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This Article is From May 05, 2016

बांग्लादेश : सर्वोच्च अदालत ने युद्ध अपराधी जमात प्रमुख की मौत की सजा बरकरार रखी

बांग्लादेश : सर्वोच्च अदालत ने युद्ध अपराधी जमात प्रमुख की मौत की सजा बरकरार रखी
मोती उर रहमान निजामी (फाइल फोटो)
ढाका: बांग्लादेश की कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी के शीर्ष नेता मोती-उर-रहमान निजामी को गुरुवार को तब तगड़ा झटका लगा जब उच्चतम न्यायालय ने पाकिस्तान के खिलाफ मुक्ति संग्राम के दौरान युद्ध अपराधों के लिए मिली मौत की सजा को बरकरार रखा। उसे यह सजा पहले निचली अदालत ने दी थी।

शीर्ष पद पर पहुंचे हिन्दू न्यायाधीश का फैसला
प्रधान न्यायाधीश सुरेंद्र कुमार सिन्हा की अध्यक्षता वाली चार सदस्यीय अपीली खंड पीठ ने अदालत कक्ष में एक शब्द का फैसला सुनाया। मुस्लिम बहुल देश में शीर्ष न्यायाधीश के पद पर पहुंचने वाले पहले हिन्दू न्यायाधीश ने 72 वर्षीय निजामी की अंतिम अपील पर कहा, ‘खारिज की जाती है।’ निजामी हत्या, बलात्कार और गुप्त रूप से योजना बनाकर शीर्ष बुद्धिजीवियों की हत्या का दोषी है।

कोर्ट परिसर में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था
अदालत के अधिकारियों ने कहा कि आदेश का विवरण बाद में लिखित में जारी किया जाएगा। फैसले से पहले निचली अदालत के विपरीत सुप्रीम कोर्ट परिसर के आसपास सुरक्षा व्यवस्था कड़ी की गई थी। शीर्ष अदालत की कार्यवाही में निर्णय सुनाए जाने के दौरान निजामी की मौजूदगी जरूरी नहीं थी।

निजामी विशेष काल कोठरी में
जमात प्रमुख को उपनगर काशीपुर केंद्रीय कारागार में मौत की सजा पाए दोषी के लिए बनी विशेष काल-कोठरी में रखा गया है। आज का निर्णय निजामी की याचिका को सुनवाई के लिए पीठ को सौंपे जाने के दो दिन बाद आया है, जिसमें शीर्ष अदालत के पहले के फैसले की समीक्षा की मांग की गई थी जो उसकी मौत की सजा की पुष्टि करती है।

जमात ने फैसले को राजनीतिक प्रतिशोध बताया
फैसला के तुंरत बाद, जमात ने एक बयान जारी कर निजामी को ‘राज्य प्रायोजित साजिश का पीड़ित’ बताया और आठ मई को एक दिन की राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। बयान में कहा गया ‘ सरकार ने मानवता के खिलाफ अपराध के मुकदमे के नाम पर मौलाना निजामी को मारने की योजना बनाई है जो उसके राजनीतिक प्रतिशोध का हिस्सा है।’

अब सिर्फ राष्ट्रपति से रहम की मांग का विकल्प
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने सरकार के लिए जमात-ए-इस्लामी प्रमुख को फांसी देने के लिए अंतिम कानूनी अड़चन को हटा दिया है। निजामी के पास अब सिर्फ एक मात्र विकल्प राष्ट्रपति से रहम मांगना है। राष्ट्रपति अब्दुल हामिद पहले ही 1971 के युद्ध अपराध के दोषियों की ऐसी दो गुजारिशों को खारिज कर चुके हैं। इनमें निजामी के तब के सहायक भी शामिल हैं जिन्हें आखिरकार फांसी दे दी गई।

1971 में पाकिस्तानी सैनिकों का साथ दिया था
जमात ने 1971 में पाकिस्तान से बांग्लादेश की आजादी का विरोध किया था और मुक्ति संग्राम के दौरान अत्याचार करने में पाकिस्तानी सैनिकों का साथ दिया था। उस वक्त निजामी पार्टी की छात्र इकाई के साथ ही साथ कुख्यात अल-बद्र मिलिशया बल का प्रमुख भी था जिसमें जमात के कार्यकर्ता थे। वह पिछली बीपीएन नीत चार पार्टियां के गठबंधन की सरकार में मंत्री रह चुका है। गठबंधन में उनकी पार्टी एक महत्वपूर्ण घटक थी।

गणजागरण मंच के कार्यकर्ताओं ने खुशी मनाई
अटॉर्नी जनरल एम आलम ने फैसले के बाद संवाददाताओं को बताया कि अब फांसी देने पर कोई रोक नहीं है, एक बार अदालत अपना आदेश लिखित में दे दे, जिसके जल्द आने की उम्मीद है। युद्ध अपराधियों को अधिकतम सजा देने के लिए अभियान चलाने वाले गणजागरण मंच के कई सौ कार्यकर्ताओं ने फैसले पर खुशी मनाने के लिए राजधानी के शाहबाग इलाके में रैली की जबकि 1971 के पीड़ित परिवारों के सदस्य अपनी संतुष्टि जाहिर करने के लिए निजी चैनलों पर नजर आए।

निजामी के वकील ने सजा घटाने की अपील की
निजामी के प्रमुख वकील के महबूब ने शीर्ष अदालत से उनके मुवक्किल की सजा घटाने की अपील की। उन्होंने कहा कि निजामी अल-बद्र का अध्यक्ष होते हुए भी बड़े पैमाने पर हुई हत्याओं, आगजनी और बलात्कारों में सीधे तौर पर शामिल नहीं था। एम आलम ने दलील का विरोध करते हुए कहा कि मुक्ति संग्राम के दौरान अत्याचार करने में जमात ने पाकिस्तानी सैनिकों का साथ दिया था और अल-बद्र के प्रमुख के तौर पर निजामी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है।

(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है)
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