नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में असम और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं. आम लोगों से लेकर छात्र, लेखक, कलाकार, कार्यकर्ता और तमाम संगठन इस बिल के खिलाफ सड़कों पर हैं. प्रशासन ने कर्फ्यू लगा दिया है. 10 जिलों में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं. यातायात व्यवस्था ठप पड़ चुकी है. विरोध इतना तीव्र हो चुका है कि प्रदर्शनकारियों ने मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल के घर को भी निशाना बना डाला. रेलवे स्टेशनों पर आग लगा दी गई. कई जगह पुलिस से झड़प हुई तो स्थिति को नियंत्रण में लाने के आंसू गैस के गोले छोड़े गए और लाठी चार्ज करना पड़ा. सेना की भी मदद ली जा रही है. असम सरकार ने और सैन्य टुकड़ियों की मांग की है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर असम में ही इस व्यापक विरोध की वजह क्या है? क्योंकि अगर सिर्फ वजह धार्मिक होती तो फिर देश के और भी हिस्सों में इस तरह के प्रदर्शन हो रहे होते. दरअसल यहां (असम में) लड़ाई धर्म निरपेक्षता से ज्यादा अपनी पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखने की है.
असम समझौते का उल्लंघन
असम में नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध इसलिए किया जा रहा है क्योंकि इससे असम समझौते का उल्लंघन होता है. 15 अगस्त 1985 को भारत सरकार और असम नेताओं के बीच हुआ ये समझौता यहां के लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक और भाषाई पहचान को सुरक्षा प्रदान करता है. 6 साल के लंबे विरोध और 800 से ज्यादा लोगों की कुर्बानी के बाद हुए इस समझौते के मुताबिक राज्य में वही प्रवासी वैध हो सकता है जो 25 मार्च 1971 तक आया हो. इसके बाद जो भी विदेशी राज्य में आया है उसे एनआरसी लागू कर बाहर निकाला जाएगा. ऐसा इस समझौते में कहा गया. लेकिन इस विधेयक में इसकी तारीख 31 दिसंबर 2014 निर्धारित की गई है.
लोगों का कहना है कि पिछले 35 सालों से एनआरसी लागू न करने और अब नागरिकता संशोधन बिल में समय सीमा बढ़ा देने से अवैध शरणार्थियों को नागरिकता मिल जाएगी. जबकि 31 अगस्त को जब यहां एनआरसी पर काम शुरू हुआ तो 19 लाख लोग इससे बाहर हो गए. इसमें ज्यादातर हिंदू हैं या वे आदिवासी लोग हैं जिन्हें असम का मूल निवासी मान जाता है.
भाषाई आधार पर झटका मिलने का खतरा
असम के लोगों को अपने बचे-खुचे असमिया गौरव को भी ठेस पहुंचने का खतरा सता रहा है. हालांकि वे इससे पहले ही चोट खाए हुए हैं. 1836 में औपनिवेशिक सरकार ने जब यहां बंगाली को राज्य की भाषा घोषित किया तो यहां के लोगों को भाषाई आधार पर भेदभाव का पहला झटका लगा. 37 साल बाद सरकार बदलने के बावजूद असम वासियों की भाषा को राज्य में वो सम्मान नहीं मिला. अब इस बिल के आधार पर बांग्लादेश से आने वाले प्रवासी हिंदू बंगालियों से एक बार फिर उनकी भाषाई संस्कृति को चुनौती मिलेगी और असमिया पर बंगाली हावी हो जाएगी.
संसाधनों की लड़ाई
समाज संस्कृति और भाषाई पहचान से हटकर ये लड़ाई संसाधनों की भी है. जहां अभी राज्य के संसाधनों पर यहां के लोगों या 1985 के समझौते के आधार पर 1971 तक आए प्रवासियों का अधिकार है वहीं इस बिल के लागू होते ही अब उन संसाधनों पर हक जताने कुछ सैकड़ों-हजार लोगों की बाढ़ और आ जाएगी. यही वजह है कि राज्य के लोग इसका पुरजोर विरोध करने में लगे हैं.
बता दें मंगलवार को लोकसभा से और गुरुवार को राज्यसभा से नागरिकता संशोधन बिल को मंजूरी मिल गई है. अब राष्ट्रपति की मुहर के साथ ही ये कानून भी बन जाएगा. विपक्ष ने इसका खुलकर विरोध किया लेकिन बीजेपी के बहुमत के आगे उसकी आवाज दब गई. अब इस बिल को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देनी की बात की जा रही है, जहां विपक्ष को उम्मीद है कि इसे खारिज कर दिया जाएगा.