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This Article is From Apr 28, 2020

छात्रों और प्रवासी मज़दूरों की वापसी को लेकर नीतीश कुमार सही हैं या उनके आलोचक?

हक़ीक़त यह भी है कि आज बिहार के 25 लाख लोग फंसे हुए हैं और उनके घर लौटने की इच्छा को जैसे आपराधिक कदम नहीं माना जा सकता वैसे ही फ़िलहाल ना ज़मीन पर उनके जांच के लिए पर्याप्त किट हैं और ना उनको संक्रमण से बचाने के लिए कोई फॉर्मूला.

छात्रों और प्रवासी मज़दूरों की वापसी को लेकर नीतीश कुमार सही हैं या उनके आलोचक?
नीतीश कुमार के हर दिन मॉनिटरिंग का नतीजा है कि बिहार में अब तक 400 से कम मरीज़ हैं
पटना:

इन दिनों करोना बीमारी के बहाने ख़ासकर कोटा में फंसे बिहारी छात्रों और प्रवासी मज़दूरों के नाम पर जमकर बहस हो रही है और इस बहस के केंद्र में होते हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो अपने इस स्टैंड पर क़ायम हैं कि जब तक लॉकडाउन है तब तक वो अन्य राज्यों की तरह अपने छात्रों या दूसरे राज्यों में फंसे प्रवासी मज़दूरों को वापस नहीं लायेंगे. लेकिन उनके इस कदम का कुछ लोग स्वागत कर रहे हैं तो कुछ इसी आधार पर उन्हें कमजोर मुख्यमंत्री घोषित करने पर तुले हैं.

जब कोरोना का प्रकोप शुरू हुआ था तब सबसे पहले नीतीश ने अपने नज़दीकियों को बताया था कि इसका खतरा मुख्य रूप से दो श्रोतों से है. एक विदेश से आने वाले लोग और दूसरा प्रवासी मज़दूर. इसलिए जैसे ही मार्च महीने के तीसरे हफ़्ते में कुछ राज्यों से विशेष ट्रेनें बिहार के लिए चलना शुरू हुईं, नीतीश ने तुरंत रेल मंत्री पीयूष गोयल से बात कर ट्रेन सेवा ही नहीं बल्कि‍ केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी से बात कर विमान सेवा भी बंद करने का अनुरोध किया. और जब दोनों सेवा बंद हुई तो ट्वीट कर सार्वजनिक रूप से उन लोगों को धन्यवाद भी दिया.

ये भी सच है कि बिहार में शुरू के दो मरीज़ जिनसे सबसे ज़्यादा संक्रमण हुआ, उनमें से एक दुबई से और दूसरा कुवैत से लौटा था और इन दोनों की लापरवाही से क़रीब 60 लोगों में ये बीमारी फैली. एक मरीज़ की मौत भी हुई. बाद में ऐसा एक मरीज़ नीतीश कुमार के गृह ज़िले नालंदा में भी मिला जिसके चक्कर में 26 लोग संक्रमित हुए. इसके अलावा राजधानी पटना में जो पहली मरीज़ मिली वो भी विदेश से लौटी थी. इसलिए नीतीश कुमार की आशंका निर्मूल नहीं थी. लेकिन जैसे ही मार्च महीने के अंतिम हफ़्ते में दिल्ली से वहां के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और बग़ल के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सहयोग से बसों से प्रवासी मज़दूरों को वापस भेजा जाने लगा तो नीतीश कुमार ने इस पर सार्वजनिक रूप से अपना विरोध ये कह कर जताया कि यह लॉकडाउन के मूल उद्देश्य को पराजित कर देगा. लेकिन ग़नीमत की बात यह रही कि क़रीब दो लाख लोग आये उसमें एक भी व्यक्ति संक्रमित नहीं निकला. लेकिन इनके गांव में प्रवेश में कई जगहों पर ग्रामीणों के अच्छे खासे विरोध का सामना करना पड़ा. जिससे नीतीश कुमार को इस बार अंदाजा हो गया कि ग्रामीण इलाक़ों में लोग इस बीमारी के संक्रमण से डरे हुए हैं जिससे बाहर से लोगों को बुलाना और गांव में उनकी एंट्री कराना उतना आसान नहीं होगा.

लेकिन नीतीश कुमार के लिए असल मुश्किलें खड़ी कीं राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने जब योगी आदित्यनाथ ने ये घोषणा कर दी कि वो कोटा में फंसे अपने राज्य के छात्रों को वापस लाने के लिए सैकड़ों की संख्या में बसें भेजेंगे. और उन्होंने घोषणा ही नहीं की बल्कि 2 दिनों के अंदर अपने ही छात्रों को केवल नहीं बुलाया बल्कि उसमें बिहार के भी कई छात्र आए जिन्हें बिहार-उत्तर प्रदेश सीमा पर रोका गया. लेकिन छात्रों की संख्या को देखते हुए नीतीश कुमार ने उन्हें घर में क्वॉरेंटीन करने की शर्त पर जाने दिया. नीतीश की मुश्किलें केवल योगी आदित्यनाथ ने ही नहीं बढ़ायी बल्कि बिहार भाजपा के एक विधायक जो पार्टी के विधानसभा में मुख्य सचेतक भी है, अनिल सिंह ने अपनी बेटी को लाने के लिए न केवल अनुमति ली बल्कि इस पूरी प्रक्रिया को उत्साहजनक भी कर दिया जिसके कारण नीतीश कुमार की सरकार की अच्छी ख़ासी फ़ज़ीहत हुई. हालांकि अनुमति देने वाले SDO, गाड़ी चलाने वाले ड्राइवर से लेकर अनिल सिंह के दोनों अंगरक्षकों को भी निलंबित कर दिया गया. लेकिन BJP ने विधायक के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जिससे कोटा में फंसे छात्रों को ये कहने का बल मिला कि चूंकि वो किसी वीवीआईपी की संतान नहीं हैं इसलिए उनकी उपेक्षा की जा रही है. यहां भी योगी के इस कदम से असहमति जताते हुए नीतीश ने सार्वजनिक रूप से बयान दिया कि ये लॉकडाउन के सिद्धांत से अन्याय है. लेकिन पूरे देश में यह बहस शुरू हो गई जब पहली बार मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ अपने छात्रों और फिर प्रवासी मज़दूरों को वापस ला सकते हैं तो 4 बार से सत्ता में बैठे नीतीश कुमार आख़िर किन मजबूरियों से अपने ही फंसे हुए लोगों को वापस नहीं लाना चाहते हैं.

इस बीच बिहार में नए मामले सामने आने लगे जिसमें अधिकांश प्रवासी मज़दूर या वो लोग संक्रमित मिल रहे थे जो अपने संबंधी का इलाज करवाने बाहर गये लेकिन ख़ुद संक्रमित हो गये. नीतीश का अब दूसरा शक भी सच होने लगा. इसलिए जब सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने उन्होंने पूरी तैयारी कर ना केवल केंद्र के क़ानून का वो अंश पढ़ा बल्कि पूरे देश में एक तरह के क़ानून बनाने का आग्रह कर डाला. नीतीश अब बिलकुल चिढ़ गये थे. उन्हें मालूम था कि अगर योगी ऐसे कदम उठा रहे हैं जिसका दूसरे राज्य अनुसरण कर रहे हैं तो इसमें केंद्रीय गृह मंत्रालय की मौन सहमति भी है. और उन्हें विलेन बनाने की एक कोशिश अपने ही सत्ता में सहयोगी के द्वारा हो रही है.

लेकिन तथ्यों पर इतना मजबूत होने के बावजूद नीतीश कुमार इस कोरोना संकट में अपनी एक ज़िद के कारण मात खा रहे हैं और वो है मीडिया से उन्होंने एक दूरी बनायी हुई थी. हर राज्य के मुख्यमंत्री, भले उस राज्य में सर्वाधिक मामले हों या मौत हो रही हो, लेकिन मीडिया के सवालों से नहीं भागे. वहीं नीतीश ने, जिनके कई कदमों जैसे प्रवासी लोगों के खाते में एक हज़ार रुपये डालने की योजना हो या तीन तीन महीने का पेन्शन देने का फ़ैसला हो या हर राशन कार्ड धारी को एक एक हज़ार देने का कदम हो, जिसका कई राज्यों ने अनुसरण किया. उसके बावजूद प्रचार प्रसार में बिलकुल फिसड्डी रहे और जिसके कारण उनकी छवि एक ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में बनायी गई जिसे अपने बच्चों या फंसे हुए मज़दूरों की कोई परवाह नहीं है और वो उनके साथ संवाद करने में तनिक भी विश्वास नहीं करते हैं. सच्चाई इससे भिन्न थी लेकिन विरोधियों को एक आधार मिल गया. जबकि सचाई यही है कि नीतीश कुमार के हर दिन मॉनिटरिंग का नतीजा है कि बिहार में अब तक 400 से कम मरीज़ हैं और मृत लोगों की संख्या मात्र दो है.

लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यह भी है कि आज बिहार के 25 लाख लोग फंसे हुए हैं और उनके घर लौटने की इच्छा को जैसे आपराधिक कदम नहीं माना जा सकता वैसे ही फ़िलहाल ना ज़मीन पर उनके जांच के लिए पर्याप्त किट हैं और ना उनको संक्रमण से बचाने के लिए कोई फॉर्मूला. इसलिए नीतीश कुमार चाहते हैं कि केंद्र ने जो लॉकडाउन के नियम बनाकर किसी के आने जाने ओर प्रतिबंध लगाये हैं वैसे ही इस पाबंदी को ख़त्म करने की पहल भी वो ही करे.

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