
- बिहार की राजनीति में 'भूराबाल' शब्द का मतलब भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ जातियों के गठजोड़ से है.
- आनंद मोहन ने 'भूराबाल' के वोट बैंक को ताकत बताते हुए कहा कि यह गठजोड़ चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकता है.
- विपक्षी दल और सत्ताधारी गठबंधन ने आनंद मोहन के बयान की आलोचना की है और इसे जातिवाद को बढ़ावा देने वाला बताया.
बिहार की राजनीति में एक बार फिर 'भूराबाल' शब्द चर्चा का केंद्र बन गया है. पूर्व सांसद आनंद मोहन ने हाल ही में बयान दिया कि 'भूराबाल तय करेगा कि किसकी सरकार बनेगी.' इस बयान के बाद राज्य की राजनीति में हलचल मच गई. विपक्षी दलों से लेकर सत्ताधारी गठबंधन के नेता तक इस पर तीखा हमला कर रहे हैं. सवाल यह उठता है कि आखिर चुनाव से पहले ऐसे बयान क्यों दिए जा रहे हैं और क्या इसका वास्तविक असर चुनावी समीकरणों पर पड़ेगा? या यह केवल एक राजनीतिक रणनीति है?
भूराबाल: शब्द और राजनीति
'भूराबाल' शब्द बिहार की राजनीति में नया नहीं है. इसका अर्थ है
भू = भूमिहार
रा = राजपूत
बा = ब्राह्मण
ल = कायस्थ (लाला)
यह चार जातियों का गठजोड़ राज्य के सवर्ण वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है. बिहार में इन जातियों की कुल जनसंख्या लगभग 15-16% मानी जाती है. 1990 के दशक से पहले तक यह समूह राजनीति में एक अहम भूमिका निभाता रहा है. कांग्रेस के लंबे शासनकाल में भी यह गठजोड़ सत्ता में हिस्सेदारी सुनिश्चित करता रहा.

लेकिन 90 के दशक के बाद जब मंडल राजनीति और सामाजिक न्याय का एजेंडा हावी हुआ, तो सवर्ण वोटों की एकजुटता टूट गई. लालू प्रसाद यादव और फिर नीतीश कुमार के दौर में पिछड़ा–दलित–अल्पसंख्यक गठजोड़ ने सत्ता समीकरण पर पकड़ बनाई.
आनंद मोहन का बयान और उसकी टाइमिंग
आनंद मोहन, जो खुद को सवर्ण राजनीति का चेहरा मानते रहे हैं, जेल से बाहर आने के बाद लगातार सक्रिय हैं. उनका बयान सीधे तौर पर यह संकेत देता है कि चुनावी मौसम में जातीय गोलबंदी को हवा देना एक सुनियोजित रणनीति हो सकती है.
टाइमिंग अहम है: बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक है, ऐसे में इस तरह का बयान सवर्ण मतदाताओं को एक प्लेटफ़ॉर्म पर लाने की कोशिश मानी जा रही है.
राजनीतिक संदेश: आनंद मोहन अपने बयान से यह जताना चाहते हैं कि 'भूराबाल' का वोट बैंक आज भी निर्णायक है और इसे साधने वाला दल सत्ता के करीब पहुंच सकता है.

आनंद मोहन के इस बयान पर विपक्षी और सत्ताधारी दोनों ही खेमों से प्रतिक्रिया आई है. महागठबंधन के नेता इसे जातिवाद को बढ़ावा देने वाला बयान बता रहे हैं. उनका तर्क है कि जनता अब विकास और रोजगार पर वोट करती है. वहीं एनडीए के भीतर भी कई नेता खुलकर इस बयान से दूरी बना रहे हैं, क्योंकि गठबंधन सिर्फ सवर्ण वोट बैंक पर नहीं, बल्कि व्यापक सामाजिक समीकरण पर टिका है. इधर छोटे दलों के नेताओं ने इसे 90 के दशक की राजनीति को वापस लाने की कोशिश बताया.
संभावित असर
1. ग्रामीण इलाकों में जातीय गोलबंदी
ग्रामीण बिहार में अब भी जाति आधारित समीकरण गहरी जड़ें जमाए हुए है. ऐसे में 'भूराबाल' की चर्चा से भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ मतदाता एक हद तक एकजुट हो सकते हैं.
2. शहरी और युवा वोटर का अलग रुझान
शहरों और खासकर युवाओं के बीच जातीय राजनीति का असर अपेक्षाकृत कम है. यह वर्ग शिक्षा, नौकरी, इंफ्रास्ट्रक्चर और अवसरों पर वोट करता है. इसलिए आनंद मोहन का बयान इस वर्ग को प्रभावित नहीं करेगा.
3. गठबंधन की मजबूरी
किसी भी गठबंधन के चुनाव जीतने के लिए केवल सवर्ण वोट काफी नहीं है. 'भूराबाल' का प्रभाव खासकर उत्तर बिहार, तिरहुत और मिथिलांचल के कुछ हिस्सों में है, लेकिन पूरे राज्य में जीत दिलाने के लिए पिछड़ा-दलित और अल्पसंख्यक वोट ज़रूरी हैं.
4. विपक्ष को मौका
महागठबंधन जैसे दल इस बयान को भुनाने की कोशिश करेंगे. वे इसे भाजपा और उसके सहयोगियों की जातिवादी राजनीति कहकर जनता के सामने पेश करेंगे.
ऐतिहासिक संदर्भ
बिहार की राजनीति में 90 के दशक से पहले तक सवर्णों का वर्चस्व रहा. मुख्यमंत्री की कुर्सी तकरीबन हमेशा इन्हीं जातियों के नेताओं के पास रही, लेकिन मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद पिछड़े वर्ग के नेता राजनीति में मजबूत हुए और समीकरण पूरी तरह बदल गया.

आनंद मोहन का बयान साफ़ तौर पर जातीय गोलबंदी की कोशिश है. भूराबाल समीकरण एक बार फिर चर्चा में आया है, लेकिन बदलते समय में इसकी सीमाएं भी हैं. आज बिहार की राजनीति केवल जाति पर नहीं टिकी है, बल्कि विकास, रोजगार, शिक्षा और कानून-व्यवस्था जैसे मुद्दे भी उतने ही अहम हो गए हैं.
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