नई दिल्ली:
लोकसभा में 1950 के दशक में जहां एक साल में औसतन 127 दिन कामकाज होता था वहीं आज इस कामकाज का औसत घटकर 73 दिन तक सिमट गया है और इसमें लगातार गिरावट का दौर जारी है।
इस संबंध में वर्ष 2001 में पीठासीन पदाधिकारियों, मुख्यमंत्रियों, संसदीय मामलों के मंत्रियों, पार्टियों के नेताओं तथा सचेतकों के अखिल भारतीय सम्मेलन में प्रतिवर्ष संसद की कम से कम 110 बैठकें सुनिश्चित किए जाने के कदम उठाने का आह्वान किया गया था।
सम्मेलन में सिफारिश की गई थी कि यदि जरूरी हो तो संविधान में संशोधन के जरिये यह बदलाव सुनिश्चित किया जाए।
1995 से 1999 तक अंतर संसदीय संघ (आईपीयू) की कार्यकारी सदस्य और 1999 से 2002 तक आईपीयू की परिषद की अध्यक्ष रहीं वरिष्ठ नेता डॉ नजमा हेपतुल्ला ने बातचीत में संसद की बैठकों की घटती संख्या को गंभीर चिंता का विषय बताते हुए कहा कि 2001 के इस सम्मेलन की सिफारिशें संसद ग्रंथालय में धूल चाट रही हैं और इस दिशा में सरकार ने कोई पहल नहीं की।
इस सम्मेलन को दस साल से अधिक का समय बीत चुका है लेकिन इसकी सिफारिशों पर कार्रवाई के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
डॉ नजमा ने कहा कि संप्रग सरकार के पिछले दस साल के कार्यकाल में स्थिति और खराब हुई है। संसद नहीं चलने देने के लिए संप्रग सरकार द्वारा विपक्ष को जिम्मेदार ठहराए जाने के सवाल पर उन्होंने कहा कि विपक्ष की भी जनता के प्रति उतनी ही जवाबदेही है जितनी सरकार की।
डॉ नजमा का कहना था कि विपक्ष तो मुद्दे उठाएगा ही, यह तो सरकार को रास्ता निकालना है कि किस प्रकार विपक्ष अपने मुद्दे भी उठाए और संसद की कार्यवाही भी चलती रहे। यहां इस बात पर भी गौर करना जरूरी होगा कि विभिन्न विभागों संबंधी स्थायी समितियों का गठन 1993 में किया गया। उसके बाद से संसद विधेयकों को विश्लेषण के लिए इन समितियों को भेज देती है।
यह कामकाज संसद की निर्धारित बैठकों के बाहर सालभर चलता रहता है। इससे भी संसद का कुछ कामकाज कम होने से बैठकों की संख्या में कमी आयी है।
लोकसभा सचिवालय से मिली जानकारी के अनुसार, 1950 के दशक में लोकसभा की औसत बैठक 127 दिन और राज्यसभा की बैठक 93 दिन होती थी। लेकिन अब वर्ष 2011 के आंकड़ें दिखाते हैं कि दोनों ही सदनों में यह औसत घटकर 73 दिन का हो गया है।
पिछले कुछ दशकों में संसद द्वारा पारित किए गए विधेयकों की संख्या में भी गिरावट देखी गई है। पहली लोकसभा में 1950 से 1955 के पांच साल के दौरान औसतन प्रतिवर्ष 72 विधेयक पारित किए गए लेकिन 15वीं लोकसभा में यह आंकड़ा कम होकर 40 तक आ गया है।
आंकड़ें बताते हैं कि 1976 में संसद ने किसी एक वर्ष में सर्वाधिक रिकॉर्ड 118 विधेयक पारित किए थे। इसके मुकाबले वर्ष 2004 में सबसे कम यानी केवल 18 विधेयक संसद ने पारित किए।
पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, 15वीं लोकसभा में संसद की कार्यवाही अक्सर बाधित हुई। वर्ष 2011 में शीत सत्र की समाप्ति तक 15वीं लोकसभा ने उपलब्ध समय में से केवल 70 फीसदी समय का इस्तेमाल किया जो पिछले 25 साल के संसदीय इतिहास में सबसे कम है।
पिछले दो दशक में 1998, 2004 और 2008 में सर्वाधिक कम बैठकें हुई और इन वषरे में बैठकों की संख्या 45 से भी कम रही। पहली लोकसभा (1952 से 1957) के बाद से लोकसभा की बैठकों में गिरावट का दौर रहा है। पहली लोकसभा के दौरान पांच साल की अवधि में 677 बैठकें (3784 घंटे) हुई जो एक रिकार्ड है। इसी अवधि में राज्यसभा की 565 बैठकें हुई। 1971 से 1977 के दौरान लोकसभा ने 4071 घंटे यानी 613 बैठकों में काम किया।
1956 में लोकसभा और राज्यसभा की क्रमश: 151 तथा 113 बैठकें हुई जो आज तक का सर्वाधिक बैठकों का रिकार्ड है। वर्ष 2006 तक आते आते संसद की बैठकों की संख्या 77 तक सिमट गई और वर्ष 2007 में यह और कम होकर 66 दिन पर आ गई।
