इस आतंकी हमले में 70 से भी अधिक जानें गईं.
पाकिस्तान में सिंध प्रांत के सहवान कस्बे में स्थित लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह के भीतर हुए आतंकी हमले में 70 से अधिक जानें चली गईं. 150 से भी अधिक लोग घायल हो गए. ये वास्तव में दुनिया भर में मशहूर दमादम मस्त कलंदर वाले सूफी बाबा यानी लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह है. माना जाता है कि महान सूफी कवि अमीर खुसरो ने शाहबाज कलंदर के सम्मान में 'दमादम मस्त कलंदर' का गीत लिखा. बाद में बाबा बुल्ले शाह ने इस गीत में कुछ बदलाव किए और इनको 'झूलेलाल कलंदर' कहा. सदियों से यह गीत लोगों के जेहन में रचे-बसे हैं. इसी से इस दरगाह की लोकप्रियता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. दक्षिण एशिया के गायक और संगीतकार इस सूफी गीत को अपने अपने अंदाज में पेश करते आ रहे हैं.
सूफी दार्शनिक और संत लाल शाहबाज कलंदर का असली नाम सैयद मुहम्मद उस्मान मरवंदी (1177-1275) था. कहा जाता है कि वह लाल वस्त्र धारण करते थे, इसलिए उनके नाम के साथ लाल जोड़ दिया गया. बाबा कलंदर के पुरखे बगदाद से ताल्लुक रखते थे लेकिन बाद में ईरान के मशद में जाकर बस गए. हालांकि बाद में वे फिर मरवंद चले गए. बाबा कलंदर गजवनी और गौरी वंशों के समकालीन थे. वह फारस के महान कवि रूमी के समकालीन थे और मुस्लिम जगत में खासा भ्रमण करने के बाद सहवान में बस गए थे. यहीं पर उनका इंतकाल हुआ.
ये भी पढ़े: पाकिस्तान में सूफी दरगाह पर आईएसआईएस का आत्मघाती हमला, 70 से अधिक लोगों की मौत
वह मजहब के खासे जानकार थे और पश्तो, फारसी, तुर्की, अरबी, सिंधी और संस्कृत के जानकार थे. उन्होंने सहवान के मदरसे में भी पढ़ाया था और यहीं पर कई किताबों की रचना की. उनकी लिखी किताबों में मिज़ान-उस-सुर्फ, किस्म-ए-दोयुम, अक्द और जुब्दाह का नाम लिया जाता है. मुल्तान में उनकी दोस्ती तीन और सूफी संतों से हुई जो सूफी मत के 'चार यार' कहलाए.
सूफी दार्शनिक और संत लाल शाहबाज कलंदर का असली नाम सैयद मुहम्मद उस्मान मरवंदी (1177-1275) था. कहा जाता है कि वह लाल वस्त्र धारण करते थे, इसलिए उनके नाम के साथ लाल जोड़ दिया गया. बाबा कलंदर के पुरखे बगदाद से ताल्लुक रखते थे लेकिन बाद में ईरान के मशद में जाकर बस गए. हालांकि बाद में वे फिर मरवंद चले गए. बाबा कलंदर गजवनी और गौरी वंशों के समकालीन थे. वह फारस के महान कवि रूमी के समकालीन थे और मुस्लिम जगत में खासा भ्रमण करने के बाद सहवान में बस गए थे. यहीं पर उनका इंतकाल हुआ.
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वह मजहब के खासे जानकार थे और पश्तो, फारसी, तुर्की, अरबी, सिंधी और संस्कृत के जानकार थे. उन्होंने सहवान के मदरसे में भी पढ़ाया था और यहीं पर कई किताबों की रचना की. उनकी लिखी किताबों में मिज़ान-उस-सुर्फ, किस्म-ए-दोयुम, अक्द और जुब्दाह का नाम लिया जाता है. मुल्तान में उनकी दोस्ती तीन और सूफी संतों से हुई जो सूफी मत के 'चार यार' कहलाए.
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