बिहार की 10 सीटों पर चुनाव हुए। इसी साल मई में हुए लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें तो इसमें से आठ सीटों पर बीजेपी-एलजेपी गठबंधन आगे था, जबकि दो सीटों पर कांग्रेस। नतीजों के बाद, या कहें लोकसभा चुनाव के 100 दिन के भीतर बीजेपी गठबंधन के पास मात्र चार सीटें हैं और लालू-नीतीश और कांग्रेस के पास छह सीटें। बीजेपी ने दो सीटें कांग्रेस से छीनी हैं।
नरकटियागंज और मोहनिया की सीटों पर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस आगे थी, मगर इस बार दोनों हार गई। यानि, कांग्रेस को इतराने की जरूरत नहीं है। खराब उम्मीदवार का चयन और गिरती साख अभी भी कांग्रेस की समस्या है। भले ही कांग्रेस ने बीजेपी से भागलपुर की सीट जीती है, क्योंकि बीजेपी भागलपुर की लोकसभा सीट भी हार चुकी है। छपरा में बीजेपी का उम्मीदवार तीसरे नंबर पर है, और वहां निर्दलीय उम्मीदवार दूसरे नंबर पर है, जबकि हाजीपुर में एक निर्दलीय देव कुमार चौरसिया ने 15,000 वोट लाकर बीजेपी की जीत आसान कर दी। यहां बीजेपी की जीत का अंतर 10,000 वोटों का है। लेकिन परबत्ता की सीट जेडीयू ने 40,000 वोटों के अंतर से जीतकर सबको चकित कर दिया। वहीं, बांका की सीट बीजेपी ने हजार वोटों के अंतर से जीती।
इसका मतलब क्या है राजनैतिक रूप से? क्या लालू−नीतीश को पास किया जाए या नहीं। फौरी तौर पर इस नतीजे में लालू-नीतीश के साथ-साथ नरेंद्र मोदी की भी जीत है। जहां मोदी का चेहरा जनता के सामने नहीं था, बीजेपी हांफती नजर आई। और तो और, कर्नाटक में बीजेपी बेल्लारी का गढ़ हार गई और येदियुरप्पा की सीट पर उनके बेटे की जीत का अंतर भी कम हो गया। यानि, अब जो राजनैतिक हालात बीजेपी में बन गए हैं, उनमें मोदी ही हर मर्ज़ की दवा हैं। और अब देश की राजनीति में भी एक ध्रुवीकरण देखने को मिल सकता है।
यदि लालू और नीतीश अपना वजूद बचाने के लिए एक हो सकते हैं, तो कई ताकतें अब मुलायम और मायावती के पीछे भी लगेंगी कि उन्हें इकट्ठा किया जाए। अभी उत्तर प्रदेश में चुनाव होने में वक्त है, और तब तक राजनीति में कुछ भी हो सकता है। सब कुछ निर्भर करेगा कि क्या सोनिया गांधी किसी तरह के सूत्रधार की भूमिका उत्तर प्रदेश में निभाना चाहती हैं या नहीं।
इस उपचुनाव की एक सीख पंजाब से भी है। यहां कांग्रेस ने पटियाला की सीट जीती है और तलवंडी साबो की सीट अकालियों ने, मगर सीख अरविंद केजरीवाल के लिए है, क्योंकि पटियाला से आम आदमी पार्टी के धर्मवीर गांधी यहां से सांसद हैं और उनकी पार्टी का विधानसभा उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा पाया है।
लोकसभा चुनाव 2014 में पंजाब से आम आदमी पार्टी के चार सांसद जीते थे, और अब 100 दिन के भीतर विधानसभा उपचुनाव में जमानत बचानी भी मुश्किल हो गई। कहने को तो ये उपचुनाव के नतीजे हैं, मगर इसके मायने को नजरअंदाज न करें। राजनीति में, हर चुनाव में जनता कुछ संदेश देती है, और ज़रूरत है उसे समझने की। जैसे, यह कहना गलत होगा कि बिहार की उच्च जातियां बीजेपी के साथ हैं, क्योंकि अगर यह सच होता तो जेडीयू के रामानंद प्रसाद सिंह, जाले से ऋषि मिश्रा, छपरा से रंधीर कुमार सिंह और कांग्रेस से अजीत शर्मा नहीं जीतते।