- सुप्रीम कोर्ट के फैसले में अरावली की नई परिभाषा में केवल सौ मीटर से ऊंची पहाड़ियां ही शामिल हैं.
- पर्यावरणविदों के मुताबिक फैसला अरावली के ज्यादातर हिस्सों से संरक्षण हटाकर पारिस्थितिक नुकसान को बढ़ावा देगा.
- अरावली पर्वतमाला चंबल, साबरमती और लूणी नदियों का स्रोत है और थार रेगिस्तान को फैलने से रोकती है.
खत्म होती अरावली को लेकर पर्यावरणविद चिंता में हैं. वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार की मांग उठा रहे हैं. पर्यावरण कार्यकर्ता प्रणय लाल ने 2019 में अपने लेख "अरावली: अ माउंटेन लॉस्ट" में लिखा था कि अगर आप करीब तीन अरब साल पहले कोई एलियन या अंतरिक्ष यात्री होते, तो भारत के भूभाग की उत्तरी सीमा को परिभाषित करने वाली अरावली पर्वत श्रृंखला देखते. लेकिन अब अरावली नेताओं और निगमों के लालच, संकीर्ण सोच और अदूरदर्शिता की वजह से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है.
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#SaveAravalli क्यों कर रहा ट्रेंड?
अरावली पर्वतमाला 2025 में एक बार फिर राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गई है. सोशल मीडिया पर #SaveAravalli जैसे हैशटैग छाए हुए हैं. सोशल वर्कर्स से लेकर राजनेताओं तक सभी इसे भारत के सबसे प्राचीन पर्वतों के लिए संभावित "मौत का फरमान" बता रहे हैं. इसकी वजह यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर, 2025 को एक फैसला दिया था, जिसमें पहाड़ियों की एक नई परिभाषा दी गई, जिसमें कहा गया था कि 100 मीटर से ऊंचाई वाली पहाड़ियां ही अरावली मानी जाएंगी.
अरावली पर क्या कह रहे पर्यावरणविद?
पर्यावरणविदों का कहना है कि इस फैसले से इस पर्वतमाला के 90% हिस्से से सुरक्षा हट सकती है, जिससे माइनिंग, संपत्ति हड़पने और पारिस्थितिक तबाही फैल सकती है, इससे मरुस्थलीकरण में भी तेजी आ सकती है, क्रिपलिंग ग्राउंड वाटर रिचार्ज बाधित हो सकता है और प्रदूषण और जल संकट से जूझ रहे इस क्षेत्र में जैव विविधता खतरे में पड़ सकती है.
रेगिस्तान को फैलने से कैसे रोक रही अरावली?
अब सवाल यह है कि क्या यह रेगुलेटेड सस्टेनेबिलिटी की दिशा में एक व्यावहारिक कदम है, या उत्तर भारत के लिए प्रकृति के अंतिम रक्षकों में से एक पर विनाशकारी प्रहार है? तो बता दें कि अरावली रेंज चंबल, साबरमती और लूणी जैसी अहम नदियों का स्रोत है. यह मरुस्थलीकरण से बचाव कर थार रेगिस्तान को पूर्वी राजस्थान की ओर, गंगा के मैदानी इलाकों में फैलने से रोकती है. यह बलुआ पत्थर, चूना पत्थर, संगमरमर, ग्रेनाइट और साथ ही सीसा, जस्ता, तांबा, सोना और टंगस्टन जैसे खनिजों से समृद्ध भी है.
आज अरावली पर्वतमाला की चर्चा क्यों ?
