वैसे तो किसी देश के राजनीतिक इतिहास में एक वर्ष बहुत ही छोटी अवधि होती है, परंतु उस देश की सरकार के कार्यों का मूल्यांकन करने के लिए इतना समय पर्याप्त माना जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि भले ही इतने समय में किसी सरकार की नीतियों का असर धरातल पर न उतर पाए, लेकिन कम से कम उसकी मंशा का अंदाज़ा तो लग ही जाता है! प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के एक साल के कार्यकाल की विवेचना को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. बीते एक वर्ष में बांग्लादेश की आंतरिक और विदेश नीति में व्यापक परिवर्तन देखने को मिला है. जानकारों का मानना है की पिछले साल बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को सत्ता से बेदखल करने के बाद प्रोफेसर यूनुस के शासन काल में जहां एक ओर बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपंथियों और चरमपंथियों का दबदबा बढ़ा है, वहीं लोकतंत्र को बहाल करने के नाम पर आई सरकार खुद ही सत्ता में रहना चाहती है. यूनुस सरकार मनमाने ढंग से चुनाव करने पर तुली हुई है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जला बांग्लादेश
बांग्लादेश ने पिछले साल जुलाई-अगस्त में भारी राजनीतिक उथल-पुथल का अनुभव किया. इसने प्रधानमंत्री शेख हसीना के 15 साल के कार्यकाल को समाप्त कर दिया. तख्तापलट की शुरुआत छात्रों द्वारा किए गए व्यापक विरोध-प्रदर्शनों से हुई. इसकी चिंगारी जुलाई 2024 में सुप्रीम कोर्ट के एक विवादास्पद फैसले से भड़की थी. इस फैसले के बाद 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दिग्गजों के वंशजों के लिए नौकरियों में 30 फीसदी आरक्षण दिया जाना था. 2018 में हसीना सरकार द्वारा आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने के लिए लाए गए कानून को पलटने वाले इस फैसले ने छात्रों और युवा पेशेवरों के बीच भारी असंतोष को जन्म दिया. एक जुलाई 2025 को शांतिपूर्ण तरीके से शुरू हुए ये प्रदर्शन हिंसक सरकार विरोधी प्रदर्शनों में बदल गए, जिसका दमन करने के लिए हसीना सरकार ने पुलिस का सहारा लिया. इसमें कई छात्रों की मौत हो गई.
पांच अगस्त, 2024 को जब भीड़ ने प्रधानमंत्री आवास 'गणभवन' पर धावा बोल दिया और सरकारी इमारतों को लूट लिया, तो बांग्लादेश सेना के प्रमुख जनरल वकर-उज-जमान ने एक टेलीविजन संबोधन में हसीना के इस्तीफे की जानकारी देते हुए एक अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा की.उन्होंने प्रभावी रूप से नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया.कुछ समय बाद नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार का प्रमुख नियुक्त किया गया. हसीना, जिन्हें इस्तीफा देने के लिए केवल 45 मिनट का समय दिया गया था, अपनी बहन शेख रेहाना के साथ सेना द्वारा उपलब्ध कराए गए विमान से भारत आ गईं. उसके बाद से ही वो भारत में रह रही हैं. सत्ता संभालने के बाद यूनुस ने बांग्लादेश में लोकतंत्र को बहाल करने और देश में जल्द चुनाव करने का वादा किया था.

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद बांग्लादेश में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए थे. इस दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी.
