2005 की बात है. हैदराबाद में हॉकी के नए अवतार ने जन्म लिया था. प्रीमियर हॉकी लीग. उसी समय दिल्ली में भारतीय हॉकी फेडरेशन यानी आईएचएफ की बैठक थी. हैदराबाद में मैच के बीच अचानक कोई आया. उसने सवाल किया – यार, ये नरिंदर बत्रा कौन हैं? वजह पूछने पर पता चला कि एक आईएचएफ की बैठक में नरिंदर बत्रा ने खुलेआम आईएचएफ अध्यक्ष केपीएस गिल का विरोध किया है. भले ही गिल उतने शक्तिशाली नहीं रह गए थे. फिर भी सार्वजनिक तौर पर उनका विरोध आसान नहीं था.
उससे पहले बत्रा ने भले ही बचपन और जवानी में हॉकी खेली हो, आईएचएफ के साथ रहे हों, दिल्ली क्रिकेट के साथ उनका जुड़ाव रहा हो. लेकिन आम हॉकी प्रेमियों से उसी दिन उनका परिचय हुआ था. 2005 में आम लोगों को अपना परिचय इस तरह देने वाला यह शख्स आज दुनिया की हॉकी पर राज करने पहुंच गया है. डॉ. नरिंदर ध्रुव बत्रा इंटरनेशनल हॉकी फेडरेशन (एफआईएच) के अध्यक्ष बन गए हैं. उन्होंने 118 में से 68 वोट अपने नाम करके जीत हासिल की है.
यह वही हॉकी है, जहां हम करीब तीन-चार दशकों तक इस बात के लिए रोते रहे कि दुनिया में हमारी कोई पूछ नहीं है. रोते रहे कि हर कोई एशिया के खिलाफ है. रोते रहे कि सिंथेटिक टर्फ लाकर भारतीय हॉकी को खत्म कर दिया. उस हॉकी की दुनिया पर अब एक भारतीय राज करेगा. सिर्फ एक भारतीय ही नहीं, पहली बार कोई एशियाई है, जो एफआईएच में अध्यक्ष की कुर्सी पर पहुंचा है. आईसीसी में भारत का दबदबा रहा है. स्क्वॉश में भारतीय अध्यक्ष रहा है. लेकिन हॉकी में भारत का कभी बड़ा असर नहीं था. बत्रा अक्सर कहते थे, ‘मुझे समझ नहीं आता कि हम रोते क्यों हैं. बाजार हमारे पास बड़ा. स्पॉन्सर यहीं से आते हैं और चलती बाकियों की है. हमने अपना दबदबा जमाने की ढंग से कोशिश ही नहीं की कभी.’
2008 में भारतीय टीम पहली बार ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई कर पाने में नाकाम रही. यहीं से आईएचएफ के अंत की शुरुआत हुई. कुछ समय के लिए एडहॉक कमेटी बनी. उसके बाद जब हॉकी इंडिया का गठन हुआ, तब नरिंदर बत्रा इसके सबसे शक्तिशाली नाम थे. अध्यक्ष भले ही मरियम्मा कोशी हों, लेकिन हॉकी इंडिया में सब कुछ उनकी मर्जी से होता है. उनके काम को नजदीक से देख चुके एक शख्स कहते हैं, ‘बत्रा जी की नजर हर चीज पर होती है. आप उनसे कुछ छुपा नहीं सकते. ना ही, उनकी मर्जी के खिलाफ कुछ कर सकते हैं. वह तानाशाह की तरह काम करते हैं. लेकिन शायद हॉकी को इस समय तानाशाह की जरूरत है.’
बत्रा ने हॉकी से जुड़ा पहला काम किया इसकी पैकेजिंग और मार्केटिंग का. उन्हें पता था कि आज की दुनिया विज्ञापन से जुड़ी है. इसमें बेहतर पैकेजिंग ही आपके खेल को बड़ा बना सकती है. पहाड़गंज के होटलों या नेहरू स्टेडियम से भारतीय टीम अब कम से कम तीन या चार सितारा होटलों तक पहुंच गई थी. अब इस टीम को नेहरू स्टेडियम के हॉस्टल नुमा कमरों में रहने की जरूरत नहीं थी, जहां हर दूसरे दिन पूरी टीम नजदीक के मैक्डॉनल्ड्स में अपनी भूख मिटाती नजर आती थी.
टीम के साथ सपोर्ट स्टाफ के नाम पर अब कोच, ट्रेनर से लेकर हर कोई था. कोई खिलाड़ी अब यूं ही जंक फूड खाता नहीं दिख सकता था. 2012 ओलिंपिक के लिए भारत ने क्वालिफाई किया. हालांकि हम 12वें नंबर पर आए. यह साफ था कि माइकल नॉब्स जैसा कोच भारत को टॉप तक नहीं पहुंचा सकता. कोच बदले, हाई परफॉर्मेंस डायरेक्टर के तौर पर रोलंट ओल्टमंस आए. 2012 से 2016 के बीच भी कोच बदले. इस दौरान भी उन पर मनमाने तरीके के आरोप लगे. चाहे टेरी वॉल्श हों या पॉल वान आस, दोनों ने उन पर आरोप लगाए. लेकिन अच्छी बात रही कि ओल्टमंस बने रहे और फिर उनको ही चीफ कोच बना दिया गया. टीम की सुविधाओं में कोई फर्क नहीं आया. निरंतरता का नतीजा है कि भारत ने 2014 का एशियाड, वर्ल्ड लीग फाइनल्स, चैंपियंस ट्रॉफी के पदक और हाल ही में एशियन चैंपियंस ट्रॉफी का खिताब जीता है.
