- मढ़ौरा में RJD के जितेन्द्र कुमार राय और जन सुराज पार्टी के अभय सिंह के बीच मुख्य मुकाबला चल रहा है
- NDA के लोजपा प्रत्याशी सीमा सिंह की नामजदगी रद्द होने के बाद निर्दलीय अंकित कुमार को समर्थन दिया
- जदयू से बागी अल्ताफ आलम राजू ने राजद का समर्थन किया है, जिससे राजद को भाजपा वोटर्स टूटने का फायदा हो सकता है
चुनावी शोर अब छपरा के मढ़ौरा की गलियों और चौपालों में लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा है. यहां अब सीधे तौर पर मुकाबला राजद के 'राजा' जितेन्द्र कुमार राय और जन सुराज पार्टी के नवीन कुमार सिंह उर्फ अभय सिंह के बीच ही नजर आ रहा है. दरअसल यह स्थिति तब बनी है कि एनडीए के लोजपा (रामविलास) प्रत्याशी सीमा सिंह की नामजदगी रद्द हो गई. इसके बाद एनडीए ने निर्दलीय प्रत्याशी अंकित कुमार को अपना समर्थन दिया, लेकिन जनता का झुकाव यह दिखा रहा है कि वे उन्हें सहज रूप से एनडीए उम्मीदवार के रूप में स्वीकार नहीं कर रहे हैं.
अगर बीजेपी वोटर्स छिटके तो क्या होगा
दूसरी तरफ जदयू से बागी अल्ताफ आलम राजू, जो कि पिछले विधानसभा चुनाव में आमने-सामने थे और कुछ वोटो के अंतर से राजद के जितेन्द्र ने बाजी मार ले गए थे. अब अल्ताफ आलम राजू नामांकन रद्द होने के बाद जदयू पर सम्मान नहीं देने का आरोप लगाते हुए जदयू छोड़ राजद का दामन थाम लिए और वो अब जितेन्द्र के समर्थन मे वोट मांगते दिख रहे हैं. अब सवाल है कि अगर भाजपाई वोटर्स टूटते हैं तो इसका भी सीधा फायदा राजद के जितेन्द्र कुमार राय को ही होगा.
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3 बार के विधायक चौका लगाने की तैयारी में
मढ़ौरा से मौजूदा राष्ट्रीय जनता दल के विधायक जितेन्द्र कुमार राय 2010 से लगातार जीतते आ रहे हैं. इनके दिवंगत पिता यदुवंशी राय भी यहां के दो बार विधायक रह चुके हैं. मढ़ौरा के तीन चुनावों में जीत के बाद जितेन्द्र राय चौका ठोकने की तैयारी में जुटे हैं. जनसंपर्क के दौरान उनका जोर विकास और स्थिरता पर है. वहीं जनसुराज पार्टी के प्रत्याशी अभय सिंह युवाओं और बेरोजगारी के मुद्दे को हवा दे रहे हैं. जो कि बिहार की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है.
जातीय समीकरणों का गढ़ मढ़ौरा
इस जगह का जातीय समीकरण भी बेहद दिलचस्प है. यहां यदुवंशी और ब्रह्मर्षि समाज की पकड़ मजबूत मानी जाती है. यही वर्ग चुनावी हवा का रूख तय करता रहा है. दोनों प्रमुख उम्मीदवार इस समीकरण को साधने में अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं.
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कभी औद्योगिक नक्शे पर था चमकता मढ़ौरा
मढ़ौरा वह धरती है, जो कभी बिहार के औद्योगिक नक्शे पर चमकती थी. यहां की चार बड़ी फैक्ट्रियों की चिमनियां अब सालों से ठंडी पड़ी हुई है. चीनी और मॉर्टन टॉफी की मिठास आज भी यहां के लोगों की जुबान पर है, लेकिन इन उद्योगों के पुनर्जीवन का सपना अब तक अधूरा है. किसान घाटे की खेती से परेशान हैं और युवा बेरोजगारी व पलायन के दर्द से जूझ रहे हैं.
इस बार मुकाबला जबरदस्त, मुद्दे पुराने
पिछले विधानसभा चुनाव (2020) में मढ़ौरा में 23 उम्मीदवार थे, जबकि इस बार केवल 9 प्रत्याशी हैं. 5 दलीय और 4 निर्दलीय. उम्मीदवारों की भीड़ कम हुई है पर मुकाबला और भी दिलचस्प बन गया है. जनता चाहती है विकास और रोजगार, जबकि नेता पुराने वादों के नए संकल्प लेकर मैदान में हैं. वहीं भाजपा के समर्थन के बाद अंकित कितना प्रभावी होते है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह मुकाबला आमने सामने की होती दिख रही है. अब देखना यह है कि मढ़ौरा की जनता चौथी बार 'राजा' को मौका देती है या इस बार अभय को ताज पहनाती है.
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