ग्रेटर नोएडा के चर्चित ग्रैंड वेनिस मॉल के मालिक सतिंदर सिंह भसीन को इलाहाबाद हाईकोर्ट से बड़ी राहत मिली है. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सतिंदर सिंह भसीन और उनकी पत्नी क्वींसी भसीन के खिलाफ गाजियाबाद के स्पेशल जज, एंटी करप्शन, सीबीआई द्वारा जारी गैर जमानती वारंट को रद्द कर दिया है. यह आदेश जस्टिस चंद्र धारी सिंह और जस्टिस लक्ष्मी कांत शुक्ला की डिविजन बेंच ने दोनों की आपराधिक रिट याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए दिया है. मामले के अनुसार याचिकाकर्ता सतिंदर सिंह भसीन और उनकी पत्नी क्वींसी भसीन ने 11 अप्रैल 2025 को एंटी करप्शन कोर्ट से जारी हुए एनबीडब्लू वारंट को चुनौती दी थी. याचिकाकर्ताओं ने ईडी द्वारा दर्ज किए गए मामले में एंटी करप्शन कोर्ट द्वारा जारी गैर जमानती वारंट को रद्द करने की मांग करते हुए याचिका दाखिल की थी.
कोर्ट में दाखिल याचिका के माध्यम से याचिकाकर्ताओं ने एंटी करप्शन कोर्ट, गाजियाबाद के आदेश के खिलाफ कोई निर्देश या आदेश पारित करने की हाईकोर्ट से गुहार लगाई थी. याचिकार्ताओं के खिलाफ ईडी ने प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट,(PMLA) 2002 के तहत मामला दर्ज किया था. मांग की गई कि नोएडा के कासना थाने में नौ जून 2015 के बाद दर्ज किए किए मामले में ईडी द्वारा दर्ज की गई एफआईआर को रद्द किया जाए. साथ ही 10 अप्रैल 2025 को की गई छापेमारी सहित की गई कार्यवाही को भी रद्द किया जाए, क्योंकि ऐसी कार्यवाही अवैध, अधिकार क्षेत्र से बाहर और संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने वाली है. याचिका में कहा गया था कि प्रतिवादी ईडी द्वारा ECIR रजिस्टर करने और छापे मारने की कार्रवाई को PMLA के तहत अधिकार क्षेत्र से बाहर और एक मूल अपराध की कमी के कारण असंवैधानिक घोषित किया जाए जो संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करता है.
बता दें कि याचिकाकर्ता सतिंदर सिंह भसीन मेसर्स भसीन इन्फोटेक एंड इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक है. इसके अलावा ग्रेटर नोएडा के "द ग्रैंड वेनिस मॉल" के मालिक भी है. ये मॉल नोएडा इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी द्वारा एक थीम-बेस्ड कमर्शियल मॉल है और उससे सटे एक कमर्शियल टावर के डेवलपमेंट के लिए अलॉट किए गए एक कमर्शियल प्लॉट पर शुरू किया गया था. ग्रैंड वेनिस मॉल और कमर्शियल टावर का निर्माण 2014-2015 में पूरा हो गया था जिसके बाद ये प्रतिष्ठान चालू हो गए और इनमें कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड आ गए. नौ जून 2015 को याचिकाकर्ता और अन्य लोगों के खिलाफ 2015 में आईपीसी की धारा 406 और 420 के तहत ग्रेटर नोएडा के कासना में एफआईआर दर्ज की गई थी. एफआईआर में प्रोजेक्ट के संबंध में अनियमितताओं का आरोप लगाया गया था. इसके बाद 2015 और 2019 के बीच उसी प्रोजेक्ट के संबंध में बड़ी संख्या में इसी तरह की FIR दर्ज की गई थी, जिसमें यूनिट्स की डिलीवरी न करने, सुनिश्चित रिटर्न का भुगतान न करने, इनवॉइस का भुगतान न करने और पजेशन में देरी आदि का आरोप लगाया गया.
