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This Article is From Aug 19, 2016

क्‍या है जो गोपीचंद को 'द्रोणाचार्य' और सिंधु को 'अर्जुन' बनाता है...

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 20, 2016 18:39 pm IST
    • Published On अगस्त 19, 2016 21:27 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 20, 2016 18:39 pm IST
कोच तो हर खिलाड़ी के होते हैं लेकिन किसी भी खिलाड़ी के कोच की इतनी चर्चा इससे पहले कभी भी नहीं हुई, जितनी फिलहाल इस खिलाड़ी के कोच की हो रही है. सच तो यह है कि कई मामलों में तो कोच के प्रति लोगों की जिज्ञासा खिलाड़ी के प्रति उत्पन्न जिज्ञासा से भी अधिक मालूम पड़ रही है. इस खिलाड़ी का नाम है-बैडमिंटन स्टार पीवी सिंधु और उनके कोच का नाम है-पुलेला गोपीचंद.

भारत में गुरु-शिष्य की परंपरा बहुत पुरानी और बहुत सशक्त रही है. अधिकांशतः इस परंपरा की चर्चा नृत्य और गायन आदि ललित कलाओं के क्षेत्र में ही हुई है. अध्यात्म और अकादमिक क्षेत्र में भी इनके उल्लेख मिल जाते हैं. लेकिन यह पहला मौका है, जब गोपीचंद और सिंधु की गुरु-शिष्य की जोड़ी ने इस परम्परा को खेल के क्षेत्र में भी पूरे दमखम के साथ स्थापित कर दिया है.

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दार्शनिक इमर्सन ने एक जोरदार बात कही थी कि ‘‘मुझे कोई ऐसा मिले, जो मुझसे वह करवा सके, जो मैं कर सकता हूं.’’ यूनान के दार्शनिक अरस्तू को यदि प्लेटो नहीं मिले होते और स्वामी स्वामी विवेकानन्द को यदि रामकृष्ण परमहंस नहीं मिले होते, तो आज हम इन दोनों से वंचित रह जाते. ठीक यही बात इस प्रकार कही जा सकती है कि यदि सिंधु को गोपीचंद नहीं मिले होते, तो भारत रियो ओलिंपिक में हिंदुस्तान का तिरंगा फहराने वाली सिंधु से वंचित रह जाता. वे गोपीचंद ही थे, जिन्होंने लगभग बारह साल पहले लंबे कद काठी के वॉलीबाल खेलने वाले माता-पिता की इस लड़की के अंदर की उस क्षमता को पहचानकर अपने हाथों में ले लिया था, जिसने आज एक पतली-दुबली लंबी लड़की को हिंदुस्तान का गौरव बना दिया है. सिंधु को बैडमिंटन खेलते देखने वाला हर दर्शक उसकी इस कला से अचंभित रह जाता है कि वे किस प्रकार बहुत कम भागदौड़ करके केवल फिजिकल मूवमेंट के दम पर अपनी कोर्ट में आई शटल को अपने विरोधी के कोर्ट में इस तरह डाल देती हैं कि विरोधी के लिए भागना अनिवार्य हो जाता है.

गोपीचंद स्वयं ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियन और दुनिया के चौथे नंबर के खिलाड़ी रहे हैं. लेकिन इससे भी बड़ी बात है उनके अंदर का आचार्य का गुण, जिसके आधार पर वे अपने खिलाड़ियों को आदेश से कहीं अधिक अपने आचरण से प्रेरित करते हैं.  सिंधु और श्रीकांत जैसे ओलिंपिक में खेल रहे खिलाड़ी यदि गोपीचंद की बैडमिंटन की अकादमी में रोजाना सुबह चार बजे पहुंचते हैं, तो वहां उन्हें गोपीचंद पहले से मौजूद दिखाई देते हैं. इसके बाद लगातार तीन घंटे इन खिलाड़ियों के साथ वे इस तरह अपना पसीना बहाते हैं, मानो कि वे खुद ओलिंपिक में भाग ले रहे हों.

