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बिहार विधानसभा चुनाव: मुंगेर, दरभंगा, मुजफ्फरपुर वालों की उम्मीदें और आशंका

एक बिहारी जब दिल्ली-मुंबई की सड़कों पर रोजी-रोटी की तलाश में भटकता है, तो मन में एक टीस उठती है. हमार गांव, हमार माटी, हमार आपन लोग सब कुछ छूट गईल!

बिहार विधानसभा चुनाव: मुंगेर, दरभंगा, मुजफ्फरपुर वालों की उम्मीदें और आशंका
पटना:

पिछले साल सितंबर में बिहार में जमीन सर्वे का ऐलान हो गया. जो जहां था वहीं से भाग दौड़ में लग गया. ताकि उसकी जमीन का कागज दुरूस्त हो जाए. दफ्तरों में छुट्टियों के लिए आवेदन शुरू गए. मंडी में मजदूरों की किल्लत होने लगी. ऑटो ड्राइवर सड़क छोड़ने लगे, शहर को रंग-ओ-रोगन करने वाले शहर छोड़ रहे थे. जहां देखो बस बहस इसी बात पर छिड़ी हुई थी. बिहारियों के इस रिवर्स पलायन की गत देखने मैं भी उनके साथ बिहार गया. रेलगाड़ी में खड़े होने की जगह नहीं, रेलवे स्टेशन पर बिहारियों की भारी भीड़. हालांकि भागा दौड़ी वाला माहौल देखकर बिहार सरकार खामोश हो गई और जमीन सर्वे ठंडे बस्ते में चला गया. 

13 सितंबर 2024, बिहार संपर्क क्रांति सुपरफास्ट, नई दिल्ली से दरभंगा की ट्रेन में बैठ गया. स्टेशन पर भारी भीड़, भीड़ को देखते लग रहा था भगदड़ जैसा माहौल. खैर जैसे तैसे जनरल कोच में खड़े होने की जगह मिल गई. ट्रेन जैसे ही चली थोड़ी गर्मी कम हुई और लोगों ने आपस में बात करना शुरू कर दिया. पापड़, पान मसाला, सिगरेट, गुटखा वाले घूमने लगे. आलू की भुजिया और पूरी की खूशबू आने लगी. माहौल एकदम रेल वाला हो गया. मैं सबकी बात सुनने की कोशश कर रहा था. बात तो सबकी कॉमन थी, जमीन सर्वे.

शाहरुख सी नहीं इस राहुल की कहानी !

मेरी नजर एक नौजवान पर पड़ी. नाम राहुल था. राहुल के चेहरे पर चिंता की लकीरें, खामोशी और ऐसा लग रहा था उसकी आंखें कई सवाल पूछ रही थीं. मैनें पूछ लिया कि का हाल बा? कहां घर पड़ी? फिर शुरू हो गई बात.भाई साहब, क्या बताऊं दिल्ली आए 6 महीने हो गए, नौकरी मिली नहीं शहर आज तक अपना नहीं लगा. भीड़-भाड़ बहुत है, कोई किसी को पूछ नहीं रहा है. रोज इंटरव्यू के लिए भाग रहा हूं.CV दफ्तर-दफ्तर दे रहा हूं, पर हर शाम खाली जेब और भारी दिल लेकर कमरे पर लौट आता हूं. इसी बीच घर से खबर आई है कि जमीन सर्वे करा लीजिए आकर. दरअसल, राहुल शहर की रफ्तार को अभी पकड़ नहीं पा रहे थे. मां फोन पर हर रोज पूछती थीं, कुछ बात बनल बाबू? और राहुल का वही जवाब कि कोशिश जारी बा.

राजेश की दिलचस्प बातें और कसक

ठीक मेरे सामने राजेश बैठे हुए थे, उनकी उम्र 20-25 साल होगी. राजेश दरभंगा के रहने वाले थे, बातें मजेदार, दिलचस्प. राजेश पंजाब के लुधियाना में GT रोड के किनारे उबली हुई छल्ली बेचते हैं. एकदम मसाला मार के अमेरिकन कॉर्न. दिनभर मेहनत करते हैं, रोजाना 1000 रु तक कम से कम कमा लेते हैं. यानी किसी भी हाल में हर महीने 30 हजार रुपये तक कमा लेते हैं लेकिन राजेश इससे खुश नहीं, वो चाहते हैं कि उन्हें उन्हीं के शहर में कोई रोजगार अगर 20 हजार रु का भी मिल जाए तो वो करना पंसद करेंगे. शराबबंदी पर बात करते-करते राजेश ने बताया कि हजारों ऐसे युवा हैं जो पंजाब से बिहार तक सूखा नशा का कारोबार करते हैं. बिहार में जब शराबबंदी हुई तो ये कारोबार खूब फला-फूला. कई लड़के बिहार से पंजाब आकर नशा की लत के शिकार हो गए.

