
डोनाल्ड ट्रंप ने इस साल 20 जनवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी.राष्ट्रपति के रूप में यह उनका दूसरा कार्यकाल है. राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप ने जो कदम उठाए हैं, उससे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उथल-पुथल मचा दी है. कनाडा ने सबसे पहले कनाडा को अमेरिका का 51 राज्य बताया था. इसके बाद उन्होंने मैक्सिको खाड़ी का नाम बदल दिया, पनामा नहर को वापस मांगा, गाजा पर कब्जा करने की बात कही, यूक्रेन को विश्वास में लिए बिना युद्ध खत्म करवाने के लिए अमेरिका ने रूस के साथ सऊदी अरब में बातचीत की. अमेरिका पहुंचे यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की के साथ ह्वाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप और वाइस प्रेसिडेंट जेडी वांस के साथ तीखी नोकझोंक ने दुनिया को हिलाकर रख दिया है. ट्रंप ने रूस के साथ युद्ध में यूक्रेन की मदद के बदले उसके खनीजों में हिस्सेदारी मांगी है.जेलेंस्की इस डील और युद्ध रोकने के तौर-तरीकों पर चर्चा के लिए अमेरिका गए थे, लेकिन बहसबाजी के बाद डील नहीं हो सकी. वहीं ट्रंप ने सोमवार को कांग्रेस को संबोधित किया. इसमें उन्होंने बताया कि अमेरिका दो अप्रैल से भारत-चीन समेत कुछ देशों में रेसिप्रोकल टैरिफ लगाएगा.
डोनाल्ड ट्रंप ने पैदा की उथल-पुथल
राष्ट्रपति ट्रंप के इन कदमों से दुनिया में उथल-पुथल मची हुई है. जेलेंस्की के साथ ह्वाइट हाउस में हुई नोक-झोंक के बाद यूरोप के नेताओं ने लंदन में बैठक की. इसमें ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीएर स्टार्मर ने कहा कि यूरोप की सुरक्षा को लेकर यह पीढ़ियों में एक बार आने वाला महत्वपूर्ण मौका है. उन्होंने कहा कि यूक्रेन के लिए एक अच्छा शांति समझौता इस महाद्वीप के सभी देशों की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है.जेलेंस्की के साथ हुई नोक-झोंक को यूरोप के देश काफी गंभीरता से ले रहे हैं. यूरोप के देश अंतरराष्ट्रीय राजनीति अमेरिका के पुराने सहयोगी है. उनको लग रहा है कि जेलेंस्की के साथ जो हुआ है, वह उनके साथ हुआ है. यूरोप के देश को खुद को अमेरिका के सहयोगी के रूप में तो दिखना चाहते हैं, लेकिन पिछलग्गू के रूप में नहीं. इसलिए इस घटना के बाद ब्रितानी पीएम कीएर स्टार्मर और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने ट्रंप से बात की. इसके साथ ही यूरोप के देशों ने यूक्रेन को दी जाने वाली मदद को और बढाने का वादा किया है.

यूरोप के कई देशों ने यूक्रेन को दी जाने वाली मदद को और बढ़ाने का वादा किया है.
क्या कमजोर है यूरोप
प्रोफेसर आफताब आलम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ स्ट्रैटजिक एंड सिक्योरिटी स्टडीज के चेयरमैन हैं. वो कहते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद से जो बयान दिए उनमें एक खास बात यह थी कि उन्होंने उन लोगों से बात नहीं कि थी जिनका हित जुड़ा हुआ है.वो कहते हैं कि कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य बताते हुए ट्रंप ने कभी उससे बात नहीं की. इसी तरह गाजा पर नियंत्रण की बात करने से पहले उन्होंने न तो गाजा वालों से पूछा और न ही मीडिल ईस्ट में सउदी अरब, मिस्र या जार्डन जैसे अपने सहयोगियों से बात की. वहीं रूस-यूक्रेन युद्ध खत्म करवाने की बात करने से पहले यूक्रेन से ही बात नहीं की, जबकि यूक्रेन अमेरिका और नैटो के सहयोग से ही यह लड़ाई लड़ रहा है. प्रोफेसर आलम कहते हैं कि इन बातों का परिणाम यह होगा कि अमेरिका का अपने सहयोगियों से ही संबंध खराब होंगे. वो कहते हैं कि यूरोप के देशों में असंतोष पैदा हुआ है, उन्हें यह लगने लगा है कि कहीं वो अमेरिका के पिछल्लू तो नहीं बनते जा रहे हैं, जबकि वो बराबरी और सम्माजनक रिश्ता चाहते हैं. प्रोफेसर आलम कहते हैं कि यूरोप कमजोर नहीं है, उसके दो देश ब्रिटेन और फ्रांस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य हैं. उनके पास भी अमेरिका की तरह वीटो पावर है. यूरोप के पास भी राजनीतिक पावर है. इसलिए यूरोप की अनदेखी नहीं की जा सकती है. यूरोपीय देश यह नहीं चाहते हैं कि उन्हें अमेरिका की कठपुतली की तरह देखा जाए.

