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This Article is From Jan 17, 2018

किताब-विताब : 'खोखला पहाड़'- यह तिब्बत की तकलीफ़ है

'खोखला पहाड़' ची नाम के एक छोटे से तिब्बती गांव की कहानी है.

किताब-विताब : 'खोखला पहाड़'- यह तिब्बत की तकलीफ़ है
उपन्यास का आवरण चित्र
समकालीन चीनी लेखकों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले आ लाए मूलतः तिब्बती लेखक हैं. उनको पढ़ते हुए तिब्बत का लेखक होने की कुछ मुश्किलें और विडंबनाएं समझ में आती हैं. आ लाए की परवरिश उस चीन या तिब्बत में हुई, जहां सांस्कृतिक क्रांति की आंधी पुराने सारे मूल्यतंत्र को तहस-नहस कर देने पर आमादा थी. वह पुरानी आस्थाओं को ध्वस्त कर रही थी, पुराने ज्ञान को संदेह से देख रही थी और एक ऐसी दुनिया बनाना चाहती थी जिसमें किसानों और मजदूरों का वर्चस्व हो. चीन की इस लाल क्रांति ने जो कुछ रचा, उसकी बहुत सारी भव्य कहानियां बहुत पहले से सुलभ हैं. लेकिन उस सांस्कृतिक क्रांति ने जो कुछ नष्ट किया, जो नई विडंबनाएं पैदा कीं, उनकी कहानियां अब धीरे-धीरे सामने आ रही हैं.

कुछ बरस पहले नोबेल विजेता चीनी लेखक मो यान की रचनाएं सामने आईं तो समझ में आया कि बहुत सारे लोगों ने उस सांस्कृतिक क्रांति की बड़ी क़ीमत चुकाई. धीरे-धीरे वैसी और भी कहानियां सामने आ रही हैं. आ लाए के उपन्यासों 'लाल पोस्ते के फूल' और 'खोखला पहाड़' को इसी कड़ी में पढ़ा जा सकता है. आ लाए की मुश्किल एक और है. जिस तिब्बत की कहानी उन्हें कहनी है, उसकी भाषा वे भूल चुके हैं. उनकी सारी शिक्षा-दीक्षा चीनी में हुई है. तो एक तरह से एक परायी भाषा में उन्हें अपना अनुभव रखना है. जाहिर है, जो अनुभव रखना है, उसका भी एक हिस्सा व्यवस्था को रास नहीं आता, तो उसे एक ऐसी शैली में रखना है जो स्वीकृत भी हो, संप्रेषणीय भी हो सके. यहां हम पाते हैं कि आ लाए जरूरत पड़ने पर यथार्थवाद के प्रचलित शिल्प में तोड़फोड़ भी करते हैं. 

'खोखला पहाड़' ची नाम के एक छोटे से तिब्बती गांव की कहानी है. तिब्बत के इस गांव में सांस्कृतिक क्रांति बिल्कुल अजूबे की तरह पहुंची है. गांव के बौद्ध मंदिर में बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा गिरा दी गई है और मंदिर के लामा-भिक्षू और दूसरे लोग डरे हुए हैं कि जरूर गांव पर विपदा आएगी. गांव के बुज़ुर्ग नए तौर-तरीक़ों में अपने को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं और नई पीढ़ी और नए दौर के नुमाइंदों का उद्धत शक्ति प्रदर्शन उन्हें मायूस कर रहा है. उपन्यास की कहानी अपनी मां के साथ रह रहे एक गरीब बच्चे गेला से शुरू होती है जिस पर एक दूसरे बच्चे बनी की मौत की वजह बनने का इल्ज़ाम है. इस इल्जाम के पीछे उसकी गरीबी और लाचारी भी है.

