वो दिन था 12 फरवरी 1994 का...पटना में गुनगनी धूप खिली हुई थी. एक अणे मार्ग यानी मुख्यमंत्री निवास में लालू यादव अपने कुछ करीबियों के साथ धूप सेंक रहे थे लेकिन ये वक्त उनके लिए सुकून का नहीं था. क्यों...आगे बताएंगे...लेकिन पहले ये जान लीजिए माजरा क्या था. लालू और उनकी टोली के पीछे एक सिपाही सादी वर्दी में खड़ा था और उसके वॉकी-टॉकी पर बार-बार आवाज आ रही थी. तभी लालू ने रौबदार आवाज में उस सिपाही से कहा- आया जी नीतीशवा? पता लगाओ कहाँ है? दरअसल उस दिन पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में कुर्मी चेतना रैली हो रही थी.
लोगों की भारी भीड़ जुटी थी. ये रैली लालू के विरोध में थी...खुफिया रिपोर्ट्स बता रही थी कि रैली बड़ी होगी लेकिन लालू इससे बेपरवाह थे...उनकी चिंता सिर्फ एक थी- इस मंच पर नीतीश दिखाई देंगे या नहीं. आइए जानते हैं पलटने के मामले में अनोखा रिकॉर्ड बना चुके बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बारे...आखिर कब उन्होंने पहली बार पलटी मारने का स्वाद चखा जो बाद में उनका फेवरेट एक्ट बन गया.
अब उस बात को आगे बढ़ाते हैं जो हमने आपसे शुरू में कही थी. 90 के दशक में लालू यादव बिहार की राजनीति के बेताज बादशाह थे. सूबे की सियासत में उनके नाम का सिक्का चलता था तो इसकी एक वजह नीतीश कुमार भी थे. नीतीश की ही मदद से लालू प्रसाद ने राम सुंदर दास को पछाड़ कर पहली बार 1990 में मुख्यमंत्री का पद हासिल किया था. हालांकि बाद के दिनों में दोनों के बीच तल्खी आने लगी.नीतीश के मन में चाहत उमड़-घुमड़ रही थी कि मेरी पहचान कैसे बनेगी? लेकिन उन्हें मौका नहीं मिल रहा था...
नीतीश को मौका मिला 1993 में. हुआ यूं कि लालू प्रसाद यादव ने मुंगेरी लाल कमेटी के द्वारा मिले आरक्षण के फॉर्मूले को छेड़ने का फैसला किया. तब बिहार में समाजवाद या यूं कहें मंडलवाद यादववाद में तब्दील हो गया था.इसी मौहाल में साल 1993 में नीतीश ने उन्हें चेताया- इस फॉर्म्युले से छेड़छाड़ गैर-यादव ओबीसी बर्दाश्त नहीं करेगा. फिर हवा उड़ी कि लालू कुर्मी-कोईरी को ही ओबीसी से बाहर करने का प्लान बना रहे हैं.
इसी हवा से बिहार की सियासत गर्मा गई. पूरे प्रदेश के कुर्मी-कोईरी समुदाय के नेता एक मंच पर जुटने लगे. नालंदा,बिहारशरीफ और बाढ़ के इलाके के नेता सतीश कुमार, भोलानाथ सिंह और ब्रह्मानंद मंडल ने मिलकर फैसला किया कि पटना में लालू के खिलाफ कुर्मी चेतना रैली करेंगे. ये रैली लालू के खिलाफ एक बगावत जैसी थी. नीतीश को इसका निमंत्रण मिला लेकिन उन्होंने हामी नहीं भरी.
लालू की ये चेतावनी नीतीश के कानों में गूंजने लगी लिहाजा वे फैसला नहीं ले पा रहे थे. आलम ये था कि पटना के गांधी मैदान में रैली शुरू हो चुकी थी और नीतीश कुमार थोड़ी दूर में मौजूद छज्जू बाग के अपने मंत्री आवास पर मंथन कर रहे थे- क्या किया जाए? नीतीश जान रहे थे यदि उनके कदम गांधी मैदान की ओर बढ़े तो फिर पीछे मुड़कर देखना संभव नहीं होगा. इसी उधेड़बुन में आखिरकार नीतीश ने रैली में शामिल होने का फैसला कर लिया क्योंकि वहां जनसैलाब बढ़ता ही जा रहा था और भला कोई नेता इतनी बड़ी भीड़ को इग्नोर कैसे करेगा? लिहाजा नीतीश आगे बढ़े लेकिन वे ये सोच कर मंच पर चढ़े की बीच का रास्ता अख्तियार करेंगे.
दोपहर तीन बजे के वक्त नीतीश ने भाषण की शुरुआत की. जिसमें उन्होंने लालू को डिफेंड करने की कोशिश की.तभी मंच की ओर कुछ लोगों ने चप्पल फेंक दिए. तब वहां मौजूद नेताओं ने नीतीश को समझाया कि बात साफ-साफ रहनी चाहिए. दूर-दूर से आए लोग टालमटोल बरदाश्त नहीं करेंगे. यही वो क्षण था जब नीतीश ने फैसला किया कि अब लालू से उनकी राह अलग होगी. उन्होंने मंच से लालू को ललकारा- जो सरकार हमारे हितों को नजरअंदाज करती है, वो सरकार सत्ता में रह नहीं सकती. हमें भीख नहीं, हिस्सेदारी चाहिए.
इस रैली के बाद नीतीश ने लालू से सालों पुराना संबंध तोड़ दिया और आठ महीने बाद जॉर्ज फर्नांडीस की अगुआई में समता पार्टी का गठन किया, हालांकि नीतीश को बिहार की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए 10 साल और इंतजार जरूर करना पड़ा. बीजेपी को साथ लेकर वे लालू के खिलाफ विरोध का झंडा बुलंद किए रहे.
इसके बाद जब साल 2013 में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया तो नीतीश ने बीजेपी से 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया. वे अपने पुराने सहयोगी लालू यादव के पास लौट आए. ये वक्त था साल 2015. हालांकि ये सियासी दोस्ती भी महज 20 महीने तक चली और साल 2017 में नीतीश कुमार ने फिर से पलटी मारी और बीजेपी के खेमे में चले गए. लेकिन ये गलबहियां भी ज्यादा वक्त नहीं चली...साल 2022 में नीतीश ने फिर पलटी मारी और RJD के साथ मिलकर महागठबंधन बना लिया. अब एक बार फिर माहौल ऐसा बन रहा है कि इंजीनियरिंग के स्टूडेंट रहे नीतीश कुमार बीजेपी के साथ आने के लिए पलटी मारने वाले हैं.