बात यहीं खत्म नहीं होती. गोपीचंद उन गुरुओं में हैं, जो अपने शिष्यों को गुड़ खाने से मना करने से पहले खुद गुड़ खाना बंद करते हैं. सिंधु की आज की उपलब्धियां बहुत से युवाओं के लिए प्रेरणा और ईर्ष्या; दोनों का कारण बन सकती है. लेकिन वे शायद नहीं जानते कि इसके लिए गोपीचंद ने उनसे कितना कुछ क्या-क्या कराया है. सिंधु को चॉकलेट और हैदराबादी बिरयानी बहुत पसंद है. लेकिन वे उसके दर्शन तक नहीं कर सकतीं. बाहर का पानी पीना बिल्कुल बंद है. यहां तक कि यदि मंदिर का प्रसाद भी मिलता है, तो उसे खाने की सख्त मनाही है. डाइट पर यह नियंत्रण केवल सिंधु के लिए ही नहीं है, बल्कि उन्होंने अपने ऊपर भी लगा रखा है. पिछले तीन महीनों से उन्होंने भी चावल की गंध तक नहीं ली है. और अभी भी सिंधु के लिए आदेश है कि ‘‘वह मेरे साथ ही खाना खाएगी.’’

किसी भी खेल-संस्थान का यह आम आदर्श वाक्य होता है-दृढ़ निश्चय और कठिन परिश्रम. बहुत से संस्थानों में विश्व के वे श्रेष्ठ उपकरण भी होते हैं, जिनसे खिलाड़ियों को विश्व-स्तरीय प्रशिक्षण दिया जाता है. लेकिन उनमें जिस बात की सबसे बड़ी कमी होती है, वह है गोपीचंद जैसे गुरु की. पिछले तेरह सालों में ही अपने चरित्र की दृढ़ता और खेल के प्रति पूरे समर्पण के भाव से गोपी ने इस बैडमिंटन अकादमी को विश्व की श्रेष्ठतम अकादमी में परिवर्तित कर दिया है. ओलिंपिक 2012 में भारत के लिए बैडमिंटन का कांस्य पदक जीतने वाली साइना नेहवाल गोपीचंद की ही शिष्या रही हैं.

कहा जाता है कि गोपीचंद जब अपनी अकादमी में होते हैं, तो कोई उन्हें उनके अपने विचारों से जरा भी हिला-डुला नहीं सकता. वे अपने खिलाड़ियों को इस तरह सिखाते हैं, मानो कि वे किसी बच्चे को सिखा रहे हों. यहां उल्लेखनीय है कि उनकी बेटी गायत्री अंडर-13 की बैडमिंटन चैम्पियन है और गोपीचंद ने अपनी इस बेटी को इस काम में लगा रखा था कि वह सुबह जल्दी आकर सिंधु को नेट की प्रैक्टिस कराए. जाहिर है कि वे किसी को नहीं छोड़ते, यहां तक कि खुद को भी नहीं.

महाभारत में एक प्रसंग आता है. गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने अपने पिता से इस बात की शिकायत की थी कि आप जितनी अच्छी तरह से अर्जुन को सिखाते हैं, उतनी अच्छी तरह से मुझे नहीं सिखाते. इस पर द्रोणाचार्य ने उत्तर दिया था कि तुम्हारे पास अर्जुन वाला भाव नहीं है, तो मैं तुम्हें सिखाऊं कैसे? सिंधु के पास अर्जुन वाला भाव है. पिछले बारह सालों से वे अपने इस गुरु से सीख रही हैं और इस बारे में वे बहुत साफ-साफ कहती हैं कि ‘‘मैंने अभी तक जो कुछ भी सीखा है, उन्हीं से सीखा है और मैं उनके एक-एक शब्द का आंख मूंदकर पालन करती हूं.’’

दरअसल सवाल सिखाने और सीखने की तकनीक का उतना नहीं होता जितना कि सीखने और सिखाने की भावना का होता है. और यह भावना जितनी सिंधु के पास है, उससे कम गोपी के पास नहीं. गोपीचंद की इस भावना को उनके इन शब्दों में महसूस किया जा सकता है कि ‘‘मैं जो कुछ भी करता हूं, उससे प्यार करता हूं. मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं कि मुझे वह करने का मौका मिला, जो मैं करना चाहता था.’’

ऐसा लगता है कि निश्चित रूप से गोपीचंद और पीवी सिंधु की गुरु-शिष्य की यह जोड़ी अब खेल जगत में नए प्रतिमान स्थापित करेगी. इसके लिए गुरु एवं शिष्य; इन दोनों की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम ही होगी, क्योंकि उनकी यह सफलता केवल खेलों की सफलता की ही राह नहीं दिखाती है, बल्कि ज़िंदगी की भी सफलता की राह दिखाती है. यह एक सुखद संयोग है कि गोपीचंद को जहां द्रोणाचार्य अवार्ड मिला है, वहीं सिंधु को अर्जुन अवार्ड.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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