इस मामले में दर्ज की गई पहली एफआईआर नंबर 353/2015 की जांच के बाद पुलिस ने 30 नवंबर 2016 को एक फाइनल रिपोर्ट सबमिट की, जिसमें यह नतीजा निकाला गया कि विवाद असल में सिविल या कमर्शियल नेचर का था और इसे बंद करने की सिफारिश की गई. शिकायतकर्ता ने 10 मार्च 2017 को एक विरोध याचिका दायर की। इसके बाद 17 फरवरी 2019 को एक सप्लीमेंट्री चार्जशीट दायर की गई.
सप्लीमेंट्री चार्जशीट में IPC की धारा 420 हटा दी गई और याचिकाकर्ता के खिलाफ सिर्फ़ IPC की धारा 406 के तहत आरोप बरकरार रखा गया. 15 अप्रैल 2019 को ट्रायल कोर्ट ने सप्लीमेंट्री चार्जशीट का संज्ञान लिया और IPC की धारा 406 के तहत अपराध के लिए याचिकाकर्ता को समन जारी किया. इस बीच संबंधित प्रोजेक्ट से जुड़ी कई FIR को देखते हुए याचिकाकर्ता की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएँ दायर की गई, जिसके परिणामस्वरूप कार्यवाही हुई. छह नवंबर 2019 के अंतरिम आदेश से सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि एक ही प्रोजेक्ट के संबंध में एक जैसे आरोपों वाली कई FIR मौजूद थी. याचिकाकर्ता को जमानत भी दी गई साथ ही सद्भावना दिखाने और समझौते को सुविधाजनक बनाने के लिए एक शर्त के तौर पर 50 करोड़ रुपये जमा करने का निर्देश दिया गया.
याचिकाकर्ता ने उक्त शर्त का पालन किया और उसे जमानत पर रिहा कर दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने 12 मई 2022 के आदेश से रिट याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने 'ग्रैंड वेनिस' प्रोजेक्ट से संबंधित सभी 46 FIR को मुख्य FIR नंबर 353/2015 में मिला दिया और निर्देश दिया कि अन्य सभी चार्जशीट और FIR भी मर्ज हो जाएंगी और पूरा मामला केवल मुख्य FIR से ही आगे बढ़ेगा. जब मूल FIR में कार्यवाही चल रही थी तभी डायरेक्टरेट ऑफ़ एनफोर्समेंट, लखनऊ ज़ोनल ऑफिस ने याचिकाकर्ताओं के खिलाफ प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट (PMLA) 2002 की धारा 3/4 के तहत 12 मार्च 2021 को FIR नंबर 353/2015 के आधार पर मामला दर्ज किया.
इसके बाद याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कई बार समन जारी किया गया. नौ अप्रैल 2025 को प्रवर्तन निदेशालय ने याचिकाकर्ताओं के खिलाफ धारा 17 PMLA के तहत तलाशी और जब्ती की कार्यवाही करने के लिए एक ऑथराइज़ेशन जारी किया. 10 अप्रैल 2025 को ईडी के अधिकारियों ने याचिकाकर्ता के दिल्ली और नोएडा स्थित आवास और बिज़नेस परिसर में तलाशी ली और आवास पर तलाशी 12 अप्रैल 2025 तक जारी रही. तलाशी के दौरान 36 लाख रुपये की राशि बरामद की गई जो कथित तौर पर गोवा में M/s इंडिया ओशन वर्ल्ड प्राइवेट लिमिटेड के 50 करोड़ के लॉकर में मिली थी.
यह एक ऐसी कंपनी है जिसमें याचिकाकर्ता का कहना था कि वह न तो डायरेक्टर है और न ही शेयरहोल्डर. 11 अप्रैल 2025 को स्पेशल जज, एंटी-करप्शन, सीबीआई, गाजियाबाद ने उसी ECIR के संबंध में याचिकाकर्ता के खिलाफ गैर-जमानती वारंट (NBW) जारी किया. याचिकाकर्ताओं की तरफ से कोर्ट में सीनियर एडवोकेट मनीष तिवारी,अधिवक्ता आदित्य यादव, मलय प्रसाद, सलोनी माथुर, शिवम यादव और तान्या मक्कड़ ने दलीलें दी. याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वकीलों ने कहा कि ईडी द्वारा ECIR की शुरुआत और उसे जारी रखना पूरी तरह से अधिकार क्षेत्र से बाहर है क्योंकि PMLA के तहत मौजूदा शेड्यूल अपराध की मूलभूत शर्त मौजूद नहीं है. यह बताया गया है कि FIR नंबर 353/2015 में जो इस ECIR के लिए मूल अपराध है उसमें आईपीसी की धारा 420 IPC के तहत 17 फरवरी 2019 की सप्लीमेंट्री चार्जशीट में साफ तौर पर हटा दिए गए थे और अब याचिकाकर्ता पर केवल धारा 406 के तहत कार्रवाई की जा रही है.
