- बिहार की सियासत में मुख्यमंत्रियों के बनने का किस्सा भी काफी दिलचस्प है
- चाहे पहले सीएम श्रीकृष्ण सिंह हों या फिर नीतीश कुमार, सबके दौर में आई नई-नई बात
- लालू यादव ने सामाजिक न्याय जरिए किया था बिहार में मजबूत शासन
बिहार की राजनीति में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता सिर्फ़ चुनाव जीतने से नहीं, बल्कि उस जमीन से तय होता रहा है जहां से नेता आते हैं. हर मुख्यमंत्री की विधानसभा या विधान परिषद की सीट उस दौर की राजनीति और समाज की दिशा दिखाती है.
किस्सा श्रीकृष्ण सिंह का
1946 में जब बिहार ने अपना पहला मुख्यमंत्री चुना, तो श्रीकृष्ण सिंह बासंतपुर से विधायक बने. वे आजादी की लड़ाई के नायक थे और उन्होंने बिहार में उद्योग और शिक्षा की नींव रखी. उनके बाद दीप नारायण सिंह (हाजीपुर) और बिनोदानंद झा (राजमहल) आए, जिन्होंने उत्तर और पूर्व बिहार को सत्ता के नक्शे पर लाया.
1960 के दशक में क्या हुआ?
1960 के दशक में पटना की राजनीति मजबूत हुई. कृष्ण बल्लभ सहाय और महामाया प्रसाद सिन्हा, दोनों पटना वेस्ट से विधायक थे. राजधानी अब सिर्फ़ प्रशासन का नहीं, बल्कि राजनीति का भी केंद्र बन गई. धीरे-धीरे पटना और उसके आसपास की सीटें राजनीति का केंद्र बनीं. उनके समय में राजधानी की राजनीति और नौकरशाही का प्रभाव बढ़ा. अब बिहार की राजनीति में प्रशासन और विकास की बातें होने लगीं.
किसान नेता बना सीएम
1969 में सतीश प्रसाद सिंह परबत्ता (खगड़िया) सीट से जीतकर मुख्यमंत्री बने. वे पिछड़े समाज से थे और यह पहला मौका था जब गांवों से आने वाला एक किसान नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा था. उसी साल बी.पी. मंडल (विधान परिषद) मुख्यमंत्री बने. जिन्होंने बाद में मंडल आयोग के जरिये पिछड़ों को आरक्षण दिलवाया.
जननायक कर्पूरी का समय
फिर दरोगा प्रसाद राय (परसा) और कर्पूरी ठाकुर (समस्तीपुर) आए. कर्पूरी ठाकुर को “जननायक” कहा गया. उन्होंने शिक्षा और नौकरी में आरक्षण देकर सामाजिक न्याय की राह खोली. उनके बाद केदार पांडे (नौतन, चंपारण) और अब्दुल गफूर (विधान परिषद) आए, जिन्होंने अल्पसंख्यकों और सीमांत जिलों की राजनीति को मजबूत किया. दरोगा प्रसाद राय (परसा) और कर्पूरी ठाकुर (समस्तीपुर) जैसे नेताओं ने पिछड़े वर्ग और गरीब तबकों की आवाज उठाई. कर्पूरी ठाकुर ने नौकरी और शिक्षा में आरक्षण लागू किया. उन्होंने दिखाया कि राजनीति का मकसद सिर्फ़ सत्ता नहीं, समाज को बराबरी देना भी है.
सीमांचल से बने सीएम
भोलापासवान शास्त्री सीमांचल के कटिहार जिले के कोरहा से तीन बार मुख्यमंत्री बने. सीमांचल उस समय राजनीति में पीछे था, लेकिन शास्त्री ने वहां के दलित और गरीब वर्ग की आवाज को ऊंचाई दी. इससे यह संदेश गया कि बिहार की सत्ता अब हर इलाके और वर्ग तक पहुंच रही है.
बी पी मंडल का दौर
कुछ मुख्यमंत्री जैसे बी.पी. मंडल और अब्दुल गफूर सीधे विधान परिषद से आए. इससे पता चलता है कि राजनीति में संगठन और सोच भी उतनी ही जरूरी है जितना जनमत. मंडल आयोग की रिपोर्ट ने पूरे देश की राजनीति बदल दी. समय के साथ सत्ता की धुरी मगध से उत्तर बिहार, फिर सीमांचल और अब नालंदा-वैशाली के बीच घूमती रही.
लालू यादव का सामाजिक न्याय का दौर
1990 में लालू प्रसाद यादव राघोपुर से मुख्यमंत्री बने. यह बिहार की राजनीति में सबसे बड़ा मोड़ था. उन्होंने गरीबों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को राजनीति के केंद्र में लाया. राघोपुर सीट उस दौर में सामाजिक न्याय की पहचान बन गई. राबड़ी देवी भी राघोपुर से ही मुख्यमंत्री बनीं और यह पहली बार था जब बिहार ने किसी महिला को मुख्यमंत्री बनाया.
नीतीश का आया दौर
2005 में नीतीश कुमार नालंदा से मुख्यमंत्री बने. उन्होंने शिक्षा, सड़क और शासन को प्राथमिकता दी. उनके दौर में बिहार ने विकास की नई दिशा पकड़ी. अब राजनीति फिर नालंदा और वैशाली की पट्टी पर केंद्रित है. जहां से नीतीश और तेजस्वी दोनों आते हैं.
कुल मिलाकर देखा जाए तो बिहार की मुख्यमंत्री सीटें बताती हैं कि राज्य की राजनीति हर दौर में बदलती रही है. कभी स्वतंत्रता सेनानियों का दौर था, फिर पिछड़ा आंदोलन आया, और अब विकास व प्रशासन की राजनीति है. मुख्यमंत्री की सीट सिर्फ़ एक इलाका नहीं होती, वह बताती है कि जनता का भरोसा और सत्ता की दिशा किस ओर जा रही है.
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