प्रतीकात्मक चित्र
खुदा जब दुख देता है, तो उसे हटाने के रास्ते भी दिखा देता है. ऐसा ही कुछ हुआ है, मुरादाबाद के कुंदरकी कस्बे के रहने वाले 23 साल के शादाब के साथ. शादाब 8 साल की उम्र से ही सूफी कव्वाली गा रहे हैं और उन्हें चेन्नई, दार्जिलिंग और नेपाल तक से बुलावा आ रहा है.
बुरा वक्त भी देखा
आज से 15 साल पहले उनकी परिवारिक स्थिति अच्छी नहीं थी. उनके वालिद हफीज अहमद का कारोबार बिल्कुल ठप हो गया था. तब पिता ने अपने 6 बेटों में से 5वें नंबर के शादाब को कव्वाली सिखाने का काम शुरू किया. धीरे-धीरे बेटे की कव्वाली से कमाए पैसों से घर चलने लगा.
छत से टपकता था पानी
शादाब अपनी आर्थिक तंगी के दौर में कच्चे मकान में रहते थे, जिसकी छत बारिश के दिनों में टपककर घर में भी उतना ही पानी भर देती थी, जितना बाहर पानी होता था, पर आज वह अच्छा कमा लेते हैं. उनका घर पक्का और आधुनिक सुविधाओं से लैस हो चुका है.
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उन्होंने ही इंकलाब को बनाया था अमिताभ...
'यह एक दुनिया' के लिए डॉ. सत्यनारायण को बिहारी पुरस्कार
उर्दू के अलावा हिन्दी, अरबी, फ्रेंच और इंग्लिश में भी किताब लिख चुके हैं निजाम सिद्दीकी
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है पुश्तैनी काम...
उनके परिवार में कव्वाली गाने का काम दादा के जमाने से चला आ रहा है, जो उनके वालिद के बाद वह कर रहे हैं. पतली कदकठी के आधुनिक से देखने वाले शादाब कव्वाली के मंच पर पूरे मंजे हुए कव्वाल लगते हैं. शादाब को अपने परिवार से इस कला को जीवित रखने के लिए बहुत सहयोग और प्यार मिलता है.
चुनौती भरा रहा सफर
शादाब कव्वाली के अब तक के सफर में आने वाली चुनौती के बारे में बताते हैं, "अपने सीनियर कलाकारों के सामने मैं थोड़ा सा घबरा जाता हूं. पर मेरा उसूल है कि मैं जब तक वजू नहीं कर लेता हूं, तब तक मैं महफिल में नहीं बैठा हूं. वजू करने के साथ ही मैं अपनी अम्मी को फोन करके बताता हूं कि मैं महफिल में जा रहा हूं. अल्लाह और अम्मी की दुआ से मैं अब तक की सारी चुनौतियों को जीतकर आया हूं."
(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
बुरा वक्त भी देखा
आज से 15 साल पहले उनकी परिवारिक स्थिति अच्छी नहीं थी. उनके वालिद हफीज अहमद का कारोबार बिल्कुल ठप हो गया था. तब पिता ने अपने 6 बेटों में से 5वें नंबर के शादाब को कव्वाली सिखाने का काम शुरू किया. धीरे-धीरे बेटे की कव्वाली से कमाए पैसों से घर चलने लगा.
छत से टपकता था पानी
शादाब अपनी आर्थिक तंगी के दौर में कच्चे मकान में रहते थे, जिसकी छत बारिश के दिनों में टपककर घर में भी उतना ही पानी भर देती थी, जितना बाहर पानी होता था, पर आज वह अच्छा कमा लेते हैं. उनका घर पक्का और आधुनिक सुविधाओं से लैस हो चुका है.
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है पुश्तैनी काम...
उनके परिवार में कव्वाली गाने का काम दादा के जमाने से चला आ रहा है, जो उनके वालिद के बाद वह कर रहे हैं. पतली कदकठी के आधुनिक से देखने वाले शादाब कव्वाली के मंच पर पूरे मंजे हुए कव्वाल लगते हैं. शादाब को अपने परिवार से इस कला को जीवित रखने के लिए बहुत सहयोग और प्यार मिलता है.
चुनौती भरा रहा सफर
शादाब कव्वाली के अब तक के सफर में आने वाली चुनौती के बारे में बताते हैं, "अपने सीनियर कलाकारों के सामने मैं थोड़ा सा घबरा जाता हूं. पर मेरा उसूल है कि मैं जब तक वजू नहीं कर लेता हूं, तब तक मैं महफिल में नहीं बैठा हूं. वजू करने के साथ ही मैं अपनी अम्मी को फोन करके बताता हूं कि मैं महफिल में जा रहा हूं. अल्लाह और अम्मी की दुआ से मैं अब तक की सारी चुनौतियों को जीतकर आया हूं."
(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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