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बिहार चुनावः अबकी बार तेजस्वी कितने दमदार? जानें लालू के लाल की क्या है ताकत और क्या कमजोरियां

तेजस्वी यादव की ताकत लालू यादव से मिली हुई राजनीतिक विरासत है लेकिन कमजोरी भी वही विरासत है. तेजस्वी को साबित करना है कि उनकी राजनीति लालू की राजनीति से अलग है.

  • कांग्रेस ने बिहार में आरजेडी के पीछे चलना स्वीकार तो कर लिया लेकिन शह-मात का खेल भी चल रहा है
  • तेजस्वी के सामने सिर्फ मुस्लिम वोट साधने की ही नहीं, हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण रोकने की भी चुनौती है
  • तेजस्वी यादव की ताकत लालू यादव से मिली हुई राजनीतिक विरासत है लेकिन कमजोरी भी वही विरासत है
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पिछले 20 साल से आरजेडी जिस सपने को सच करने के लिए तरस रही है, उस सपने का बोझ अब तेजस्वी यादव के कंधों पर है. क्या आरजेडी को अपना मुख्यमंत्री मिलेगा? क्या राबड़ी देवी के बाद तेजस्वी यादव अबकी बार इतनी सीटें अपने गठबंधन के साथ ला पाएंगे कि वो बिहार के मुख्यमंत्री बन जाएं? इन सवालों से आरजेडी भी जूझ रही है और तेजस्वी भी. 

कांग्रेस ने क्यों माना तेजस्वी को सीएम कैंडिडेट

कांग्रेस ने आनाकानी के बाद मान लिया है कि बिहार में महागठबंधन की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ही बनेंगे. तेजस्वी को नेता मानना कांग्रेस के लिए जरूरी भी है और मजबूरी भी है. पिछले विधानसभा चुनावों में बिहार में आरजेडी के साथ महागठबंधन में कांग्रेस को लड़ने के लिए 70 सीटें मिली थीं. लेकिन कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा. वो सिर्फ 19 सीटें ही जीत पाई, यानी विनिंग स्ट्राइक रेट 27 फीसदी रहा. वहीं आरजेडी ने 144 सीटों पर लड़कर 75 सीटें जीती थीं यानी विनिंग स्ट्राइक रेट 52 फीसदी हासिल किया. लेफ्ट फ्रंट 19 सीटों पर लड़कर 12 सीटें जीता था. उसका विनिंग स्ट्राइक रेट 63 फीसदी रहा. उस चुनाव में अगर कांग्रेस ने आरजेडी जैसा प्रदर्शन किया होता तो बिहार में तेजस्वी की सरकार बन गई होती. 

पप्पू यादव से इतने खफा क्यों हैं तेजस्वी 

कहते हैं ना कि राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन या दोस्त नहीं होता. जिस कांग्रेस को सत्ता से हटाकर लालू यादव बिहार की गद्दी पर बैठे थे, उसी कांग्रेस के साथ उनकी गलबहियां पिछले 25 वर्षों से चल रही हैं. कांग्रेस ने बिहार में आरजेडी के पीछे चलना स्वीकार तो कर लिया लेकिन दोनों के बीच शह-मात का खेल भी चलता रहता है.

कांग्रेस में ना होकर भी राहुल गांधी के सबसे बड़े प्रशंसक और समर्थक पप्पू यादव आज की तारीख में तेजस्वी और लालू यादव की नजरों में खटकने वाले नेता नंबर 1 हैं. दरअसल ये बिहार में वर्चस्व की लड़ाई का नतीजा है. तेजस्वी और पप्पू दोनों ही यादव समुदाय से आते हैं. बिहार में यादवों की संख्या करीब 15 फीसदी है. कुछ समय पहले तक यादव वोट लालू यादव के साथ जुड़ा था लेकिन पप्पू यादव ने सीमांचल के यादव वोटों में अपनी पैठ मजबूत कर ली है. वहां मुसलमानों का वोट भी निर्णायक है, जिस पर पप्पू यादव की पकड़ है. इससे लालू परिवार का चिंतित होना लाजिमी है.