बांग्लादेश के लोगों की उम्मीदों पर कुठाराघात
शेख हसीना के पतन के बाद बांग्लादेश में एक नई शुरुआत की उम्मीद जगी. यूनुस के शासन में बांग्लादेश ने कुछ प्रगति तो की है. अंतरिम सरकार का दावा है कि उसने हसीना सरकार के कुछ दमनकारी कानूनों को निरस्त कर दिया है, मीडिया पर प्रतिबंधों में ढील दी है और खुले तौर पर असहमति का माहौल बनाया है. सरकारी अधिकारियों का यह भी दावा है कि वे देश की चुनावी व्यवस्था में सुधार के लिए काम कर रहे हैं. परंतु देश में आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं. मुद्रास्फीति नौ फीसदी से ऊपर बनी हुई है. युवा बेरोजगारी बड़े पैमाने पर है. नए अमेरिकी टैरिफ का खतरा बांग्लादेश की निर्यात-संचालित अर्थव्यवस्था, विशेषकर उसके परिधान उद्योग के लिए खतरा बन गया है. यहां तक कि जिन छात्र नेताओं ने विद्रोह को जन्म दिया था, उनके बीच भी विभाजन उभर आया है. कुछ लोग अंतरिम सरकार में शामिल हो गए हैं. वे सुधार की धीमी प्रक्रिया को अपना रहे हैं, जबकि अन्य लोग खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर हसीना अब बांग्लादेश के अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायाधिकरण में मानवता के विरुद्ध अपराधों के आरोपों का सामना कर रही हैं. वहां उनकी अनुपस्थिति में उन पर मुकदमा चल रहा है. स्वदेश लौटने के आह्वान को नज़रअंदाज़ करते हुए उन्होंने दूर से ही विद्रोही बयान जारी किए हैं. उन्होंने अपने वफादारों की 'मौतों का बदला' लेने की कसम खाई है. इस बीच, बांग्लादेशी अधिकारी इंटरपोल के ज़रिए उनके परिवार के सदस्यों और सहयोगियों की तलाश कर रहे हैं.
गौरतलब है कि यूनुस का पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) से भी टकराव चल रहा है. बीएनपी अब सत्ता की मुख्य दावेदार है. पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया की पार्टी ने इस साल दिसंबर या अगले साल फरवरी में चुनाव कराने की मांग की है. लेकिन यूनुस ने कहा है कि ये चुनाव अप्रैल में हो सकते हैं. अंतरिम सरकार ने हसीना के शासनकाल में भारी दबाव झेल रहे इस्लामवादियों के लिए भी रास्ता साफ़ कर दिया है, जबकि विद्रोह का नेतृत्व करने वाले छात्र नेताओं ने नेशनल सीटिजन पार्टी के नाम से एक नई राजनीतिक पार्टी बना ली है. छात्र दल की मांग है कि ज़रूरत पड़ने पर संविधान को पूरी तरह से फिर से लिखा जाए. उनका कहना है कि बड़े सुधारों के बिना वो चुनाव नहीं होने देंगे.

बांग्लादेश में भारी उथल-पुथल के बाद शेख हसीना इस्तीफा देकर भारत आ गई थीं. उसके बाद से ही वो भारत में रह रही हैं.
कट्टरपंथियों का बढ़ता बोलबाला
इस बीच,कई कट्टरपंथी इस्लामवादी या तो जेल से भाग गए हैं या रिहा हो गए हैं. देश की सबसे बड़ी इस्लामी पार्टी, जमात-ए-इस्लामी, जिसका अतीत विवादास्पद रहा है, अब सरकार में भूमिका की आकांक्षा रखती है. वह अक्सर बीएनपी की तीखी आलोचना करती है. बीएनपी की तुलना वह हसीना की अवामी लीग से करती है. जमात-ए-इस्लामी ने हाल ही में ढाका में शक्ति प्रदर्शन के लिए एक विशाल रैली आयोजित की थी. आलोचकों को डर है कि इस्लामी ताकतों का बढ़ता प्रभाव बांग्लादेश के राजनीतिक परिदृश्य को और भी खंडित कर सकता है.
