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फ्रांस में चुनाव में दक्षिणपंथियों की हार और लेफ्ट का चमत्कारी उभार क्यों चौंका रहा?

फ्रांस की संसद का कार्यकाल 2027 में खत्म होना था, लेकिन यूरोपीय संघ में नौ जून को बड़ी हार मिलने के बाद राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों का समय से पहले संसद भंग कर चुनाव कराने का फैसला उलटा पड़ गया है.

फ्रांस में चुनाव में दक्षिणपंथियों की हार और लेफ्ट का चमत्कारी उभार क्यों चौंका रहा?
फ्रांस में लेफ्ट ने जीती सबसे ज्यादा सीट
नई दिल्ली:

फ्रांस में इस बार दक्षिणपंथी पार्टी को चुनाव में जीतने की उम्मीद थी, लेकिन इस बार उनकी उम्मीदों को झटका लगा है. इस चुनाव में न्यू पॉपुलर फ्रंट नामक लेफ्ट गठबंधन ने सबसे ज्यादा 182 सीटे जीत ली है. जबकि इमैनुएल मैक्रोंं की मध्यममार्गी पार्टी ने 163 सीट जीती. जबकि धुर दक्षिणपंथी गठबंधन तीसरे स्थान पर रहा. जिससे फ्रांस एक त्रिशंकु सरकार की स्थिति बन गई, जिसमें किसी भी पार्टी के पास बहुमत नहीं है. किसी भी बहुमत न मिलने से फ्रांस में राजनीतिक और आर्थिक उथल-पुथल देखने को मिल सकती है. चुनाव के अंतिम परिणाम सोमवार को आने के साथ ही स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट हो गई है. फ्रांस की संसद का कार्यकाल 2027 में खत्म होना था, लेकिन यूरोपीय संघ में नौ जून को बड़ी हार मिलने के बाद राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों का समय से पहले संसद भंग कर चुनाव कराने का फैसला उलटा पड़ गया है.

फ्रांस में किस पार्टी की बनेगी सरकार

इस चुनाव में धुर दक्षिणपंथी पार्टी के बहुमत हासिल करने की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. लेफ्ट पार्टी ने धुर दक्षिणपंथी पार्टी की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. अब सवाल ये है कि आगे क्या है, दरअसल फ्रांस में गठबंधन सरकार का कोई इतिहास नहीं रहा है. वहीं लेफ्ट में भी मतभेद देखने को मिल रहा है. अब सवाल ये है कि क्या मैक्रों की पार्टी लेफ्ट के साथ मिलकर सरकार बनाएगी. फिलहाल इसी बात की चर्चा जोरों पर है. जब यूरोपीय संसद के चुनाव हुए, उसमें राइट विंग को भारी कामयाबी मिली. उसके बाद 9 जून को फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने चुनाव का ऐलान कर दिया. पहले दौर की वोटिंग में दक्षिण पंथियों को बड़ी कामयाबी मिलने के संकेत मिले. लेकिन अंतिम समय पर दक्षिण पंथियों को रोकने की जो कोशिश हुई, ये परिणाम उसी का नतीजा है. मैक्रों का कार्यकाल 2027 तक हैं लेकिन इन चुनाव नतीजों से उन पर दबाव बढ़ गया है.

फ्रांस में एक साथ आई लेफ्ट पार्टियां

बीबीसी रिपोर्ट के मुताबिक आरएन नेता जॉर्डन बार्डेला ने सत्ता में अपनी बढ़त को रोकने के लिए राजनीतिक गठबंधनों को दोषी ठहराया. प्रधान मंत्री गेब्रियल अट्टल, जिन्हें केवल सात महीने पहले राष्ट्रपति मैक्रों द्वारा नियुक्त किया गया था. उन्होंने कहा कि वे सुबह अपना इस्तीफा सौंप देंगे. बार्डेला ने अपने समर्थकों से कहा, "हम सिर्फ सत्ता के लिए सत्ता नहीं चाहते हैं, बल्कि इसे फ्रांसीसी लोगों को सौंपना चाहते हैं." वामपंथी गठबंधन में सबसे बड़े समूह का नेतृत्व जीन-ल्यूक मेलेंचन कर रहे हैं. फ्रांस अनबोड, एलएफआई, सोशलिस्ट, ग्रीन्स और कम्यूनिस्ट सहित तमाम दलों ने न्यू पॉपुलर फ्रंट बनाया. उन्होंने अपने समर्थकों से कहा: "राष्ट्रपति की हार स्पष्ट है; राष्ट्रपति को अपनी हार स्वीकार करनी चाहिए और प्रधानमंत्री को जाना चाहिए." 

गेब्रियल ने कहा, "कल सुबह मैं अपना इस्तीफा सौंप दूंगा." "आज रात एक नया युग शुरू होगा." उन्होंने दक्षिणपंथी विचारधारा का समर्थन करने वाले लाखों मतदाताओं की ओर इशारा करते हुए कहा, "मैं आप सभी का सम्मान करता हूं." ग्रीन्स नेता मरीन टोंडेलियर ने सहमति व्यक्त की कि पॉपुलर फ्रंट अब फ्रांस पर शासन करने के लिए तैयार है: "हम जीत गए हैं और अब हम फ्रांस पर शासन करने जा रहे हैं." लेकिन उन्होंने कहा कि अब नए प्रधानमंत्री के लिए जोर देने का समय नहीं है. फ्रांस के सबसे प्रतिष्ठित राजनेताओं में से एक, मैक्रोन के पूर्व प्रधानमंत्री एडौर्ड फिलिप ने कहा कि चुनाव अभियान ने फ्रांस में बहुत अनिश्चितता पैदा कर दी है.

फ्रांस में लेफ्ट पार्टियों क्यों उभरी

फ्रांस में चुनाव परिणाम को लेकर बनी अनिश्चितता खत्म हो गई है. इससे पहले एग्जिट पोल में अनुमान जताया गया था कि ‘नेशनल रैली' 577 सीट वाली नेशनल असेंबली में सबसे अधिक सीट जीत सकती है, लेकिन वह बहुमत के लिए आवश्यक 289 सीट आंकड़े से दूर रह सकती है. इस चुनाव में लेफ्ट के प्रदर्शन से ये अनुमान सही भी साबित हो गया. ‘नेशनल रैली' का नस्लवाद और यहूदी-विरोधी भावना से पुराना संबंध है. साथ ही इसे फ्रांस के मुस्लिम समुदाय का विरोधी भी माना जाता है. फ्रांस के लोग महंगाई और आर्थिक समस्याओं को लेकर काफी परेशानी में हैं.

इसलिए वे राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के नेतृत्व को लेकर भी ज्यादा खुश नहीं है.  फ्रांस में पहले दौर के संसदीय चुनाव में रिकॉर्ड तोड़ वोटिंग हुई. इस बार यहां 60 फ़ीसदी से अधिक वोटिंग हुई. जबकि दो साल पहले हुए चुनाव में स्थिति बिल्कुल अलग थी. जब महज़ 40 फ़ीसदी वोटिंग हुई थी. अबकी बार हुई अधिक वोटिंग का मतलब ये निकाला जा रहा है कि लोग बदलाव के लिए वोट कर रहे हैं, इसलिए वोटिंग के प्रति लोगों में गजब का उत्साह देखने को मिला. धुर-दक्षिण पंथियों को इस बात की पूरी उम्मीद है कि वे मध्यमार्गी पार्टियों की गठबंधन सरकार को सत्ता से बेदखल कर देंगे. लेकिन हुआ ठीक इसके उलट.

फ्रांस में अभी क्यों हुए चुनाव

फ्रांस में संसदीय चुनाव की घोषणा राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने इसलिए कर दी थी क्योंकि जून में हुए यूरोपीय संसद के चुनाव में फ्रांस में मध्यमार्गियों को बड़ी हार का सामना करना पड़ा. जिसमें दक्षिणपंथी पार्टियों को भारी जीत मिली. नौ जून को नतीजे आए और उसी दिन राष्ट्रपति मैक्रों ने संसदीय चुनाव की घोषणा कर दी. उन पर इस बात का नैतिक दबाव था. वैसे ही दो साल पहले हुए संसदीय चुनाव में मैक्रों पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर पाए थे.

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