ह्वाइट हाउस में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उपराष्ट्रपति जेडी वांस के साथ हुई बैठक के दौरान यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की.
रूस-अमेरिका युद्ध से क्यों निकलना चाहता है अमेरिका
अंततराष्ट्रीय मामलों के वरिष्ठ पत्रकार कमर आगा एक दूसरी बात की ओर इशारा करते हैं. वो कहते हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप को इस बात का एहसास हो गया है कि यूक्रेन इस युद्ध को जीत नहीं पाएगा. उनको यह लगने लगा है कि यूक्रेन को जितना भी पैसा और हथियार दिया जाए, वह रूस को हरा नहीं पाएगा. युद्ध से रूस को बहुत अधिक आर्थिक नुकसान भी नहीं हुआ है. वो कहते हैं कि यूरोप और उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को लगा था कि युद्ध में फंसकर रूस कमजोर होकर टूट जाएगा और यूक्रेन नैटो का सदस्य बन जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. इसलिए ट्रंप प्रशासन ने रूस से बातचीत शुरू की. उन्होंने कहा कि ट्रंप की यह समझ चुनाव से पहले ही बन गई थी, इसलिए उन्होंने कहना शुरू कर दिया था कि वो जब सरकार में आएंगे तो इस युद्ध को रोक देंगे. उन्हें लगता था कि युद्ध में अमेरिका का जो अरबों डॉलर खर्च हुए है, वह बेवजह है. इसलिए ही वो यूक्रेन से रेयर अर्थ मेटल की मांग कर रहे हैं. वो कहते हैं कि रूस भी जंग को रोकने के पक्ष में थे.क्योंकि युद्ध की वजह से उसके जन-धन की क्षति हो रही थी और उसका विकास का एजेंडा प्रभावित हो रहा है.
चीन पर नियंत्रण क्यों चाहता है अमेरिका
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राष्ट्रपति ट्रंप की इन कोशिशों का असली मकसद चीन को नियंत्रित करना है. चीन को नियंत्रित करने के सवाल पर प्रोफेसर आलम कहते हैं कि इसके लिए हमें रूस-अमेरिका और चीन-रूस के संबंधों के त्रिकोण को समझना होगा. वो कहते हैं कि जैसे पारंपरिक संबंध रूस और चीन के हैं, वैसे संबंध रूस-अमेरिका के कभी नहीं हो सकते हैं. वो कहते हैं कि चीन से अलग होकर रूस कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता है.आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रूस की जो ताकत है, वह चीन के सहयोग से ही है.वो कहते हैं कि चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिका की सबसे बड़ी चुनौती है. अमेरिकी नीति चीन से मुकाबले की है.वो कहते हैं कि चीन से दोस्ती में ही रूस का फायदा है.

डोनाल्ड ट्रंप ने इस साल दो अप्रैल से चीन पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने की घोषणा की है.
