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This Article is From Jul 19, 2015

बाहुबली अब गुंडा से देवता हो गया

Reported By Ravish Kumar
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  • Updated:
    जुलाई 19, 2015 18:39 pm IST
    • Published On जुलाई 19, 2015 18:18 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 19, 2015 18:39 pm IST
हर नई फ़िल्म पहले बन चुकी कई फ़िल्मों की परम्परा में ही होती है। कई फ़िल्में देख चुका दर्शक भी उसी परंपरा में किसी नई फ़िल्म को देखता है। भले ही बनाने वाला सोच कर अलग और नया ही गढ़ता है लेकिन दर्शक गढ़ने नहीं आता। देखने आता है।

इसलिए 'बाहुबली' देखते वक्त मुझे देवसेना से करण अर्जुन की मां की याद आई जब राखी कहती रही कि मेरा बेटा आएगा। तिरछा होकर स्लोमोशन में दौड़ते आते बाहुबली के अंदाज़ में सलमान और ह्रितिक रोशन दिखे तो माहिष्मति राज्य के उच्चारण में डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया का आरंभ गान सुनाई दिया तो बाहुबली और अवन्तिका के प्रेम गीतों में तोहफ़ा फ़िल्म की झलक मिली। युद्ध क्षेत्र में कालकेय की भाषा से लगा कि 'गैम्बलर' फ़िल्म में स्पेनिश बोलते अमिताभ बच्चन तो नहीं हैं। फिर लगा कि वो कोई लातिनी है जो भटकते हुए भारत भू आ गया है? कालकेय राक्षस और कौरव सेना का मिक्सचर लगता है।

'बाहुबली' एक बेहद अच्छी और निराश कर देने वाली फ़िल्म है। कई सालों से ख़ुद को लोकतंत्र के संभावित मानकों में प्रशिक्षित करने के क्रम में युद्ध कौशल, वीरता और नायकत्व की गाथा से बनी इन फ़िल्मों को देखकर मैं बाहुबली की तरह जलप्रपात की धार से फिसल कर वापस ज़मीन पर आ गिरता हूं। राज्य, राजनीति, लोकतंत्र और भागीदारी के सवालों से लैस नागरिकता का विकास इतना मुश्किल हो जाता है जैसे किसी ने माहिष्मति तक जाने का सुरंग चट्टानों से ढंक दिया हो ।

मैं सिर्फ एक दर्शक नहीं हूं। एक नागरिक भी हूं जिसकी नागरिकता के आदर्श उन कथाओं से गढ़े जाते हैं जो लोकतंत्र से नहीं राजतंत्र की रातों से आती हैं। वीर भल्ला की सोने की विशालकाय मूर्ति में सरदार पटेल की सबसे ऊंची प्रतिमा नज़र आती है तो कभी विवेकानंद और कांशीराम की। उसे उठाने वाले असंख्य ग़रीब और कमज़ोर लोग सबसे ऊंची मूर्ति से पहले की बनी छोटी छोटी मूर्तियां हैं। ये लोग नहीं हैं बल्कि अनेक चौराहों, इमारतों और योजनाओं का नाम धारण करने वाली नाकाम मूर्तियां हैं। गांधी, विवेकानंद और नेताजी की मूर्तियां हैं। अब यही सब मूर्तियां मिलकर सोने के भल्ला की महामूर्ति क़ायम कर रही हैं।

इस पर बहस होनी चाहिए कि क्या लोकतंत्र के पास कोई महागाथा (मेटानैरेटिव) नहीं है। क्या राजतंत्र और नियति के प्रतीकों से बनी गाथाएं लोकतंत्र में हाशिये पर धकेले जा रहे नागरिक के मन में कोई अंतर्विरोध पैदा नहीं करती होंगी। राजमाता के इस संदेश को सुनते हुए कि युद्ध में जो सबको मार दे वो नायक है और जो एक की जान बचा ले वो देवता, लोकतंत्र के नागरिक-दर्शकों के मन पर क्या असर पड़ता होगा। विश्वासपात्र कटप्पा अपनी वीरता से दिल जीतता हुआ अंत में विश्वासघाती के रूप में क्यों जड़ फ़्रेम में बांध दिया जाता है और फ़िल्म की कथा अगले साल तक आने वाली दूसरे हिस्से तक के लिए मुल्तवी हो जाती है।