विडंबना यह भी है कि जिस बच्चे की मौत हुई है, उसके परिवार को एहसास है कि गेला उसके बच्चे की मौत का ज़िम्मेदार नहीं है. फिर भी गांव में चल रहे प्रवाद और गांव का बदल रहा मिज़ाज बच्चे को गांव से दूर करते जाते हैं. लेखक बड़ी बारीकी से उस असंवेदनहीनता को रेखांकित करता चलता है जो नई व्यवस्था अपनी सपाट और आधी-अधूरी समझ के साथ पैदा कर रही है. बीजिंग से ची गांव तक पहुंचते-पहुंचते आदेश भी बदल जाते हैं, अफसरों के रंग-ढंग भी. इन सबके बीच गुस्से, प्रतिशोध और प्रायश्चित तक की अलग-अलग तहें हैं. वह बच्चा जंगल में शरण लेता है और अंततः  नहीं रहता है. एक दिन वह लौटता है लेकिन पाता है कि लोग उसे न देख रहे हैं न उस पर ध्यान दे रहे हैं. तब उसे समझ में आता है कि वह प्रेत हो गया है. यह उपन्यास का पहला हिस्सा है. इसके बाद वह उजाड़ शुरू होता है और अंततः वह आग लगती है जिसका उपन्यास के भीतर प्रतीकात्मक महत्व भी है और वास्तविक महत्व भी. यह सदियों से चली आ रही एक व्यवस्था पर दूसरी व्यवस्था के जबरन आरोपण से पैदा हुई पीड़ा की कहानी है.

पुरानी व्यवस्था तर्क से ज़्यादा आस्था पर चलती थी लेकिन उस आस्था में सदियों से हासिल अनुभव का निचोड़ भी शामिल होता था. पुराने लोग अपने वृक्षों, अपने जंगलों, अपने पहाड़ और अपनी हवा को पहचानते थे और आंधी-तूफ़ान, बाढ़ या आग के किसी संकट को सीमित करने की तरकीबें जानते थे. लेकिन नई व्यवस्था का तर्कशास्त्र इस समूचे अनुभव को ख़ारिज करता है. ची गांव से लगे जंगलों में जब आग लगती है तो बीजिंग तक से नौजवान क्रांति के गीत गाते हुए आग का मुक़ाबला करने चले आते हैं. लेकिन उनके पास जुनून है, ज़िद है, हौसला है, मगर वह समझ नहीं है जो इस आग से विनम्रतापूर्वक मुठभेड़ करे. आग आख़िरकार बुझ जाती है. शायद यह उपन्यासकार की मजबूरी हो कि वह क्रांति की ताकतों को कमतर न बताए. लेकिन वह बहुत सूझबूझ से उस संकट का सुराग दे जाता है जो इस क्रांति की वजह से पैदा हुई है. यह सिर्फ राजनीतिक या सांस्कृतिक संकट नहीं है, यह पूरा पारिस्थितिकीय संकट है जिसे विकास की ज़िद पैदा कर रही है.

आ लाए ने यह कहानी मानवीय ढंग से लिखी है. अपने समाज से प्यार करने वाले कुछ किरदार हमारे सामने आते हैं, तर्क और आस्था के द्वंद्व में फंसे किरदार भी मिलते हैं, और वे लोग भी जो समय के साथ बदलने को तैयार हैं. मगर आखिरी सबक शायद यही है- थोपा हुआ कुछ भी ख़तरनाक और विध्वंसकारी होता है, भले ही उसका मक़सद मानवीय क्यों न हो. यह सबक जितना बीते हुए चीन के लिए है, उतना ही समकालीन भारत के लिए भी. शायद बड़ी रचनाओं की ताकत यह भी होती है-  उनमें हमारे चेहरों, हमारे समाज की झलक मिलती है. उपन्यास का अनुवाद जाने-माने लेखक और पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है. इसके पहले भी वे कई विदेशी उपन्यासों के अनुवाद कर चुके हैं.

खोखला पहाड़: आ लाए; अनुवादक, आनंद स्वरूप वर्मा; प्रकाशन संस्थान; (600 रुपये हार्डबाउंड, 200 रुपये पेपरबैक)

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