विज्ञापन
This Article is From Jun 09, 2018

एक‌ ई-मेल और कई‌ सवाल

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 09, 2018 16:22 pm IST
    • Published On जून 09, 2018 16:21 pm IST
    • Last Updated On जून 09, 2018 16:22 pm IST
भीमा कोरेगांव हिंसा के नाम पर दिल्ली, नागपुर और मुंबई से 5 लोगों की गिरफ़्तारी के बाद जिस प्रतिरोध की उम्मीद थी, वह अचानक जैसे मंद पड़ गया है. दरअसल, पुलिस ने इस दौरान एक चिट्ठी निकाल ली जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या का इरादा जताया गया था. किसी कॉमरेड प्रकाश को किसी आर- जिसे रोनी विल्सन कहा जा रहा है- की ओर से भेजे गए इस ईमेल में कहा गया है कि मोदी ने पंद्रह राज्यों में बीजेपी की सरकार बनवा दी है. अगर यही चलता रहा तो हम बर्बाद हो जाएंगे. इसलिए जिस तरह राजीव गांधी की हत्या हुई थी, उस तरह नरेंद्र मोदी को भी मार दिया जाए.

कहना मुश्किल है, यह किसी एक आदमी की अपनी ख़ामख़याली या कट्टरता थी या इसे समूह का वैचारिक समर्थन भी हासिल था- क्योंकि अभी तक इस चिट्ठी के अलावा पुलिस ने ऐसा कोई सबूत नहीं पेश किया है जिससे पता चले कि इस इरादे को बाक़ायदा साज़िश की शक्ल दी जा रही थी. लेकिन यह चिट्ठी आते ही इन गिरफ़्तारियों पर उठ रहे सवालों पर जैसे ताला लग गया. इसकी दो वजहें साफ़ हैं- एक तो संभवतः यह डर कि इस चिट्ठी के आधार पर सरकार बहुत सख्त कार्रवाई कर सकती है और इसकी गाज़ उन लोगों पर भी गिर सकती है जो इन लोगों के समर्थक या हमदर्द नज़र आएं. लेकिन दूसरी और ज्यादा बड़ी वजह यह है कि आधुनिक लोकतांत्रिक भारत का जो संस्कार बना है, उसमें कई तरह की बेईमानियों की जगह है, हिंसक प्रदर्शनों की भी, लेकिन राजनीतिक हत्या का खयाल अब भी हमें डरावना लगता है.

किसी लोकतंत्र के भीतर किसी आवाज़ को दबाने के लिए उसकी हत्या की जाए- यह हमें मंज़ूर नहीं है. शायद इस विचार की यह अस्वीकार्यता भी है जिसकी वजह से ये गिरफ़्तार लोग अलग-थलग पड़ गए हैं. लेकिन इस सिलसिले में दो बातें और करनी ज़रूरी हैं. क्या किसी व्यक्ति को मार कर उसकी विचारधारा को ख़त्म किया जा सकता है? जिस साल आतंकवादियों ने इंदिरा गांधी की हत्या की, उस साल कांग्रेस-समर्थक लोगों के बहुत नृशंस व्यवहार और क़रीब 3000 लोगों की हत्या के बावजूद देश भर से कांग्रेस को व्यापक समर्थन मिला- इतना बड़ा समर्थन आज तक किसी और को नहीं मिला. अगर आप नरेंद्र मोदी को परास्त करना चाहते हैं तो उन्हें अंततः इसी लोकतांत्रिक दायरे में परास्त करने का रास्ता खोजना होगा. नहीं तो नरेंद्र मोदी को मार कर आप ऐसी अमरता प्रदान कर देंगे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती.