बाहुबली के निर्देशक वैसी फ़िल्म क्यों बनाएंगे जैसी मैं चाहता हूं। उन्होंने अपने मक़सद से एक बेजोड़ फ़िल्म बनाई है। यह भी उस फ़िल्म की बड़ी कामयाबी है कि मेरे जैसे दर्शकों को किसी दुःस्वप्न में ले जाती है। फ़िल्म की मंशा यह नहीं थी पर मेरे मन में क्या मंशा थी जो फ़िल्म के साथ चलने लगती है। इसलिए 'बाहुबली' को बेहद अच्छी और निराश करने वाली फ़िल्म कहा है। सिक्स पैक नायक के कंधे पर विशालकाय शिवलिंग और शिव तांडव का गान सिर्फ रोचक दृश्य में नहीं बदलते हैं बल्कि यह भी कि कोई एक ही क्यों होगा जो राजनीति के कुटील आदर्शों को ढहाने आएगा। फिर लोकतंत्र की सामूहिक और व्यक्तिगत चेतना का क्या होगा। क्या माहिष्मति का प्रपात के शिखर पर कल्पनालोक में स्थित होना अकारण रहा होगा? कोई बाहुबली ही सबको ध्वस्त कर पाएगा। जिसके सपनों में नवयौवना बनकर सत्ता आएगी। शुक्रिया 'बाहुबली' मुझे लोकतंत्र के भविष्य को लेकर डराने के लिए।

हमारा नायक कोई एक ही होगा। राजतंत्र में भी वही होता है और लोकतंत्र में भी वही होगा। थोड़ी बहुत नैतिकता के साथ, दो चार को जीवनदान देता हुआ, युद्ध में शत्रु मानवों को घास की तरह काटता हुआ बलशाली ही नायक है। भल्ला की मूर्ति की स्थापना के समय कमज़ोर जनता को दिये जा रहे निर्देश को याद कीजिये। निर्देश दिये जा रहे हैं कि मूर्ति खड़ी होते ही राजा की जय करना है। लेकिन नियति का खेल देखिये कि सब बाहुबली का नाम लेने लगते हैं। शुक्र है हमारे लोकतंत्र में बाहुबली देवता नहीं बल्कि शैतान है। फ़िल्म 'बाहुबली' का बाहुबली देवता है। इस फ़िल्म से लोकतंत्र के तमाम बाहुबलियों को लोकरूप के साथ-साथ देवरूप भी मिलेगा। भले ही वो कंधे पर शिवलिंग न उठा पाए लेकिन उसके पास स्कार्पियो, फार्चुनर और बोलेरो तो है जो उन्हें उठाए घूम रहे हैं।

'बाहुबली' को देखने बड़ी मात्रा में लोग आ रहे हैं। फ़िल्म बनाने वाले ने तकनीक और पैसे से वो सब कुछ गढ़ दिया है जिसे बॉलीवुड वाले नहीं गढ़ पाते हैं। दक्षिण भारत की फ़िल्म है 'बाहुबली'। हालीवुड के मुक़ाबले ठहरती है। 'अवतार' टाइप की फ़िल्मों से तुलना करना ठीक नहीं होगा क्योंकि दक्षिण की फ़िल्मों की कल्पना इन्हीं सब राजतंत्रीय धाराओं से बनी हैं। वहां फ़िल्मों के नायक भी दूध से नहलाये जाते हैं।

शायद लोकतंत्र की अपनी कोई लोककथा नहीं है। शायद इसलिए राजतंत्र की लोककथाएं इसकी भरपाई करती होंगी। इसके लिए बाहुबली को दोष क्यों दें। ये एक फ़िल्म है जो हमारे मनोरंजन के लिए बनी है और इसलिए बेहद कामयाब भी होती है। पर हम कौन हैं? नागरिक या राजतंत्र की लोककथाओं के लोकपात्र। चींटियों की तरह मसले जाते अनगिनत लोगों को देखकर लगा कि ये हम हैं जो नेताओं की महत्वकांक्षाओं के बीच मारे जा रहे हैं।

जो लिखा वो फ़िल्म को देखने के दौरान हुए असर में लिखा। यह कोई समीक्षा नहीं है। मैं यह सवाल फ़िल्म में नहीं ढूंढ रहा था बल्कि फ़िल्म के बाद अपने भीतर खोजने लगा। सवाल यह है कि राजतंत्रीय किस्से क्या लोकतंत्रिक नागरिक के मन में टकराव (कॉन्‍फ्लिक्ट) को जन्म नहीं देते होंगे। वैसे बाहुबली को देखकर बिहार के ककोलत की भी याद आई। आख़िरी बार किसी अल्प-प्रपात (छोटा है पर जलप्रपात सा है) के नीचे तब नहाया था जब तेरह चौदह साल की उम्र रही होगी।

बाहुबली का जलप्रपात तो नियाग्रा का देसी रूप लगा पर निश्चित रूप से नियाग्रा नहीं लगा। गंगा और हिमालय नियाग्रा के पास थोड़े न हैं और न ही विंध्याचल के पार हैं। मस्त फ़िल्म है। एक आइटम सॉन्‍ग भी है। बाहुबली भी शराबी के अमिताभ बच्चन की तरह खूब पीता है। नहीं नहीं। पीता नहीं है। नाटक करता है। लोगों को पिलाता है। एक फ़िल्म से तमाम फ़िल्में पिछली होली दीवाली की तरह याद आ जाती हैं। मैं दर्शक हूं या दर्शन हूं!

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