धारा 406 में PMLA के तहत शेड्यूल अपराध नहीं है और PMLA की अनुसूची के अनुसार उसके खिलाफ कोई अन्य शेड्यूल अपराध लंबित नहीं है. कहा गया है कि एंटी करप्शन/सीबीआई के स्पेशल जज द्वारा 11 अप्रैल 2025 को जारी किया गया ओपन-एंडेड गैर जमानती वारंट पूरी तरह से अधिकार क्षेत्र से बाहर है और वारंट जारी करने के स्थापित सिद्धांतों के विपरीत है. सभी पक्षों को सुनने के बाद कोर्ट ने अपने 70 पन्नों के फैसले में कहा कि मौजूदा मामले में याचिकाकर्ता का बयान पीएमएलए के सेक्शन 50 की धारा के तहत 12 जुलाई 2022 को रिकॉर्ड किया गया था. तब से ढाई साल से ज़्यादा समय बीत चुका है. ईडी लगातार डॉक्यूमेंट्स और जानकारी मांग रही है.
एक लंबी जांच में किसी न किसी मोड़ पर जांच एजेंसी को अपनी जांच खत्म करके आगे बढ़ना चाहिए और शिकायत दर्ज करनी चाहिए या जांच बंद कर देनी चाहिए. कोर्ट ने आगे कहा कि ईडी के पास मनी लॉन्ड्रिंग अपराधों की जांच करने का कानूनी अधिकार और विशेषज्ञता है. हालांकि NBW जारी करना एक जबरदस्ती का कदम है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कम करता है और इसलिए यह संवैधानिक जांच के दायरे में आता है. जब कोई आरोपी लंबे समय तक काफी सहयोग करता है और ED यह साबित करने में नाकाम रहती है कि उसने बचने की कोशिश की है तो NBW जारी करना मनमाना हो जाता है.
कोर्ट ने गाजियाबाद एंटी करप्शन कोर्ट द्वारा 11 अप्रैल 2025 को जारी किए गए NBW को रद्द करते हुए याचिकाकर्ता को ED द्वारा पहले से लिखित सूचना मिलने पर जांच में शामिल होने और उसमें सहयोग करने का निर्देश दिया. कोर्ट ने साथ ही तलाशी, ज़ब्ती और गैर-जमानती वारंट जारी करने जैसे जबरदस्ती के उपायों का इस्तेमाल करते समय कानूनी सुरक्षा उपायों और संवैधानिक सीमाओं का सख्ती से पालन किए जाने का आदेश भी दिया. कोर्ट ने अंत में अपने आदेश में कहा कि तथ्यों और कानून के मिले-जुले आकलन से यह जरूरी हो जाता है कि सीमित राहत दी जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि जांच शक्तियों का इस्तेमाल तय सीमाओं के अंदर हो और ED को उन आरोपों की कानूनी जांच करने से बेवजह रोका न जाए जो पहली नजर में कई एफआइआर से जुड़े है और जिनमें शेड्यूल अपराध शामिल है.
कोर्ट ने कहा कि दिए गए निष्कर्ष व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आर्थिक अपराधों की प्रभावी जांच की ज़रूरत के बीच संतुलन बनाते है और इसके लिए कई निर्देश दिए. कोर्ट ने कई शर्तों के साथ याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया और लंबित आवेदन को भी निस्तारित कर दिया. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पैराग्राफ में इस न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों को किसी भी FIR/ECIR में मामले के गुण दोष के रूप में नहीं माना जाएगा.
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं