प्रेमचंद के बाद फणीश्वरनाथ रेणु आधुनिक हिंदी गद्य के दूसरे ऐसे पुरखे हैं, जिनका लिखा साहित्य भारतीय समाज की रूढ़ियों के बदलाव के संकेतक चिह्न के रूप में देखा जाता रहा है. यह देखना सुखद है कि रेणु जी के जन्म शताब्दी वर्ष में छिटपुट चिंतन-मनन के प्रयास को एक ठोस शक्ल देने का काम 'लमही' ने फणीश्वरनाथ रेणु पर केंद्रित अंक में किया है. कालजयी साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु के जीवन और रचनाशीलता के विविध आयामों को देखने-परखने वाले लेखकों में युवा-प्रतिभा को संपादक ने पूरा मौका दिया है. विजय राय अपने संपादकीय में कहते हैं कि रेणु सचमुच प्रेमचंद की परंपरा के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं. इनकी किस्सागोई में प्रेम के जमीनी शेड्स और लोक संगीत की अभिभूत कर देनेवाली जुगलबंदी है, जो पाठकों के अंतर्मन पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ देती है.
संपादकीय के अलावा इस अंक में कुल अड़तीस आलेख हैं. निर्मल वर्मा, सुरेंद्र चौधरी और नित्यानंद तिवारी के प्रसिद्ध लेख तो इस अंक में शामिल हैं ही, साथ ही नलिन विलोचन शर्मा का वह कालजयी लेख भी है, जिसमें मैला आंचल के प्रकाशन के तुरंत बाद उन्होंने रेणु के बारे में कहा था कि मैला आंचल की भाषा से हिंदी समृद्ध हुई है. रेणु ने कुशलता से ऐसी शैली का प्रयोग किया है जिसमें आंचलिक भाषा तत्त्व परिनिष्ठित भाषा में घुलमिल जाते हैं. उन्होंने तो यहां तक कह डाला था कि हिंदी के उपन्यास साहित्य में जो गत्यावरोध था, वह इस कृति से हट गया है. यह बात नलिन विलोचन शर्मा 1955 में कह रहे थे. बाकी सब इतिहास है.
रेणु साहित्य के गहरे अध्येता प्रेमकुमार मणि ने अन्यत्र कहीं लिखा है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में रेणु का महत्त्व वही है, जो फ्रांसीसी परिप्रेक्ष्य में अपने समय में बाल्जाक का था. आलोचक अरुण होता कहते हैं कि जहां प्रेमचंद ने आर्थिक संघर्ष को अपने कथा के केंद्र में रखा, वहीं, रेणु ने संस्कृति, लोक तथा मानवीय अस्मिता को सर्वाधिक महत्त्व दिया. रेणु के दोनों प्रमुख उपन्यासों के केंद्रीय चरित्र गांव राजनीतिक हलचलों का विश्वसनीय केंद्र हैं. अवधेश प्रधान रेणु के पहचानने के क्रम में कहते हैं कि रेणु ने गांव की संस्कृति को सौंदर्य बोध दिया है. उस थाती को उन्होंने साहित्य के संस्कार में ऐसे संजोकर रखा कि उसे सौंदर्यबोध का अंग बना दिया.
फणीश्वरनाथ रेणु पर केंद्रित लमही के इस अंक में उनकी सात प्रसिद्ध कहानियों का मूल्यांकन भी किया गया है. पंचलाइट/पंचलैट पर वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने और अजीत प्रियदर्शी के लेख हैं. पहलवान की ढोलक कहानी की विवेचना पंकज शर्मा ने किया है तो रसप्रिया का अंतर्पाठ अरविंद कुमार ने प्रस्तुत किया है. इस अंक के ज्यादातर लेख अकादमिशियनों के लिखे हुए हैं, शम्भु गुप्त, रमेश अनुपम, नीरज खरे, गोपेश्वर सिंह, सूरज पालीवाल और रोहिणी अग्रवाल के लेख महत्त्वपूर्ण हैं. डॉ. रमा रेणु के समग्र कथा साहित्य के अवलोकन के बाद लिखती हैं कि रेणु के यहां नायक और खलनायक का चुनाव जाति से नहीं उसकी व्यावहारिक गतिविधि से किया जाता है. रेणु भारतीय समाज के निम्न (लोक) और अभिजन (उच्च) समाज की वैचारिक दीनता का इलाज करते हैं. उनके यहां किसी भी प्रकार की दबंगई नहीं है.
पूरी पत्रिका पर संपादक ने लेखकों के चुनाव मे जिस जनतांत्रिकता का परिचय दिया है, वह कम ही पत्रिकाओं में देखने को मिलता है. रेणु के शतवार्षिकी वर्ष में 'लमही' ने उनके लिखे साहित्य पर एक प्रारंभिक पाठ-सा तैयार कर दिया है. रेणु की मृत्यु पर अप्रैल 1977 में निर्मल वर्मा का ये कहना आज भी उतना ही सच है, जितना उस समय कहा गया था कि 'उनका अचानक हमारे बीच से चला जाना बहुत क्रूर और असहनीय जान पड़ता है.' आज तैंतालीस वर्ष बाद भी हम इस असहनीय दर्द को महसूस करते हैं.
पुस्तक: लमही
पुस्तक समीक्षा: मनोज मोहन
संपादकः विजय राय
वर्षः 13 अंक 2 (अक्टूबर-दिसंबर 2020)
कीमत: ₹ 100.
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