हॉकी टीम अब सुविधाओं के अभाव का रोना नहीं रोती. अब हॉकी की चर्चा इसलिए नहीं होती कि पैसे नहीं हैं. इस नेगेटिव सोच को खत्म करने का श्रेय बत्रा को जाता है. प्रोफेशनल तरीके से फेडरेशन चले, इसलिए एक ऑस्ट्रेलियन एलेना नॉर्मन आईं. सीईओ के काम करने के स्टाइल पर कहा जाता है कि हॉकी इंडिया के ऑफिस का दरवाजा खोलने से बंद होते समय तक एलेना वहां होती हैं. उनके लिए काम के घंटों का कोई हिसाब नहीं होता. जो हिसाब रखना चाहता है, वो फिर हॉकी इंडिया के साथ नहीं रह पाता.
भारतीय हॉकी को सुधार के लिए इसी शिद्दत की जरूरत थी. हॉकी इंडिया लीग आई. पश्चिमी देशों के जो खिलाड़ी भारत आने में ना-नुकुर करते थे, सब भारतीय सरजमीं पर थे. अब उन्हें यहां की मेहमाननवाजी भाने लगी थी. यह पैसों के सही इस्तेमाल का नतीजा था. सारी दुनिया समझ गई है कि भारत से बड़ा बाजार हॉकी के लिए नहीं है. उस बाजार को सही तरीके से पेश करने का काम बत्रा ने किया है.
इस दौरान एक व्यक्तिगत ट्रैजेडी भी हुई, जिसके बाद नरिंदर बत्रा ने अपने नाम के बीच अपने बेटे का नाम लगा लिया. पूरा परिवार मोरक्को घूमने गया था, जहां उनके बेटे ध्रुव की मौत हो गई. उस वक्त यह आशंका थी कि वह दुख कहीं नरिंदर बत्रा के जुनून पर भारी न पड़ जाए. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बेटे का नाम जरूर उन्हें अपने नाम के बीच जोड़ लिया.
डीडीसीए में उनकी भूमिका को लेकर तमाम लोग सवाल उठाते हैं. वित्त मंत्री अरुण जेटली से नजदीकियों को लेकर तरह-तरह की बातें होती हैं. लेकिन तमाम आरोपों की बत्रा ने कोई परवाह नहीं की है. भारतीय हॉकी को उन्होंने अलग मुकाम दिया है. ऐसी ताकत दी है, जिससे शायद अब कोई यह कहता नहीं मिले कि पश्चिमी देश हमारे खिलाफ काम करते हैं. वह ऐसी सोच को हॉकी में लेकर आए, जो अब तक क्रिकेट के साथ ही जुड़ी थी. उन्हें आप पसंद कीजिए, चाहे नापसंद कीजिए. लेकिन एक बात माननी पड़ेगी कि वह एक ऐसे शख्स हैं, जिसने हॉकी को बदल दिया है. भारत में भी... और दुनिया में भी.
शैलेश चतुर्वेदी वरिष्ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार हैं...
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                            This Article is From Nov 12, 2016
एक शख्स, जिसने बदल दी हॉकी की दुनिया
                                                                                                                                                                                                                        
                                                                शैलेश चतुर्वेदी
                                                            
                                                                                                                                                           
                                                
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                                                                            Published On नवंबर 12, 2016 21:36 pm IST
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