
रांची से करीब 450 किलोमीटर दूर हम झारखंड के साहिबगंज जिले में पहुंचे। यों तो यहां अधिकतर लोग कोयला और पत्थर के धंधे से जुड़े हैं, लेकिन यहां एक धंधा और भी है, बच्चों से चोरी करवाने का। नोएडा में चोरी करते जिन बच्चों की विशेष रिपोर्ट हमने आपको दिखाई थी, वे सभी बच्चे इसी जिले के महाराजपुर गांव के हैं।
साहेबगंज के आगे के रास्ते पर सड़क से सटे पत्थर की खदानों का एक सिलसिला चलता जाता है। मिट्टी और ईंट के कच्चे-पक्के मकान गरीबी और पिछड़ेपन की वो जानी-पहचानी तस्वीर दिखाते हैं, जो झारखंड के आदिवासी इलाके के लिए आम बात है। हैरानी सिर्फ इतनी है कि जिस बदहाल सड़क से गुजर रहे थे, वो नेशनल हाइवे-80 कहलाती है। लेकिन आगे का रास्ता और भी खतरनाक था, क्योंकि हम जिस गांव में जा रहे हैं, वहां मीडिया तो क्या, पुलिस भी जाने से कतराती है। हमारी मंजिल साहेबगंज से करीब 20 किमी दूर महाराजपुर गांव है और मकसद है बच्चों से चोरियां कराने के लिए कुख्यात हुए इस गांव के लोगों को देखने, सुनने और जानने की।
हमारा कैमरा देखते ही एक हलचल सी मच गई, पर संयोग से सबसे पहले वही शख्स मिला, जिसे लेकर कहा जाता है कि वो बच्चों से चोरियां कराने वाले इस गांव का सबसे बड़ा हैंडलर है। हम अपनी पहचान बदल कर मिले। किसी से हमने कहा कि हम 'नमामि गंगे' प्रोग्राम पर स्टोरी कर रहे हैं, तो किसी से हमने कहा कि हम एक सरकारी एनजीओ से आए हैं और पता लगा रहे हैं कि नोएडा में जो बच्चे चोरी करते हुए पकड़े गए, वो सही-सलामत अपने मां-बाप के पास पहुंचे की नहीं।
दरअसल दिल्ली से सटे नोएडा में बीते चार सालों के दौरान चोरी करते जो 15 बच्चे पकड़े गए, वो इसी गांव के हैं। पहले लगा कि कि कोई गिरोह बच्चों को जबरन ले आता है और उसे अपराध करने पर मजबूर करता है।
लेकिन यहां के कुछ लोगों का भरोसा जीतने के बाद जो तस्वीर सामने आई, वो हिला देने वाली निकली। गांव के ही एक शख्स संजय (बदला हुआ नाम) ने बताया कि देखिए 20 साल पहले चोरी एक भी नहीं थी। बचपन में मैं भी यहीं पर रहा, लेकिन चोरी नहीं थी, जमीन थी, लोग खेती-बाड़ी कर रहे थे... जब नदी की धार में जमीनें कट गईं तो लोग विस्थापित हुए। उनके पास रोजगार नहीं रहा। धीरे-धीरे एक-दो 2 आदमी पॉकेटमारी करने लगे, 100-50-200-500 निकाल लो...लत लगी, एक आदमी गया, दो आदमी गया धीरे धीरे बीमारी टाइप का हो गया।
गांव के ही एक और शख्स विजय (बदला हुआ नाम) ने कहा कि यहां पढ़ाई का कोई शौक नहीं है। मां-बाप सोचता है कि बड़े होकर मजदूरी करेगा, तो 150-200 रुपये मिलेगा, लेकिन इससे उसका भरण पोषण नहीं हो सकता।
जब हमने सवाल किया कि जो लोग बच्चों को दिल्ली, नोएडा ले जाते हैं क्या उनसे बच्चों के मां-बाप मिले हैं? जवाब मिला- हां मिले हैं।
हर गांव का अपना एक इतिहास होता है, अपनी एक पहचान होती है, लेकिन इस गांव की पहचान और इतिहास जुर्म से शुरू होकर जुर्म पर खत्म होता है। शौक कहें या मजबूरी पीढ़ी दर पीढ़ी लोग इस प्रथा को आगे बढ़ा रहे हैं। कहते हैं कि इस गांव की इकोनॉमी चोरी से ही चलती है। दुख की बात ये है कि चोरी बच्चों से करवायी जा रही है।
साहेबगंज के एसपी सुनील भाष्कर के मुताबिक, "जो वेटरन क्रिमिनल थे वो खुद क्राइम नहीं कर रहे हैं...अब वो बच्चों को ट्रेनिंग दे रहे हैं और उनके माध्यम से क्राइम कराया जा रहा है। हाल ही में रांची में एक ऐसा गैंग पकड़ा गया था, जिसमें साहेबगंज के बच्चे वहां गए थे और उनको ट्रेनिंग देकर चोरी कराया जा रहा था। हमने पूछा कि इसके पीछे की वजह क्या है, तो उन्होंने जवाब दिया कि इसमें ईजी मनी है फास्ट मनी है...दूसरा कि जब बच्चा क्राइम करता है तो, उनको जेल नहीं भेजा जाता बाल सुधार गृह भेजा जाता है, जहां से वो जल्दी छूट भी जाते हैं। यह एक कल्चर हो गया है, लेकिन इसकी तह में जाएं तो असली वजह गरीबी है। साथ ही ये एक सामाजिक समस्या भी है।
गांव की गलियों तक जुर्म का इतना पैसा पहुंचता है कि उसकी छाप हर कहीं दिख रही थी। जिस्म पर टैटू, कलाई पर कीमती घड़ियां, ब्रांडेड कपड़े मॉडर्न हेयर स्टाइल और सलमान सा ब्रैसलेट सब कुछ...
बड़े शहरों में मोबाइल और पर्स चोरी करने के बाद जब ये बच्चे छुट्टियां मनाने गांव लौटते हैं तो इन सड़कों पर बाइक से फर्राटे भरते हैं। गांव का शायद ही कोई बच्चा बिना बाइक का हो। लाखों रुपये की हाई स्पीड और स्पोर्ट्स बाइक भी यहां आपको खूब नजर आएंगी। गांव के विजय के मुताबिक ये बाइक एक नंबर की हैं, यानी बाइक चोरी की नहीं हैं, बल्कि चोरी के पैसे से खरीदी गई हैं। अब ये बात भी समझ में आ गई कि आखिर इतने पिछड़े इलाके में किसी बैंक ने ब्रांच खोलने की जरूरत क्यों महसूस की होगी।
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं