पूरी दुनिया में हो रहे चुनावों या कुछ वक्त पहले हुए चुनावों में जो कुछ हो रहा है उसके कुछ उदाहरण -
- लोकसभा चुनाव में गृह मंत्री अमित शाह का वीडियो वायरल किया गया. बीजेपी ने इसे डीप फेक बताया.
- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें वे दिवाली की शुभकामना दे रहे थे. यह वीडियो आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस से बना था.
- राहुल गांधी के कई वीडियो या तो एडिट किए गए या फिर उनको एआई की मदद से सच बताने की कोशिश हुई.
- ताइवान के चुनावों में एक आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस ऑडियो आया. उसमें एक उम्मीदवार जो दावा कर रहे थे वह उनकी पहले ली हुई राजनीतिक लाइन से अलग था. चुनाव में बवाल मच गया.
- बांग्लादेश में मुख्य विपक्षी दल की महिला नेता की बिकनी में फोटो चुनाव के वक्त वायरल हुई. जिसे कई लोगों ने सही मान लिया. यह आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस का कमाल था.
- दक्षिण अफ्रीका में एक मशहूर रैपर का वीडियो वायरल हुआ जिसमें वह मुख्य विपक्षी दल के समर्थन में बात कर रहे थे. यह वीडियो चुनाव में AI का इस्तेमाल था.
वर्ष 2024 में करीब 50 देशों में चुनाव हो रहे हैं. भारत भी उनमें से एक है. चुनाव में आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस (AI) के इस्तेमाल को लेकर अब दुनिया भर में चिंताएं हैं. सबसे ज्यादा डर चीन जैसे देशों से है, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उसके निशाने पर भारत, अमेरिका और दक्षिण कोरिया जैसे देशों के चुनाव हो सकते हैं. चुनाव में भावनाएं भड़काने और उम्मीदवारों के खिलाफ माहौल बनने में आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस को लेकर जो खतरे जताए जा रहे थे अब उनका असर दिख रहा है.
एआई (AI) तकनीक को लेकर भारत के चुनाव आयोग ने अब तक कोई नियम नहीं बनाए हैं. एआई कैसे-कैसे चुनाव पर असर डाल सकता है, इसको लेकर ठीक ठीक किसी के पास रिपोर्ट नहीं है. जो एआई तकनीक में काम कर रहे हैं उनके पास लगातार आ रहे काम यह बताने के लिए काफी है कि किस तरह आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस को लेकर स्थानीय उम्मीदवारों से मांग आ रही है.
अमेरिका के चुनाव आने वाले हैं. वहां इस वक्त एआई के चुनावी इस्तेमाल को लेकर कोई कानून नहीं आया है लेकिन उम्मीदवार से जुड़ी गाइडलाइन जरूर आ गई हैं. वहां उम्मीदवार को अगर किसी भी एआई के जरिए गलत तरीके से पेश किया जाता है तो इस पर रोक लग गई है. चुनाव प्रक्रिया से जुड़े लोगों को इससे आगाह किया जा रहा है. पूरी दुनिया में लोकतंत्र के लिए लड़ रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि एआई के इस्तेमाल से उन्माद, झूठ को सच बनाने जैसे काम तेजी से होंगे और इसे रोकने के लिए कोई ठोस पहल हर जगह करनी होगी. एआई तकनीक में लगी कंपनियां इस वक्त अपना रोना रो रही हैं. वो कह रही हैं कि ओपनसोर्स यानी सार्वजनिक जानकारियों के आधार पर काम करने वाले एआई के सोर्स का पता लगाना बेहद मुश्किल है. लगभग सारे प्लेटफॉर्म इसे लेकर हाथ खड़े कर चुके हैं. अमेरिका में ये बहस तेज हुई है कि कैसे ऑडियो-वीडियो के गलत इस्तेमाल को चुनाव में रोका जाए. जानकार कह रहे हैं कि इस साल के अंत तक तो वहां भी इससे जुड़ा कोई कानूनी मसौदा आएगा, ऐसा लगता नहीं है.
इस कानून का विरोध ओपनसोर्स मॅाडल वाली कंपनियां सबसे ज्यादा कर रही हैं. ऐसा माना जा रहा है कि बड़ी तकनीक कंपनियां अपनी-अपनी सरकारों पर भी यह दबाव बनाए हुए हैं कि कानून को इस रूप में मंजूरी न मिले. अगर सब कुछ ठीक रहा और सरकारें बीच का रास्ता निकाल भी लें तो यह तय है कि अगले 2-3 साल में भी ऐसा कानून नहीं बन पाएगा जो पूरी दुनिया को रास्ता दिखा सके. लोकतांत्रिक व्यवस्था तब तक कैसे काम चलाएंगी, यह अब भी सवाल बना हुआ है.
सवाल तो यह भी है कि दूसरे देशों के चुनावों में दखल देने के तरीकों से पूरी दुनिया कैसे निपटना चाहती है. कई जानकार कह रहे हैं कि एआई के चुनाव में इस्तेमाल को लेकर अभी बात करना जल्दबाजी होगी. लेकिन वे तमाम लोग इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं कि भारत जैसे देश में तकनीक का प्रसार तेजी से हुआ है और अभी ऐसे लाखों लोग हैं जो यह फर्क नहीं कर सकते कि क्या एआई से बनाया गया है और क्या नहीं. एआई का चुनाव में उपयोग कोई दूर की कौड़ी नहीं है. यह लगातार काम में लाया जा रहा है. वक्त पर कदम न उठाए तो यह तूफान लोकतंत्र की कई परतों को उखाड़ फेंकेगा. चुनाव में भरोसा बना रहे इसके लिए भी जरूरी है कि एआई पर चुनाव आयोग नजर रखे.
अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं... वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं...
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