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This Article is From Aug 12, 2017

कब हार मानी होगी गोरखपुर के अस्पताल में बैठे उस पिता ने...

Kranti Sambhav
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 12, 2017 21:19 pm IST
    • Published On अगस्त 12, 2017 21:18 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 12, 2017 21:19 pm IST
बच्चा दिमाग़ कई विडंबनाओं को देखकर उलझ जाता है. ऐसे ही किसी एक याद ना आने वाली बारीक़ी को जब समझने में दिक्कत हो रही थी तो मुझसे ठीक बड़ी बहन ने मुझसे कहा कि मां बनोगे तो समझोगे. पूरा परिवार इस पर हंसा और ये पारिवारिक क़िस्सा बन गया. मेरी बहन जो मुझसे बड़ी होने के बावजूद छोटी ही थी उसने दरअसल ये जवाब मेरी मां से उधार लिया था. क्योंकि मेरी मां का तकिया कलाम था, जब तुम लोग मां बनोगे तो समझोगे मां का दर्द. मैं मां तो नहीं बना, कभी महत्वाकांक्षा भी नहीं थी, पर पिता बना. पिता बनने के बावजूद दर्द का एहसास किया. और फिर ये भी महसूस किया कि ये वो दर्द है जो तभी महसूस किया जा सकता है जब एक शिशु अपना पूरा अस्तित्त्व आपके इर्द-गिर्द बुनता है, बनाता है और पूरी तरह से आप पर ही निर्भर करता है. एक एक सेकेंड. और इंसान को बदल देता है. मैं भी बदला. संवेदना पहले भी थी, पर पिता बनने के बाद संवेदना जितनी व्यापक हुई वो मैंने कभी सोचा नहीं था.

शुरुआत एक शिशु के लिए चौबीस घंटे की चिंता के साथ हुई थी, पर धीरे धीरे वक़्त के हिसाब से तो कम होती है पर चिंता का दायरा फैलता जाता है. सड़क पर खेलने वाले बच्चों को आप किनारे जाने का इशारा करने लगते हैं, मॉल में छोटे बच्चे को अकेले देखकर तब तक उसके पास खड़े रहते हैं जब तक कि उनके माता-पिता पलट कर उनकी तरफ़ नहीं आ जाते. सीढ़ी किनारे खड़े किसी भी अनजान बच्चे को देखकर साकांक्ष हो जाते हैं कि कहीं वो लड़खड़ा ना जाए तो उस स्थिति में उसे पकड़ पाएं. बगल की कार में बच्चों को खिड़की से सर निकालते देखकर शीशा नीचे करके बच्चों को अंदर जाने का निर्देश देते हैं.

दरअसल बच्चा हमें बदल देता है और एक आदिम रूप में भी ले जाता है. जब पिता की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी बच्चों की रक्षा ही थी. और शायद यही शारीरिक मानसिक बनावट आज भी पिता की पहली प्राथमिकता बच्चों की रक्षा को ही बनाती है. किसी भी क़ीमत पर किसी भी ख़तरे से बच्चे को बचाने का भाव केवल भावना की वजह से नहीं बल्कि हज़ारों हज़ार साल की हमारी मानसिक-शारीरिक बनावट की वजह से भी आती है.

यही सब लिखते हुए मैं दरअसल उस पिता के दर्द की एक-एक बारीक़ी, उसकी तासीर को समझ सकता हूं, उसकी बेचारगी, उसकी उम्मीद, उसके गुस्से का अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर सकता हूं, जिसकी गोद में उसका चार दिन का बच्चा सांस के लिए तड़प रहा था. जिस बच्चे को गोरखपुर का अस्पताल वेंटीलेटर नहीं दे पाया. जिसके बाद पिता एक मेडिकल पंप या अंबू बैग से सांस देने की कोशिश करता रहा. पांच घंटे तक जो अपने बच्चे को ऑक्सीजन देने की कोशिश करता रहा. सोचने की कोशिश कर सकता हूं कि कैसे वो अपने नवजात बच्चे को बचाने में पांच घंटे में पता नहीं कितनी बार मरा होगा. कितनी बार उसने अपने बच्चे की छाती पर हाथ रखकर उसकी धड़कन महसूस करने की कोशिश की होगी. कैसे हर सेकेंड लड़ रहा होगा और हार रहा होगा. कैसे छोटे से शिशु के छोटे से नथुने को बार बार छूकर शायद जांचता होगा कि सांस चल रही है कि नहीं. और उसे कैसा लगा होगा जब बच्चे की सांसें टूट रही होंगी. कब उसने स्वीकार किया होगा कि अब वो बच्चा सांस और धड़कन के चक्र से कहीं दूर छूट चुका है. मुझे ये नहीं पता कि उस पिता ने कब हार मानी, कब उसे पता चला कि अब वो वापस नहीं आ पाएगा और क्या ये जानने की बाद भी उसने बैग से ऑक्सीजन देने की कोशिश तो नहीं की? एक थेथर, भोथरा हो चुकी उम्मीद के तहत? मुझे नहीं पता कि वो इंसान इस हार की याद को कभी धुंधला पाएगा कि नहीं? अपने बच्चे को ना बचा पाने की बेचारगी कब तक उसका पीछा करेगी? ये भी नहीं जानता कि बच्चे की टूटी सांसें उसे हारा हुआ महसूस करवा रही थीं, किस्मत को कोसने के लिए कह रही थीं या सिस्टम के लिए गुस्सा पैदा कर रही थीं? क्या उसके मन में नेताओं के वायदे आए होंगे? ऑक्सीजन सिलिंडर ढूंढा होगा या सिर्फ़ ये सोच रहा होगा कि यही उसकी नियति थी क्योंकि वो दिल्ली मुंबई में नहीं रहता है, ख़बरों की दुनिया से दूर रहता है? एक ऐसी ज़िंदगी जीता इंसान, जिसका जीवन भूला हुआ संघर्ष है जिसकी चर्चा अब निषिद्ध है.

मैं केवल अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर सकता हूं, पर उस अनजान पिता के दर्द को समझने की बात कह कर उसकी पीड़ा का अपमान नहीं करना चाहता. मैं तो ये सब लिखना भी नहीं चाहता था. ये भी नहीं बताना चाहता था कि ये ख़बर लिखते वक़्त मेरा मन कितना दुखा था. पर फिर भी पता नहीं किस थेथरई में लिख रहा हूं. शायद किसी अपराध बोध में लिख रहा हूं.

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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