इसकी वजह 20 नवंबर, 2025 को सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला है जो अरावली में अवैध खनन और पर्यावरण संरक्षण से संबंधित लंबे समय से चल रहे एक मामले में दिया गया था. कोर्ट ने केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के तहत एक समिति द्वारा प्रस्तावित एक समान परिभाषा को स्वीकार करते हुए कहा कि सिर्फ 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई वाली पहाड़ियां ही अरावली कहलाएंगी. इस फैसले का मकसद सतत प्रबंधन के लिए "प्रशासनिक स्पष्टता" देना था, जिसमें एक व्यापक योजना विकसित होने तक नए खनन पट्टों पर प्रतिबंध भी शामिल है. हालांकि, पर्यावरणविदों का तर्क यह है कि इस फैसले ने प्रभावी रूप से पर्वत श्रृंखला के विशाल क्षेत्रों से सुरक्षा छीन ली जिससे माइनिंग प्रतिबंधों और अतिक्रमणों को लेकर दशकों से चल रहे मुकदमों के पुराने घाव फिर से हरे हो गए. भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) के एक आंतरिक आकलन से पता चलता है कि इस फैसले ने पर्वत श्रृंखला के 90% से अधिक हिस्से को बाहर कर दिया. अकेले राजस्थान में, 12,081 मैप्ड हिल्स में से सिर्फ 1,048 (8.7%) ही इस सीमा को पूरा करती हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला बड़े पैमाने पर हो रहे अवैध खनन की लगातार रिपोर्टों के बीच दिया, जिसमें जीआईएस मैप्स में पूरे क्षेत्र में 3,000 से ज्यादा क्षतिग्रस्त जगहों को दिखाया गया है. इनमें 30 सालों के खनन के निशानों को दिखाने वाले ऑरेंज स्पॉट भी शामिल हैं. उनका कहना है कि इस तरह की कार्रवाई से जैव विविधता संरक्षण, भूजल पुनर्भरण और धूल भरी आंधी को रोकने के लिए महत्वपूर्ण, झाड़ियों से ढकी निचली अरावली पहाड़ियां नष्ट हो जाएंगी. खनन से इन पहाड़ियों पर जलस्तर घट सकता है, गुजरात, राजस्थान, दक्षिण हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में जलभंडार भी दूषित हो सकते हैं और आवासों के सिकुड़ने के कारण मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ सकता है.
प्रमुख क्षेत्रों को शामिल न किए जाने पर भी सवाल
सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार की तरफ से दिए गए हलफनामे में प्रमुख क्षेत्रों को शामिल न किए जाने पर और भी सवाल उठ रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, मंत्रालय द्वारा सूचीबद्ध 34 अरावली जिलों में चित्तौड़गढ़ जैसे क्षेत्र शामिल नहीं हैं, जो अरावली की एक ऊंची चट्टान पर मौजूद अपने किले के लिए फेमस हैं. न ही सवाई माधोपुर शामिल है, जहां अरावली-विंध्य संगम पर रणथंभोर बाघ अभ्यारण्य मौजूद है.
यह मुद्दा नया नहीं है. अरावली पहाड़ियों पर सालों से खनन और शहरीकरण का खतरा मंडरा रहा है. लेकिन संसद के शीतकालीन सत्र से ठीक पहले आए इस फैसले ने सार्वजनिक मांग को और भी तेज कर दिया है. इसे लेकर जयपुर जैसे शहरों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं, प्रदर्शनकारियों को बड़े पैमाने पर पारिस्थितिक क्षति का डर सता रहा है.
सोशल मीडिया पर अरावली का मुद्दा गर्म है
अरावली का मुद्दा सोशल मीडिया पर छाया हुआ है. इसमें प्रभावशाली लोगों और नेताओं के वायरल वीडियो भी शामिल हैं. क्षेत्रीय पर्यावरणीय चिंता अब भारत के पारिस्थितिक भविष्य पर राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गई है. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले में पुनर्विचार की मांग की जा रही है.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला विवादित क्यों है?
विवाद सुप्रीम कोर्ट की उस परिभाषा को लेकर है, जिसके बारे में पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे अरावली पर्वतमाला के 90% से अधिक हिस्से को कानूनी सुरक्षा से बाहर रखा जाएगा, जिससे निचली पहाड़ियों पर माइनिंग, रियल एस्टेट विकास और अन्य विनाशकारी गतिविधियों को परमिशन मिल सकती है. अदालत ने 2018 में खुद यह बात स्वीकार की थी कि खनन की वजह से पर्वतमाला की 31 पहाड़ियां गायब हो गई हैं, फिर भी उसने केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित 2010 के मानदंड को अपनाया.
पर्यावरणविद नीलम अहलूवालिया ने इसको बहुत ही चौंकाने वाला बताते हुए कहा कि आप धरती की सबसे पुरानी पर्वतमालाओं में से एक को मिटाना चाहते हैं, यह लोगों को बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है. वहीं डाउन टू अर्थ जैसे पर्यावरण ग्रुप्स ने इस कदम को विनाशकारी करार देते हुए तर्क दिया कि यह सिर्फ ऊंचाई से परे पर्वत श्रृंखला के पारिस्थितिक महत्व की अनदेखी है.
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