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने हाल ही में कहा है कि वह पांच अगस्त को अपने लोकतांत्रिक सुधारों की सूची जारी करेगी. यूनुस ने पहले लोकतांत्रिक संस्थाओं में सुधार के लिए एक बड़े पैकेज का अनावरण करने का वादा किया था. लेकिन समझौते तक पहुंचने के प्रयासों में धीमी प्रगति हुई है, क्योंकि राजनीतिक दल 2026 की शुरुआत में होने वाले चुनावों से पहले सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे हैं. यूनुस ने कहा कि वह एक नई राजनीतिक प्रणाली के इर्द-गिर्द व्यापक राष्ट्रीय सहमति बनाने के लिए काम कर रहे हैं जो समावेशी, सहभागी और विश्वसनीय चुनाव प्रदान करे. उन्होंने यह भी कहा है कि उनकी 'जुलाई उद्घोषणा' को शेख हसीना के ख़िलाफ़ हुए जन विद्रोह में शामिल सभी राजनीतिक दलों की उपस्थिति में राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा.
अल्पसंख्यकों पर मंडराता खतरा
अमेरिका के एक प्रमुख थिंक टैंक गेटस्टोन इंस्टीट्यूट ने अपनी रिपोर्ट में यह दावा किया है कि मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार में कट्टर इस्लामी प्रभाव बढ़ा है, जो बांग्लादेश के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र से धार्मिक स्टेट में बदलने का संकेत है.रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि यूनुस के नेतृत्व में बांग्लादेश की राजनीतिक स्थिति एक असफल राज्य की ओर बढ़ रही है. यह स्थिति आतंकवादियों के लिए अनुकूल है क्योंकि सरकार कट्टर इस्लामी प्रभाव को रोकने और रचनात्मक दिशा में आगे बढ़ने में नाकाम रही है. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हिजब-उत-तहरीर जैसे संगठन खुलेआम खलीफा शासन की वकालत कर रहे हैं, जबकि देवबंदी इस्लामी वकालत समूह, हिफाजत-ए-इस्लाम बांग्लादेश, महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ है. अल्पसंख्यकों, खासकर हिंदुओं, पर हमले बढ़ रहे हैं और सरकार उनकी रक्षा करने में नाकाम रही है.

शेख हसीना की सरकार के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई करने वाले नाहिद इस्लाम ने अपने साथियों के साथ एक नई पार्टी बनाई है.
वहीं कनाडा की एक प्रमुख एजेंसी 'ग्लोबल सेंटर फॉर डेमोक्रेटिक गवर्नेंस' की रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में शेख हसीना सरकार के दौरान 51 लिंचिंग की घटनाएं हुई थीं, लेकिन 2024-25 में यह संख्या 12 गुना से अधिक बढ़ गई. रिपोर्ट के अनुसार, सार्वजनिक स्थान अब भीड़ द्वारा हत्या के केंद्र बन गए हैं. ये हत्याएं अक्सर सिर्फ शक, अफवाह या राजनीतिक नाराजगी के कारण हुई हैं. हिंसा में ज्यादातर राजनीतिक या सांप्रदायिक कारण थे. आलोचकों का कहना है कि यूनुस सरकार ने कानून व्यवस्था बहाल करने के बजाय राजनीतिक मजबूती पर ध्यान दिया है और पूर्व शासन की किसी भी पहचान को हटाने को प्राथमिकता दी है. इससे बांग्लादेश के संस्थानों में लोगों का भरोसा और कम हुआ है.
बांग्लादेश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक अधिकार समूह बांग्लादेश हिंदू बौद्ध ईसाई एकता परिषद ने आरोप लगाया है कि यूनुस के नेतृत्व वाली सरकार अल्पसंख्यक समूहों को दबाने के लिए सरकारी संस्थाओं का भी इस्तेमाल कर रही है. पिछले साल 21 अगस्त से 31 दिसंबर के बीच सांप्रदायिक हिंसा की 174 नई घटनाएं हुईं. इनमें अल्पसंख्यक समूहों के 23 सदस्यों की हत्या कर दी गई और नौ महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया. अन्य घटनाओं में आगजनी, तोड़फोड़, लूटपाट और संपत्ति व व्यवसायों पर जबरन कब्ज़ा शामिल था. हिन्दू मंदिरों और संपत्तियों को तो विशेष रूप से निशाना बनाया गया है. परिषद ने बताया कि इस्लाम को कमज़ोर करने के आरोप में अल्पसंख्यक समूहों के कम से कम 15 सदस्यों को या तो गिरफ़्तार किया गया या उन्हें प्रताड़ित किया गया है .