जाहिर है, नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ भी राजनीतिक लड़ाई लड़नी होगी. माओवादी छापामार युद्ध एक दौर में चाहे जितने आकर्षक लगते रहे हों, राष्ट्र राज्यों की बढ़ती ताकत धीरे-धीरे उनको बेमानी बना रही है- बल्कि माओवादी हिंसा एक तरह से राज्य की हिंसा को वैधता देती है, बल्कि उसकी कहीं ज़्यादा बड़ी हिंसा से लोगों को आंख मूंदने की छूट भी देती है. लेकिन अब ख़तरा दूसरा है. एक चिट्ठी को आधार बनाकर पुलिस प्रतिरोध की हर आवाज़ को दबाने का रास्ता न खोजने लगे. क्योंकि इस चिट्ठी से पहली दुर्घटना यह हुई है कि भीमा कोरेगांव हिंसा के वास्तविक गुनहगारों का सवाल पीछे छूट गया है. पुलिस फिलहाल जिन लोगों को गिरफ़्तार कर रही है, वे वहां हो रहे कार्यक्रम से जुड़े लोग थे. वहां गड़बड़ी उन लोगों ने की जो नहीं चाहते थे कि ऐसा कोई कार्यक्रम कामयाब हो. लेकिन वे सब लोग आज़ाद घूम रहे हैं और भीमा कोरेगांव से जुड़े जो लोग पकड़े जा रहे हैं, उन्हें माओवादी बताया जा रहा है.

यह हाल के ताज़ा चलन की भी सूचना है. जो सरकार विरोधी हो, उसे माओवादी बता दो. इस आधार पर आप कहीं दलितों को घेरते हैं, कहीं गांधीवादियों को, कहीं बाज़ार-विरोधियों को, कहीं उन सामाजिक कार्यकर्ताओं को जो मानवाधिकार में अपनी सहज आस्था से यह महसूस करते हैं कि नक्सल कहे जाने वाले इलाक़ों में माओवाद को रोकने के नाम पर जो नाजायज़ हिंसा हो रही है, उसका विरोध ज़रूरी है. लेकिन यह ताजा चलन किसी शून्य से नहीं, एक डर से पैदा हुआ है. यह बहुत स्पष्ट है कि कभी कांग्रेस से मायूस और अब बीजेपी से नाराज़ रही शक्तियां तरह-तरह से एकजूट होने की कोशिश कर रही हैं. नीले और लाल को मिलाने की कोशिश, जय भीम को जयश्रीराम के मुक़ाबले खड़ा करके उसे लाल सलाम से जोड़ने की कोशिश, खेती-किसानी, बेदख़ली और ज़मीन की मिल्कियत और खदानों-पर्यावरण की फिक्र के अलग-अलग बिंदु मिलकर वह वैचारिक रेखा बना रहे हैं जो बीजेपी के लिए लक्ष्मण रेखा साबित हो सकती है.

अंबेडकरवादी, मार्क्सवादी, तरह-तरह के समाजवादी अब कहीं ज़्यादा मज़बूती से गोलबंद हो रहे हैं. अभी यह गोलबंदी छोटी है क्योंकि अभी इसके मुकाबले राष्ट्रवाद का खुमार और विकास का भरोसा कहीं ज़्यादा बड़ा है. लेकिन एक बार वह भरोसा कमज़ोर पड़ा और ख़ुमार उतरा तो संभव है, बहुत सारे लोग विकल्प के लिए इस तरफ भी आएंगे. यह विकल्प तैयार करने की जगह नरेंद्र मोदी को मार कर बीजेपी के वर्चस्व का ख़ात्मा करने की भोली ख़ामखयाली दरअसल विकल्प की इस संभावना को नुक़सान ही पहुंचाएगी. इसलिए अगर वाकई ऐसी कोई चिट्ठी लिखी गई है तो उसकी तीखी आलोचना ज़रूरी है- सिर्फ रणनीतिक सयानेपन के लिहाज से नहीं, इस नैतिक और मानवीय समझ के हिसाब से भी कि अंततः सच्चा लोकतंत्र ऐसी हिंसा के निषेध से ही बनेगा. 

लेकिन इसी लोकतंत्र का तकाज़ा है कि हम उन लोगों के हक़ का सवाल भी उठाएं जिन्हें पुलिस किन्हीं और मक़सदों से, किन्हीं और इशारों पर, घेरने-फंसाने का उपक्रम कर सकती है. यह बहुत मुश्किल समय है, संभव है और भी मुश्किल समय आए, लेकिन इम्तिहान की घड़ियां यही होती हैं.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

 

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com