महाराष्ट्र के किसानों की कहानी लिख लिखकर अब मैं ये भूलने लगा हूं कि किस मौसम में क्या-क्या गड़बड़ हुई थी। अभी जब ओले और बारिश की ख़बर लिखी जा रही है तो महज़ एक महीने पहले ये कहानी लिख रहा था कि जाड़े में पड़े सूखे ने कैसे किसानों को मौत के मुंह में धकेल दिया है। मैं अब कबूल करता हूं कि किसान के दर्द को बयां करने वाले जितने भी मुहावरे मैं लिख सकता था लिख चुका हूं। अब हमसे कोई नए मुहावरे की उम्मीद न करें। मैं कबूल करता हूं कि हर दिन चार किसानों की मौत के आंकड़े अब किसी को नहीं चौंकाते। किसानों की कहानियों में अब मौत का नंबर सिर्फ एक फुट नोट है, जिसे किसी एक रिवाज़ की तरह महाराष्ट्र के पत्रकार लिख रहे हैं। मैं भी उनमें से एक हूं।
नाउम्मीदी का आलम देखिये कि जिस दिन हम नासिक में फसल बर्बादी की कहानी लिख रहे थे, ठीक उसी दिन मेरी एक पूर्व सहयोगी मराठवाड़ा में उन किसानों की हालात बयां कर रही थीं, जिनके घर में महिलाओं को सुबह तीन बजे उठ कर पानी लाने जाना पड़ता है। सूखे के हालात ऐसे हैं कि पीने का पानी भी मयस्सर नहीं।
मुझे नहीं मालूम कितने लोग खड़ी फसल पर ओले गिरने के तुरंत बाद गांव जाते हैं या नहीं... लेकिन पिछली बार से इस दफा तक जहां के समाचार लिए रोते बिलखते किसानों की आवाज़ सुनाई दीं। मरहम लगाने के नाम पर कुछ दौरे होंगे, मुआवज़े की एक हेडलाइन दो दिन छपेगी और काम खत्म! मैं बार बार सोचता हूं कि अगर इतना ही बड़ा संकट अगर किसी उद्योग धंधे पर होता, कोई औद्योगिक आपदा आती तो हमारी सरकारें ऐसे ही व्यवहार करती?
मैं सरकारों को बार-बार इसलिए खींच कर लाता हूं, क्योंकि वह राहत पैकेज के नए-नए आंकड़ें लेकर आती है और मैं ये भूल जाता हूं कि पिछली आपदा का कौन सा पैकेज था और नए संकट का कौन सा है। 2005 में विदर्भ के संकट पर राज्य की सरकार ने 1075 करोड़ का पैकेज तैयार किया। सात महीने फाइल पर बैठी रही। जुलाई 2006 में तब के प्रधानमंत्री मनमोहन आये तो एक नए पैकेज की घोषणा कर दी। अब की बार भारी भरकम आंकड़ा पौने चार हज़ार करोड़ का दे दिया। पूछा कि पिछले मुआवज़े का क्या हुआ तो कहा इसमें जोड़ तो दिया है। दो साल इस पैकेज़ का कोई नामो निशान नहीं था। ऐसे में कौन फुरसत निकालता कि सरकार से ये पूछे कि पिछले आंकड़े का क्या हुआ? कहां गया मुआवज़ा? किस-किस को मिला और कैसा मिला?
साल 2013 में भी महाराष्ट्र में सूखे का संकट आया, पैकेज मिला 400 करोड़ का असल में बंटा 158 करोड का। सरकार कह रही थी कि क्या करें, मुआवज़ा उनको देंगे जिनके पास पैदावार के दस्तावेज़ होंगे। मुआवज़े का ऐलान तो 2014 के ओलों के बाद भी हुआ, तब रबी की फसल गई थी। चुनाव थे, इसलिए सरकार सक्रिय थी, 4000 करोड़ का पैकेज दिया। लेकिन किसान कि किस्मत देखिए सिर्फ 2800 करोड़ ही बंट पाए। बाकी का हिसाब आना बाकी है।
ऐसे मुआवज़ों और पैकेज़ के बीच मैं सच में याद नहीं करना चाहता कि कितने किसान जान दे चुके हैं... मुझे याद नहीं करना कि हर बार जब महाराष्ट्र के गांवों में संकट आता है तो कैसे मुंबई की सड़क पर मुझे परेशान किसान मजदूरी मांगते दिखते हैं। मैं भूल जाना चाहता हूं कि जिस अनाज से मेरा पेट भरता है उसे पैदा करने वाले का पेट भरा है कि नहीं।
This Article is From Mar 23, 2015
अभिषेक शर्मा की कलम से : मैं किसान, क्या भूलूं, क्या याद करूं?
Abhishek Sharma, Saad Bin Omer
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Updated:मार्च 23, 2015 22:03 pm IST
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Published On मार्च 23, 2015 21:46 pm IST
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Last Updated On मार्च 23, 2015 22:03 pm IST
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