बांग्लादेश में मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार की विदेश नीति में भारत विरोध का प्रमुख स्थान है.
भारत विरोधी विदेश नीति
ऐसा मान जा रहा है की यूनुस प्रशासन ने अलग-अलग राजनीतिक गुटों को एकजुट करने के लिए भारत विरोधी भावना का फायदा उठाया है. हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमलों की कड़ी निंदा करने में यूनुस की अनिच्छा ने इस धारणा को हवा दी है कि उनकी सरकार मौन रूप से हिंदू विरोधी बयानबाजी का समर्थन करती है, जो अक्सर भारत विरोधी भावनाओं से जुड़ी होती हैं. बांग्लादेश के प्रमुख नेताओं द्वारा समय-समय पर भारत के पूर्वोत्तर पर कब्जा करने की धमकियों जैसे भड़काऊ बयानों पर यूनुस की चुप्पी ने अविश्वास को गहरा किया है. मार्च 2025 में चीन की अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने बांग्लादेश को भारत के पूर्वोत्तर के लिए महासागर का संरक्षक बताया था. इस बयान को भारत के रणनीतिक चिकन नेक कॉरिडोर पर अपना प्रभाव बढ़ाने के रूप में देखा गया, इसके कारण नई दिल्ली ने अप्रैल 2025 में बांग्लादेश के निर्यात कार्गो के लिए एक ट्रांसशिपमेंट सुविधा समाप्त कर दी थी. पाकिस्तान के साथ बांग्लादेश के बढ़ते संबंध भी भारत के लिए एक बड़ी परेशानी बन गए हैं. नवंबर 2024 में बांग्लादेश के विदेश सलाहकार ने इस्लामाबाद में पाकिस्तान के प्रधान मंत्री से मुलाकात की और कपड़ा व्यापार और आईटी सहयोग को बढ़ावा देने के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर किए.यूनुस की अप्रैल 2025 की सार्क शिखर सम्मेलन की टिप्पणी, जिसमें भारत की सुरक्षा चिंताओं का उल्लेख किए बिना क्षेत्रीय सहयोग की वकालत की गई, ने संबंधों को और तनावपूर्ण बना दिया है. भारत को डर है कि इससे पाकिस्तान के खुफिया नेटवर्क बांग्लादेश के माध्यम से काम कर सकते हैं.
यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि युनुस सरकार के लिए समस्याएं बढ़ती चली जा रही हैं. कट्टरपंथ, आर्थिक बदहाली और राजनीतिक अस्थिरता के इतर एक समस्या यह भी है कि समय के साथ-साथ बांग्लादेश की अवाम में शेख हसीना के प्रति जो आक्रोश था वो कम होता जा रहा है. वहीं दूसरी ओर अब अमरीका में ट्रंप की सरकार है जिसके संबंध युनुस के साथ बहुत अच्छे तो नहीं हैं. ऐसे में उनके पास बांग्लादेश में जल्द से जल्द चुनाव कराने के अलावा कोई विकल्प तो नज़र नहीं आता है, क्योंकि जितना चुनाव में देर होगा, उतना देश में अराजकता बढ़ने की आशंका बढेगी. अल्पसंख्यक हिन्दुओं और ईसाइयों की सुरक्षा भी उनके लिए एक बड़ी ज़िम्मेदारी हैं.
अस्वीकरण: डा पवन चौरसिया,इंडिया फाउंडेशन में रिसर्च फेलों के तौर पर काम करते हैं और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति पर लगातार लिखते रहते हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.