खुर्शीद महमूद कसूरी (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी का कहना है कि कश्मीर की पाकिस्तान में एक गहरी गूंज है और घाटी की तनावपूर्ण स्थिति जिहाद के प्रलोभन के रूप में काम करती है। यह चरमपंथी तत्वों को ‘‘साथी मुस्लिमों को मुक्त कराने के वास्ते जिहाद छेड़ने के लिए’’ उकसाती है।
उन्होंने यह भी कहा कि कश्मीर के मुद्दे से पाकिस्तानियों की गहरी निष्ठा जुड़ी होने के कारण जिहादियों की गतिविधियों से सहानुभूति का एक अल्पमत हमेशा रहेगा।
उन्होंने कहा, ‘‘यदि ऐसा मामला नहीं होता तो जिहाद के लिए लोगों के बीच में से लोग अपनी मर्जी से भर्ती होने न जाते।’’ भारत-पाक संबंधों से जुड़ी जिम्मेदारी निभा चुके पाकिस्तान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के वरिष्ठ नेता ने कहा कि हालांकि लोकमत के कुछ प्रभावशाली तबकों और सत्ता के गलियारों में इस बात का अहसास हो गया है कि पाकिस्तान की राज्येत्तर तत्वों को सहयोग करने की नीति का उस पर उल्टा असर हुआ है।
भारत-पाक संबंधों के बारे में उन्होंने कहा, ‘‘पाकिस्तान और भारत के संबंध का पाकिस्तान में मुस्लिमों के बीच चरमपंथी तत्वों पर एक असर पड़ता है। इसके अलावा कश्मीर घाटी की तनावपूर्ण स्थिति भी एक प्रलोभन का काम करती है और चरमपंथी तत्वों को ‘अपने साथी मुस्लिमों को मुक्त कराने के लिए जिहाद करने’ को प्रोत्साहित करती है।’’ उनका मानना है कि दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य होने से पाकिस्तान की बहुलतावादी और उदारवादी ताकतों को मदद मिलेगी और इसके साथ ही दोनों ही देशों में अल्पसंख्यकों की स्थिति में सुधार में भी मदद मिलेगी।
कसूरी का यह भी मानना है कि मुजाहिदीन की गतिविधियों के प्रति शुरुआती समर्थन के बावजूद पश्चिम और खासतौर पर पाकिस्तान को इस जिहाद के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ रही है और ये अब भी इसके पलटवार का शिकार बन रहे हैं। इक्वेटर लाइन पत्रिका के हालिया अंक में उन्होंने लिखा, ‘‘समय के साथ पश्चिम और पाकिस्तान को विभिन्न मतों वाले आतंकी समूहों के बीच बढ़ रहे संबंधों से निपटना पड़ा। पाकिस्तान को यह भी पता चला कि कश्मीर में लड़ रहे कुछ समूह उसके अपने नागरिकों और सुरक्षा बलों पर भी आसानी से हमले बोल सकते हैं।’’
इस पत्रिका में उन्होंने लिखा, ‘‘कई मामलों में खुफिया एजेंसी और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को भी निशाना बनाया गया। पाकिस्तान में जनता की राय अब हिंसक समूहों की गतिविधियों के खिलाफ होने लगी है फिर चाहे यह हिंसा किसी भी कारण से क्यों न की जा रही हो।’’ पत्रिका के लिए लेख लिखने वालों में सभी पाकिस्तानी मूल के लोग हैं।
कसूरी ने कहा कि मध्यवर्ग के लोगों और मीडिया के बड़े तबकों में अब यह बात व्यापक तौर पर मानी जाने लगी है कि भारत के साथ कश्मीर और अन्य मुद्दे सरकार से इतर तत्वों की हिंसा के जरिए नहीं सुलझाए जा सकते और हालांकि इन गतिविधियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा है लेकिन 9/11 के हमलों के बाद यह स्पष्ट हो गया कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ऐसी गतिविधियों के प्रति धैर्य खो बैठा है।
कसूरी ने लिखा, ‘‘यह अहसास हो गया है कि पाकिस्तान और भारत को कश्मीर और अन्य मुद्दों को सुलझाने के लिए बातचीत के जरिए समाधान निकालना होगा। मैं यह संदेश नहीं देना चाहता कि जिस समय मैंने पदभार संभाला, उस समय सभी वर्गों में जिहादी समूहों के प्रति सहयोग की भावना खत्म हो गई। लेकिन कश्मीर के मुद्दे के प्रति पाकिस्तान की दृढ़ प्रतिबद्धता के कारण कुछ वर्गों में जिहादियों की गतिविधियों के प्रति सहानुभूति का तत्व बहुत कम लेकिन ,हमेशा रहेगा।’’
कसूरी के अनुसार, पाकिस्तान में कट्टरपंथ के उदय के कई कारण हैं और इस मुद्दे को कम से कम चार परिदृश्यों में देखना मददगार हो सकता है।
‘‘पहला परिदृश्य विभाजन के बाद नया शासन खड़ा करने के लिए पाकिस्तान के राजनीतिक और संवैधानिक संघर्ष का है। इसने उलेमा की भूमिका को पक्का करते हुए जनरल जिया-उल-हक के तहत इसका विस्तार होने दिया। जिसके फलस्वरूप बाद में चरमपंथी ताकतें मजबूत हुईं।’’
‘‘दूसरा परिदृश्य वर्ष 1979 के बाद यानी ईरानी क्रांति के बाद की स्थिति में सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान पर किए गए हमले और पाकिस्तान द्वारा पूरे पश्चिमी जगत, चीन एवं सउदी अरब के नेतृत्व में पूरे मुस्लिम समुदाय की मदद से इसका विरोध करने में निभाई गई भूमिका के बाद का है। इसने चरमपंथियों और आतंकियों को मजबूत किया।’’
उन्होंने लिखा, ‘‘पाकिस्तान और भारत के बीच के समीकरणों ने पाकिस्तान के भीतर उदार तत्वों की कीमत पर प्रतिक्रियावादी तत्वों को मजबूत करने में मदद की। चौथा कारक जर्ब-ए-अज्ब ऑपरेशन के बाद पाकिस्तान की स्थिति को माना जाता है। यह आपरेशन पाकिस्तानी सेना ने संघ प्रशासित कबायली इलाकों में शरण लिए हुए और अपनी गतिविधियों के लिए पूरी अवसंरचना तैयार कर चुके आतंकियों को मिटाने के लिए चलाया था।’’
उन्होंने यह भी कहा कि कश्मीर के मुद्दे से पाकिस्तानियों की गहरी निष्ठा जुड़ी होने के कारण जिहादियों की गतिविधियों से सहानुभूति का एक अल्पमत हमेशा रहेगा।
उन्होंने कहा, ‘‘यदि ऐसा मामला नहीं होता तो जिहाद के लिए लोगों के बीच में से लोग अपनी मर्जी से भर्ती होने न जाते।’’ भारत-पाक संबंधों से जुड़ी जिम्मेदारी निभा चुके पाकिस्तान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के वरिष्ठ नेता ने कहा कि हालांकि लोकमत के कुछ प्रभावशाली तबकों और सत्ता के गलियारों में इस बात का अहसास हो गया है कि पाकिस्तान की राज्येत्तर तत्वों को सहयोग करने की नीति का उस पर उल्टा असर हुआ है।
भारत-पाक संबंधों के बारे में उन्होंने कहा, ‘‘पाकिस्तान और भारत के संबंध का पाकिस्तान में मुस्लिमों के बीच चरमपंथी तत्वों पर एक असर पड़ता है। इसके अलावा कश्मीर घाटी की तनावपूर्ण स्थिति भी एक प्रलोभन का काम करती है और चरमपंथी तत्वों को ‘अपने साथी मुस्लिमों को मुक्त कराने के लिए जिहाद करने’ को प्रोत्साहित करती है।’’ उनका मानना है कि दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य होने से पाकिस्तान की बहुलतावादी और उदारवादी ताकतों को मदद मिलेगी और इसके साथ ही दोनों ही देशों में अल्पसंख्यकों की स्थिति में सुधार में भी मदद मिलेगी।
कसूरी का यह भी मानना है कि मुजाहिदीन की गतिविधियों के प्रति शुरुआती समर्थन के बावजूद पश्चिम और खासतौर पर पाकिस्तान को इस जिहाद के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ रही है और ये अब भी इसके पलटवार का शिकार बन रहे हैं। इक्वेटर लाइन पत्रिका के हालिया अंक में उन्होंने लिखा, ‘‘समय के साथ पश्चिम और पाकिस्तान को विभिन्न मतों वाले आतंकी समूहों के बीच बढ़ रहे संबंधों से निपटना पड़ा। पाकिस्तान को यह भी पता चला कि कश्मीर में लड़ रहे कुछ समूह उसके अपने नागरिकों और सुरक्षा बलों पर भी आसानी से हमले बोल सकते हैं।’’
इस पत्रिका में उन्होंने लिखा, ‘‘कई मामलों में खुफिया एजेंसी और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को भी निशाना बनाया गया। पाकिस्तान में जनता की राय अब हिंसक समूहों की गतिविधियों के खिलाफ होने लगी है फिर चाहे यह हिंसा किसी भी कारण से क्यों न की जा रही हो।’’ पत्रिका के लिए लेख लिखने वालों में सभी पाकिस्तानी मूल के लोग हैं।
कसूरी ने कहा कि मध्यवर्ग के लोगों और मीडिया के बड़े तबकों में अब यह बात व्यापक तौर पर मानी जाने लगी है कि भारत के साथ कश्मीर और अन्य मुद्दे सरकार से इतर तत्वों की हिंसा के जरिए नहीं सुलझाए जा सकते और हालांकि इन गतिविधियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा है लेकिन 9/11 के हमलों के बाद यह स्पष्ट हो गया कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ऐसी गतिविधियों के प्रति धैर्य खो बैठा है।
कसूरी ने लिखा, ‘‘यह अहसास हो गया है कि पाकिस्तान और भारत को कश्मीर और अन्य मुद्दों को सुलझाने के लिए बातचीत के जरिए समाधान निकालना होगा। मैं यह संदेश नहीं देना चाहता कि जिस समय मैंने पदभार संभाला, उस समय सभी वर्गों में जिहादी समूहों के प्रति सहयोग की भावना खत्म हो गई। लेकिन कश्मीर के मुद्दे के प्रति पाकिस्तान की दृढ़ प्रतिबद्धता के कारण कुछ वर्गों में जिहादियों की गतिविधियों के प्रति सहानुभूति का तत्व बहुत कम लेकिन ,हमेशा रहेगा।’’
कसूरी के अनुसार, पाकिस्तान में कट्टरपंथ के उदय के कई कारण हैं और इस मुद्दे को कम से कम चार परिदृश्यों में देखना मददगार हो सकता है।
‘‘पहला परिदृश्य विभाजन के बाद नया शासन खड़ा करने के लिए पाकिस्तान के राजनीतिक और संवैधानिक संघर्ष का है। इसने उलेमा की भूमिका को पक्का करते हुए जनरल जिया-उल-हक के तहत इसका विस्तार होने दिया। जिसके फलस्वरूप बाद में चरमपंथी ताकतें मजबूत हुईं।’’
‘‘दूसरा परिदृश्य वर्ष 1979 के बाद यानी ईरानी क्रांति के बाद की स्थिति में सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान पर किए गए हमले और पाकिस्तान द्वारा पूरे पश्चिमी जगत, चीन एवं सउदी अरब के नेतृत्व में पूरे मुस्लिम समुदाय की मदद से इसका विरोध करने में निभाई गई भूमिका के बाद का है। इसने चरमपंथियों और आतंकियों को मजबूत किया।’’
उन्होंने लिखा, ‘‘पाकिस्तान और भारत के बीच के समीकरणों ने पाकिस्तान के भीतर उदार तत्वों की कीमत पर प्रतिक्रियावादी तत्वों को मजबूत करने में मदद की। चौथा कारक जर्ब-ए-अज्ब ऑपरेशन के बाद पाकिस्तान की स्थिति को माना जाता है। यह आपरेशन पाकिस्तानी सेना ने संघ प्रशासित कबायली इलाकों में शरण लिए हुए और अपनी गतिविधियों के लिए पूरी अवसंरचना तैयार कर चुके आतंकियों को मिटाने के लिए चलाया था।’’
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