ओवैसी और तेजस्वी का गेम

सीमांचल में जीत-हार का फैसला मुस्लिम वोटों के हाथों में है. बिहार में मुस्लिम वोटों का एक दावेदार महागठबंधन है तो दूसरा दावेदार खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं. तीसरे दावेदार चिराग पासवान भी हैं तो इन सबके बीच एक मजबूत दावेदार असदुद्दीन ओवैसी भी हैं. ओवैसी ने पिछले विधानसभा चुनाव में सीमांचल में पांच सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था. हालांकि उनके चार विधायकों को तेजस्वी ने अपनी पार्टी में मिला लिया था. लेकिन जो सीटें ओवैसी ने जीती थीं, वो सारी सीटें 2015 के चुनावों में महागठबंधन की ही थीं. 

मुस्लिम वोटों को साधना जरूरी

तेजस्वी के पिता लालू यादव ने 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में लामबंद कर लिया था. 1990 में जब बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या के लिए राम रथ यात्रा निकाली तो उसे बिहार में लालू यादव ने ही रोका था. उसकी कीमत केंद्र में वीपी सिंह सरकार को चुकानी पड़ी लेकिन उसकी कीमत वसूली लालू यादव ने. बिहार में मुसलमानों का एकमुश्त वोट लालू को मिलने लगा. अब ओवैसी की सेंध से तेजस्वी को समझ आ गया कि 1990 में लालू यादव ने मुसलमानों में विश्वास का जो निवेश किया था, उसके लाभांश से ही काम नहीं चलेगा बल्कि कुछ नया निवेश करना पड़ेगा. 

तेजस्वी के सामने ये भी चुनौतियां

तेजस्वी के सामने सिर्फ मुस्लिम वोटों को साधने की ही चुनौती नहीं बल्कि हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण को रोकने की भी है. यानी आरजेडी को अपनी मंजिल एमवाई से आगे बढ़ाना होगा. तेजस्वी जिस ए टू जेड पार्टी का दावा कर रहे हैं, उसको जमीन पर उतारना होगा. यादवों से आगे दूसरी ओबीसी जातियों को जोड़ने की चुनौती भी तेजस्वी के सामने है. वहीं उन दलित वोटों को जोड़ने का चैलेंज भी है जो कभी आरजेडी के साथ थे लेकिन बाद में साथ छोड़ गए.

नीतीश कुमार बनाम तेजस्वी यादव

इस चुनाव में देखा जाए तो आमने-सामने दो नेता हैं, जिन पर सबसे ज्यादा लोगों की नजर रहेगी. एक नीतीश कुमार तो दूसरे तेजस्वी यादव हैं. नीतीश कुमार 74 साल के हो चुके हैं जबकि तेजस्वी अभी 35 साल के हैं. नीतीश को केंद्र में मंत्री से लेकर बिहार में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का अनुभव है. तेजस्वी के पास विपक्ष का नेता और उप मुख्यमंत्री पद का अनुभव है. नीतीश की राजनीति अपने संघर्षों से निकली है जबकि तेजस्वी यादव को आरजेडी अपने पिता से विरासत में मिली है. नीतीश कुमार ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है, जबकि तेजस्वी यादव दसवीं तक भी नहीं पढ़ पाए. लेकिन मुख्यमंत्री बनने के लिए उम्र और पढ़ाई नहीं बल्कि जनता का विश्वास मायने रखता है. 

तेजस्वी की ताकत और कमजोरी

तेजस्वी यादव की ताकत लालू यादव से मिली हुई राजनीतिक विरासत है लेकिन कमजोरी भी वही विरासत है. क्योंकि उस विरासत में तेजस्वी को जनता के बीच ये साबित करना है कि उनकी राजनीति लालू की राजनीति से अलग हटकर विकास की राजनीति है. पिछले विधानसभा चुनाव में भी तेजस्वी यादव बेहद प्रभावशाली तरीके से मैदान में उतरे थे. इस बार भी वो पूरा दम दिखा रहे हैं. लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि क्या नीतीश सरकार के खिलाफ उनका हल्ला बोल उन्हें सरकार में बिठाएगा. क्या तेजस्वी बनेंगे बिहार के बाजीगर?

(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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