इस संबंध में वर्ष 2001 में पीठासीन पदाधिकारियों, मुख्यमंत्रियों, संसदीय मामलों के मंत्रियों, पार्टियों के नेताओं तथा सचेतकों के अखिल भारतीय सम्मेलन में प्रतिवर्ष संसद की कम से कम 110 बैठकें सुनिश्चित किए जाने के कदम उठाने का आह्वान किया गया था।
सम्मेलन में सिफारिश की गई थी कि यदि जरूरी हो तो संविधान में संशोधन के जरिये यह बदलाव सुनिश्चित किया जाए।
1995 से 1999 तक अंतर संसदीय संघ (आईपीयू) की कार्यकारी सदस्य और 1999 से 2002 तक आईपीयू की परिषद की अध्यक्ष रहीं वरिष्ठ नेता डॉ नजमा हेपतुल्ला ने बातचीत में संसद की बैठकों की घटती संख्या को गंभीर चिंता का विषय बताते हुए कहा कि 2001 के इस सम्मेलन की सिफारिशें संसद ग्रंथालय में धूल चाट रही हैं और इस दिशा में सरकार ने कोई पहल नहीं की।
इस सम्मेलन को दस साल से अधिक का समय बीत चुका है लेकिन इसकी सिफारिशों पर कार्रवाई के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
डॉ नजमा ने कहा कि संप्रग सरकार के पिछले दस साल के कार्यकाल में स्थिति और खराब हुई है। संसद नहीं चलने देने के लिए संप्रग सरकार द्वारा विपक्ष को जिम्मेदार ठहराए जाने के सवाल पर उन्होंने कहा कि विपक्ष की भी जनता के प्रति उतनी ही जवाबदेही है जितनी सरकार की।
डॉ नजमा का कहना था कि विपक्ष तो मुद्दे उठाएगा ही, यह तो सरकार को रास्ता निकालना है कि किस प्रकार विपक्ष अपने मुद्दे भी उठाए और संसद की कार्यवाही भी चलती रहे। यहां इस बात पर भी गौर करना जरूरी होगा कि विभिन्न विभागों संबंधी स्थायी समितियों का गठन 1993 में किया गया। उसके बाद से संसद विधेयकों को विश्लेषण के लिए इन समितियों को भेज देती है।
यह कामकाज संसद की निर्धारित बैठकों के बाहर सालभर चलता रहता है। इससे भी संसद का कुछ कामकाज कम होने से बैठकों की संख्या में कमी आयी है।
लोकसभा सचिवालय से मिली जानकारी के अनुसार, 1950 के दशक में लोकसभा की औसत बैठक 127 दिन और राज्यसभा की बैठक 93 दिन होती थी। लेकिन अब वर्ष 2011 के आंकड़ें दिखाते हैं कि दोनों ही सदनों में यह औसत घटकर 73 दिन का हो गया है।
पिछले कुछ दशकों में संसद द्वारा पारित किए गए विधेयकों की संख्या में भी गिरावट देखी गई है। पहली लोकसभा में 1950 से 1955 के पांच साल के दौरान औसतन प्रतिवर्ष 72 विधेयक पारित किए गए लेकिन 15वीं लोकसभा में यह आंकड़ा कम होकर 40 तक आ गया है।
आंकड़ें बताते हैं कि 1976 में संसद ने किसी एक वर्ष में सर्वाधिक रिकॉर्ड 118 विधेयक पारित किए थे। इसके मुकाबले वर्ष 2004 में सबसे कम यानी केवल 18 विधेयक संसद ने पारित किए।
पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, 15वीं लोकसभा में संसद की कार्यवाही अक्सर बाधित हुई। वर्ष 2011 में शीत सत्र की समाप्ति तक 15वीं लोकसभा ने उपलब्ध समय में से केवल 70 फीसदी समय का इस्तेमाल किया जो पिछले 25 साल के संसदीय इतिहास में सबसे कम है।
पिछले दो दशक में 1998, 2004 और 2008 में सर्वाधिक कम बैठकें हुई और इन वषरे में बैठकों की संख्या 45 से भी कम रही। पहली लोकसभा (1952 से 1957) के बाद से लोकसभा की बैठकों में गिरावट का दौर रहा है। पहली लोकसभा के दौरान पांच साल की अवधि में 677 बैठकें (3784 घंटे) हुई जो एक रिकार्ड है। इसी अवधि में राज्यसभा की 565 बैठकें हुई। 1971 से 1977 के दौरान लोकसभा ने 4071 घंटे यानी 613 बैठकों में काम किया।
1956 में लोकसभा और राज्यसभा की क्रमश: 151 तथा 113 बैठकें हुई जो आज तक का सर्वाधिक बैठकों का रिकार्ड है। वर्ष 2006 तक आते आते संसद की बैठकों की संख्या 77 तक सिमट गई और वर्ष 2007 में यह और कम होकर 66 दिन पर आ गई।
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