चीन को नियंत्रित करने के सवाल पर आगा कहते हैं कि हेनरी किसिंजर के समय से ही अमेरिका की यह नीति रही है कि रूस और चीन को एक साथ नहीं आने देना है, क्योंकि अगर ये दोनों देश एक साथ आ गए तो बहुत बड़ी शक्ति बन जाएंगे. वो कहते हैं एक चीन और रूस से निपटना अमेरिका के लिए आसान नहीं है. लेकिन अगर ये दोनों देश अलग-अलग रहते हैं तो चीन को नियंत्रित करना अमेरिका के लिए आसान है.वो कहते हैं कि इसमें अमेरिका का एक और हित है. वह यह है कि अगर इजरायल-ईरान में युद्ध हो तो रूस इसमें शामिल न हो. आगा कहते हैं कि इसका एक तीसरा पहलू भी है. दरअसल अमेरिका चाहता है कि यूरोपीय यूनियन के लिए रूस खतरा बना रहे. इससे यूरोपीय यूनियन की अमेरिका पर निर्भरता बनी रहेगी.अगर रूस टूट जाता है तो वह यूरोप के लिए कोई खतरा नहीं रहेगा.ऐसे में यूरोप की निर्भरता अमेरिका पर कम हो जाएगी, क्योंकि कमजोर रूस से अपनी सुरक्षा करने में यूरोप सक्षम है.
डोनाल्ड ट्रंप की विदेश नीति से कितना बदलेगा वर्ल्ड ऑर्डर
दूसरे कार्यकाल ट्रंप की ओर से हाल में लिए गए फैसलों का क्या असर होगा.इस सवाल के जवाब में प्रोफेसर आलम कहते हैं ट्रंप के हालिया कदम अंतरराष्ट्रीय जगत के लिए बड़ी चुनौती हैं, चाहें उनका कनाडा पर बयान हो या गाजा पर या फिर रूस-यू्क्रेन युद्ध को लेकर. वो कहते हैं कि यह स्थिति यूरोप और अफ्रीकन-एशियाई देशों के लिए बड़ी अजीब सी स्थिति है, खासकर उनके लिए जिनके पड़ोस में कोई ताकतवर देश है.यह भारत के लिए भी चुनौतीपूर्ण स्थिति है. हमारा पड़ोसी चीन है, जिसके साथ हमारा सीमा विवाद है. वो कहते हैं कि ट्रंप की विदेश नीति दुनिया की शांति और वर्ल्ड ऑर्डर के लिए बहुत चुनौती भरा है. इससे समस्या पैदा होगी.यह कानून आधारित व्यवस्था के लिए भी चुनौता पेश करेगा. वो कहते हैं कि इस ऑर्डर को चुनौती दे पाना आसान काम नहीं है. लेकिन यह काम शुरू भी हो गया है.वो कहते हैं कि अमेरिका का इंफ्लुएंस तभी तक है, जब तक उसकी यूरोप में स्वीकार्यता है. अगर यूरोप के देश आपका विरोध शुरू कर देंगे तो आप रूस के साथ कहां-कहां युद्ध करने जाओगे.प्रोफेसर आलम कहते हैं कि ट्रंप की एक नीति है कि वो अमेरिकी सेना को किसी दूसरे देश में नहीं भेजेंगे. लेकिन अगर अमेरिका नैटो से निकल जाए या मीडिल ईस्ट से निकल जाए तो इन इलाकों में उसका सैन्य प्रभाव खत्म हो जाएगा.ऐसे में छोटे प्लेयर पर खड़े होंगे. इससे वर्ल्ड ऑर्डर में बड़ा बदलाव आएगा.प्रोफेसर आलम कहते हैं कि इस बदलाव का असर केवल राजनीतिक ही नहीं होगा, इसका आर्थिक असर भी होगा.

प्रोफेसर आलम कहते हैं कि आज दुनिया में वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन के नियमों के मुताबिक व्यापार हो रहा है. इसमें टैरिफ को लेकर कायदे-कानून रहे हैं. अमेरिका इसका सबसे बड़ा समर्थक रहा है. लेकिन जब तक उसे इसका फायदा हुआ, उसने इसका खूब लाभ उठाया, लेकिन जब उसे लगने लगा कि चीन की वजह से उसे उसके ओपेन इकॉनमी खस्ताहाल हो रही है और उसका मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं तो वो टैरिफ लगाने की बात कर रहा है. यह वर्ल्ड इकॉनामिक आर्डर को प्रभावित करेगा.अमेरिकी टैरिफ के विरोध में दूसरे देश भी टैरिफ लगाएंगे. इसका प्रभाव केवल भारत और चीन पर ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ेगा.वो कहते हैं कि दुनिया एक अनिश्चितता की ओर बढ़ रही है,यह दुनिया की शांति के लिए ठीक नहीं है.
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