के लिए मशहूर राजस्थान में सामान्य से 42 फीसदी अधिक बारिश हुई, वहीं बिहार में सामान्य से 27 फीसदी कम बारिश दर्ज की गई. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर बिहार में जल संकट कितना गहरा है? इस जल संकट का स्वरूप क्या है? क्या यह संकट केवल मात्रात्मक है या गुणात्मक भी है?
पिछले तीन-चार सालों को देखें पता चलता है कि यह कोई एक बार की घटना नहीं है, बल्कि एक उभरता हुआ चलन है. इसके कई कारण हैं जैसे जल संसाधनों का गुणात्मक क्षरण, भूजल का अत्यधिक दोहन, अपर्याप्त पुनर्भरण, जल संसाधनों का बढ़ता प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन. बिहार पहले से ही जल संकट से जूझ रहा राज्य है, इसलिए जल संकट के और बढ़ने से समस्या और गंभीर हो सकती है. बिहार, जो सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व वाला और कृषि पर अत्यधिक निर्भर राज्य है, इसके विकास कि संभावनाओं पर यह गहराता जल संकट ग्रहण लगा सकता है.
पानी की कमी से जूझता बिहार
जल संकट की प्रकृति मात्रात्मक कमी यह प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता में तेजी से गिरावट को दर्शाता है. बिहार में औसत प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता आजादी के समय प्रति वर्ष करीब 5,000 घन मीटर थी. यह आज घटकर करीब 1,000 घन मीटर रह गई है. अनुमान है कि 2050 तक यह और घटकर केवल 635 घन मीटर रह जाएगी. बिहार की लगभग 90 फीसदी जल आपूर्ति भूजल पर निर्भर है. फसल उत्पादन इसका प्राथमिक उपभोक्ता है.भूजल के अनियंत्रित दोहन के कारण भूजल स्तर पारंपरिक गहराई से कहीं अधिक नीचे गिर गया है. इससे गर्मी के महीनों में कुएं सूख जाते हैं. मौसमी नदियां गर्मियों में सूख जाती हैं. अतिक्रमण, सूखे और उपेक्षा के कारण हजारों एकड़ आर्द्रभूमि लुप्त हो गई है. वर्तमान में, बिहार में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता राष्ट्रीय औसत करीब 1,486 घन मीटर से काफी कम और वैश्विक औसत 5,000 घन मीटर प्रति वर्ष से भी काफी नीचे है. यह बिहार के भयावह जल संकट की स्थिति को दर्शाता है.
जल संकट के कारण जलवायु परिवर्तन और जल विज्ञान संबंधी बदलाव बिहार में मानसून (जून-सितंबर) में औसत से कम वर्षा एक प्रवृत्ति बनती जा रही है. यह राज्य में जलवायु परिवर्तन का सबसे स्पष्ट उदाहरण है. भारत मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, बिहार में मानसूनी बारिश 2022 में 33 फीसदी, 2023 में 25 फीसदी और 2024 में 20 फीसदी कम रही. इसमें जुलाई में सबसे ज्यादा गिरावट देखी गई. इस साल भी एक जून से 22 अगस्त के बीच, राज्य में सामान्य से करीब 27 फीसदी कम बारिश हुई. दिलचस्प बात यह है कि जहां बिहार में सूखा चल रहा है, वहीं राजस्थान में इसी अवधि में सामान्य से करीब 42 फीसदी अधिक बारिश हुई. मानसूनी बारिश में गिरावट का यह रुझान उत्तर बिहार के पारंपरिक रूप से बाढ़ प्रभावित जिलों जैसे सीतामढ़ी, दरभंगा और मधुबनी आदि में बार-बार सूखे को बढ़ावा दे रहा है. वास्तव में, हाल के दो दशकों में बिहार के करीब सभी जिलों में बारिश में गिरावट देखी गई है.भूजल का अत्यधिक दोहन भारत के सबसे घनी आबादी वाले राज्य बिहार में जल संसाधनों पर दबाव बहुत ज्यादा है. बिहार की जनसंख्या वैश्विक जनसंख्या का करीब 1.67 फीसदी है, जबकि मीठे जल संसाधनों में इसकी हिस्सेदारी 0.1 फीसदी से भी कम है. कृषि पर भारी निर्भरता, जो बिहार में कुल जल खपत का 80 फीसदी से भी अधिक है, इस दबाव को और बढ़ा देती है. कुल वार्षिक भूजल निकासी 13.5 बीसीएम (बिलियन क्यूबिक मीटर) में से 10.0 बीसीएम (73 फीसदी) से भी ज्यादा सिंचाई के लिए उपयोग किया जाता है. चावल (मुख्य फसल के रूप में) जैसी जल-प्रधान फसलों पर अत्यधिक निर्भरता और मखाना जैसी और भी अधिक जल-प्रधान फसल का तेजी से हो रहा विस्तार भी इस समस्या को बढ़ाने में योगदान देता है. बिहार के कई जिलों में, जल स्तर सालाना एक मीटर से भी ज़्यादा नीचे जा रहा है. इससे पानी तक पहुंच और भी कठिन, महंगी और कम न्यायसंगत होती जा रही है.