राजेश की बातों में सच्चाई भी थी और एक कसक भी. उन्होंने कहा कि पैसा सबकुछ नहीं होता, अपना घर-परिवार, अपनी मिट्टी और इनकी कीमत अलग है. पंजाब की चकाचौंध से, मजदूरों की दुनिया बिल्कुल अलग है. कई लड़के यहां आकर खो जाते हैं, काम तो मिलता है पर कई बार जिंदगी भटक सी जाती है. राजेश चाहते हैं कि बिहार में भी जीने लायक मौके मिल जाएं तो घर छोड़कर भटकना नहीं पड़ेगा. 

छोटी खिड़कियों के पिंजरे

बिहार के छोटे-छोटे गांव और शहरों में चाउमीन, बर्गर, मोमोज, छोले-भटूरे, पाओ-भाजी, वड़ा-पाव, डोसा वगैरह की पहुंच हो गई है. दरअसल, बिहारी जब अपना गांव छोड़ता है तो अकेले नहीं जाता, अपने साथ सतूआ, लिट्टी और छठ लेकर जाता है. जहां जाता अपनी जिंदगी बसाता, उसमें ढलने की कोशिश करता है. हम की जगह मैं बोलना शुरू करता है. मेरे को तेरे को भी भीड़-भाड़ में बोलने लगता है, ताकि उसे लोग शहरी बोलें. लेकिन कम ही बिहारियों के साथ होता है. वो बाहर में बिहारी ही रहता है. चुनावी मंच से नेता भले कहें कि बिहारी कहलाना अब कम होना नहीं है, लेकिन सच्चाई यही है. बिहारियों की सत्तू, लिट्टी भले ही बड़े शहर न अपनाएं लेकिन ये बिहारी जब बाहर से घर लौटता है तो बाहर की चीजें साथ लाता है. और वही बिहारी जब अपने घर जाता है तो, अपने नए शहर से कुछ लेकर जाता है. फिर शुरू हो जाता है चाउमीन, बर्गर, मोमोज! कौन कहां का खान-पान अपनाता है ये इसपर भी निर्भर करता है सामने वाला आर्थिक और सामाजिक रूप से कितना मजबूत है.

एक बिहारी जब दिल्ली-मुंबई की सड़कों पर रोजी-रोटी की तलाश में भटकता है, तो मन में एक टीस उठती है. हमार गांव, हमार माटी, हमार आपन लोग सब कुछ छूट गईल ! सिर्फ इसलिए कि घर में रोशनी आ जाए, परिवार खुशहाल रहे. बच्चों के स्कूल की फीस दे सके, पत्नी, मां-बाप की जरूरतें पूरी हो जाए बस! युवाओं की भीड़ ट्रेनों में भरकर शहर आती है और लौटे कब इसकी तारीख तय नहीं होती. हम अपने गांव लौटना चाहते हैं, अपने बच्चों को उसी मिट्टी में बढ़ते देखना चाहते हैं जहां हम और हमारी पुरखों की जड़ें हैं. लेकिन फिर और बड़ा सवाल लौटकर करेंगे क्या?

बिहार में रोजगार के मौके इतने सीमित हैं कि महीने के 10-20 हजार रुपये कमाने के लिए लोगों को हजारों किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. घर और जमीन होते हुए भी वे परदेस में बेघर जैसे रहने को मजबूर हैं. अपने गांव में ऐसे मकानों में रहते हैं जिसे शहर में लोग विला कहते हैं, लेकिन बिहार का गरीब अपने 'विला' को छोड़कर जब शहर आता है तो उसे मुर्गी के दड़बों जैसे कमरों में रहना पड़ता है. ना ठीक से हवा आती है ना धूप. वाकई गांव से शहर के आने के बाद उसका खुला आसमान और रूह खिड़कियों के पिंजरों में कैद हो जाता है.

'पूजा स्पेशल' पर लगेगी ब्रेक?

गांव खाली हो रहे हैं क्योंकि सपनों को जिंदा रखने के लिए लोगों को बाहर जाना पड़ता है. अगर बिहार में ही सम्मानजनक रोजगार मिल जाए, तो यकीन मानिए 'पूजा स्पेशल' ट्रेनें चलाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. यह पलायन कुछ ही सालों में रुक सकता है. लोग घर लौटेंगे, गांव फिर से आबाद होंगे, और मिट्टी की खुशबू वापस अपने लोगों को बुला लेगी.

बिहार विधानसभा चुनाव में नेताओं ने एक बार फिर से रोजगार की बात जोरशोर से की है. लिहाजा बिहार के बेरोजगार युवाओं में एक बार उम्मीद जगी है. लेकिन दिल के एक कोने में डर भी है. उनका अनुभव उन्हें याद दिलाता है कि चुनावी मौसम में वादों की बारिश तो हर  बार होती है लेकिन फिर नेता भूल जाते हैं. फिर भी क्या करें, हम बिहारी हैं…उम्मीदें छोड़ना हमारी फितरत में नहीं...मेहनत और उम्मीद जारी है. (खबर आरिज मतलूब की है)

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