बिहार का पानी कितना प्रदूषित है
एक अध्ययन में पाया गया है कि बिहार के करीब 40 प्रतिशत जिलों में भूजल में आर्सेनिक पाया गया है. इसमें 15 जिलों के 67 से अधिक ब्लॉक और 1600 से अधिक बस्तियां शामिल है. यहां के भूजल में आर्सेनिक प्रदूषण सुरक्षित पेयजल के लिए भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) की सीमा 50 भाग प्रति बिलियन (पीपीबी) और उससे अधिक से अधिक है. यदि हम विश्व स्वास्थ्य संगठन की 10 पीपीबी की सीमा पर विचार करें, तो कवरेज क्षेत्र बहुत बड़ा होगा और आर्सेनिक के खतरे का सामना करने वाली आबादी बीआईएस मानक सीमा से अधिक होगी. हालांकि सतही जल को अधिकांशतः पीने के लिए सुरक्षित माना जाता है, लेकिन भूजल स्रोत 40 से 140 फीट की सीमा में आर्सेनिक से दूषित हैं. बिहार के आधे से अधिक जिलों का भूजल आर्सेनिक, फ्लोराइड, आयरन और यहां तक कि यूरेनियम से भी दूषित है.करीब 80 फीसदी आबादी के पास असुरक्षित पेयजल है. आर्सेनिक के संपर्क में आने से कैंसर का खतरा बढ़ जाता है. फ्लोराइड दंत और कंकाल फ्लोरोसिस का कारण बनता है. उच्च लौह तत्व और सूक्ष्म जीव प्रदूषण दीर्घकालिक बीमारियों का कारण बनते हैं.
इस प्रकार देखा जाए तो पीने के पानी में 1.5 मिलीग्राम/लीटर तक फ्लोराइड <1 मिलीग्राम/लीटर लाभकारी है > 1.5 मिलीग्राम/लीटर हानिकारक है. इसका परिणाम यह हुआ है कि बिहार के नौ जिलों के 14 ब्लॉकों में दांतों के इनेमल पर दाग पड़ गए हैं. जमुई ब्लॉक के नवीनगर में इसकी उच्चतम सांद्रता (2.85 मिलीग्राम/लीटर) पाई गई. फ्लोराइड का उच्च स्तर (5-10 मिलीग्राम/लीटर) पीठ में अकड़न और प्राकृतिक गतिविधियों में कठिनाई का कारण बनता है. यही नहीं पीने के पानी में 1 मिग्रा/लीटर तक आयरन 1.5 मिग्रा/लीटर से अधिक आयरन हानिकारक बिहार में पाया जाने वाला एक सामान्य जल प्रदूषक है. 20 जिलों के 31 ब्लॉकों के भूजल में आयरन मौजूद है. आयरन की सबसे अधिक सांद्रता सीवान जिले के मैरवा ब्लॉक के जेरादाई (14 मिग्रा/लीटर) में पाई गई. इसके साथ ही साथ पीने के पानी में 45 मिग्रा/लीटर से अधिक नाइट्रेट शिशुओं के लिए हानिकारक है. भूजल में नाइट्रोजन के प्राकृतिक और मानव निर्मित स्रोतों की पहचान करना मुश्किल है. यह आम तौर पर गैर-बिंदु स्रोतों से उत्पन्न होता है. यह भूजल का सबसे आम प्रदूषण फैलाने वाला कारक है. बिहार के नौ जिलों के 15 ब्लॉकों के पानी में आयरन पाया जाता है. सबसे अधिक सांद्रता पटना के फतुआ ब्लॉक के मोकामा (228 मिलीग्राम/लीटर) में पाई गई.
क्या हो सकता है बिहार के जल संकट का समाधान
एक रोडमैप बनाकर बिहार के जल संकट का तत्काल समाधान जरूरी है. इसका समाधान समस्या की गहन समझ और उससे निपटने के लिए एक बहुआयामी रणनीति में निहित है. इस संकट से निपटने के लिए, पेयजल और घरेलू जल आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में,जहां जल आपूर्ति प्रणालियां पारंपरिक रूप से खराब और अपर्याप्त रही हैं, पानी के टैंकरों या अन्य साधनों के माध्यम से तत्काल जल आपूर्ति की व्यवस्था की जानी चाहिए. आहर-पाइन प्रणालियों जैसी पारंपरिक जल प्रणालियों का पुनरुद्धार और आर्द्रभूमि और बाढ़ के मैदानों का पुनरुद्धार भी दीर्घकालिक रूप से संकट के प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण है. वर्षा जल संचयन और जल संरक्षण तकनीकों को बढ़ावा देने, जल के विवेकपूर्ण उपयोग और जल की बर्बादी को रोकने के लिए जागरूकता अभियान शुरू किए जाने चाहिए. बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण और कृषि वानिकी प्रणालियों के माध्यम से राज्य के हरित आवरण में सुधार से भूजल को रिचार्ज करने में भी सुधार होगा. जल की गुणवत्ता की नियमित निगरानी, विशेष रूप से आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रदूषण की निगरानी, परिणामों का सार्वजनिक प्रकटीकरण, प्रदूषण के स्रोतों का पता लगाना और उन्हें सख्ती से विनियमित करना और दूषित जल के उपयोग के स्वास्थ्य प्रभावों के बारे में जन जागरूकता पैदा करना, बिहार में गुणात्मक जल क्षरण के कारणों और प्रभावों के प्रबंधन के लिए जरूरी है. अंत में यह कहा जा सकता है बिहार में जल संकट भविष्य की अटकलों से अधिक तेजी से वर्तमान की कठोर वास्तविकता में बदल रहा है. इसका प्रभाव बहुआयामी है, जो ग्रामीण आजीविका, सामाजिक स्थिरता, मानव स्वास्थ्य और दीर्घावधि में बिहार की समग्र विकास संभावनाओं के लिए गंभीर खतरा पैदा करता है. राज्य में जल संसाधनों की कमी और कृषि, जो कि सबसे अधिक जल-प्रधान क्षेत्र है, पर इसकी अत्यधिक निर्भरता को देखते हुए, इस संकट को और बढ़ने नहीं दिया जा सकता.
डिस्क्लेमर: डॉ नीरज कुमार बिहार के वैशाली स्थित सीवी रमन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं. लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.