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This Article is From Aug 18, 2022

बीजेपी में हुए बड़े बदलाव के क्या हैं सियासी मायने? क्या गडकरी को हाशिए पर धकेला गया...

नितिन गडकरी को हटाकर एक बड़ा संदेश देने की कोशिश की गई कि अगर आपको पार्टी और सरकार में रहना है तो आपको शीर्ष नेतृत्व की बात सुननी होगी. साथ ही आपको कुछ ऐसा नहीं बोलना चाहिए जिससे मतभेद का या विवाद का अवसर दिखे.

नितिन गडकरी को संसदीय बोर्ड से हटाकर एक संदेश देने की कोशिश की गई है.

नई दिल्ली:

पिछले दिनों बीजेपी में बड़े बदलाव किए गए हैं. इस बदलाव के क्या मायने हैं, दरअसल इस बदलाव के जरिए पार्टी में क्षेत्रीय संतुलन के साथ जातीय संतुलन को भी साधा गया है. लेकिन साथ ही कई राजनीतिक मायने भी निकाले जा रहे हैं.

सबसे बड़ा और चौंकाने वाला फैसला है नितिन गडकरी को संसदीय बोर्ड से निकालना. बीजेपी की परंपरा रही है कि पार्टी के पूर्व अध्यक्ष को संसदीय बोर्ड में जगह मिलती रही है. औऱ इस बोर्ड में भी राजनाथ सिंह औऱ अमित शाह ऐसे दो सदस्य हैं जो पहले पार्टी के अध्यक्ष रह चुके हैं. लेकिन नितिन गडकरी को हटा दिया गया है. इस फैसले को लेकर कई सारे सवाल उठे कि आखिर क्यों इस तरह के फैसले लिए गए क्योंकि नितिन गडकरी आरएसएस के बेहद करीबी माने जाते हैं. 2013 में जब बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में घोषित किया था तो उससे ठीक पहले नितिन गडकरी को दूसरा कार्यकाल मिलने जा रहा था. लेकिन तब उनपर आरोप लगाए गए औऱ उन्हें दोबारा अध्यक्ष पद नहीं दिया गया. राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बनाया गया था. राजनाथ सिंह ने नरेन्द्र मोदी के गांधीनगर से दिल्ली आने का रास्ता साफ किया. तो क्या नीतिन गडकरी खुद भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे. खैर अब इन  सवालों का कोई मतलब नहीं है क्योंकि नरेन्द्र मोदी अब अपने को बतौर प्रधानमंत्री स्थापित कर चुके हैं और पार्टी के अंदर वो निर्विवाद रूप से नेता है. जिनका पार्टी पर काफी मजबूत पकड़ है. कहीं से उन्हें कोई चुनौती नहीं मिलती है. लेकिन नितिन गडकरी बीच बीच में इस तरह के बयान जरूर देते हैं जिससे लगता है कि सरकार में सब कुछ ठीक नहीं है.

नितिन गडकरी मुखर माने जाते हैं. झो बात उनके दिल में होती है वो उनके मुंह पर आती है. इसलिए कई बार ऐसे मौके आए जब सरकार को उनकी वजह से परेशानी का भी सामना करना पड़ा है. तो क्या ये कारण रहा है कि नीतिन गडकरी को संसदीय बोर्ड से हटाया गया. इससे पहले जब महाराष्ट्र में सरकार बनाने की बात हुई तो नीतीन गडकरी की भूमिका गौण थी. तो क्या नितिन गडकरी सरकार और पार्टी  में हाशिए पर चले गए हैं.

बहरहाल, गडकरी को हटाकर एक बड़ा संदेश देने की कोशिश की गई कि अगर आपको पार्टी और सरकार में रहना है तो आपको शीर्ष नेतृत्व की बात सुननी होगी. साथ ही आपको कुछ ऐसा नहीं बोलना चाहिए जिससे मतभेद का या विवाद का अवसर दिखे.

दूसरा चौंकाने वाला निर्णय शिवराज सिंह चौहान को बोर्ड से हटाना है. शिवराज पिछले 8 साल से संसदीय बोर्ड के सदस्य थे. वो अकेले सीएम थे जो संसदीय बोर्ड के सदस्य थे. जब जब भी यहां पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक होती थी तो वो भोपाल से खास तौर पर इस बैठक में शामिल होने के लिए आते थे. लेकिन उन्हें हटा दिया गया औऱ वो भी तब जब मध्यप्रदेश में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. तो क्या इसका मतलब यह है कि शिवराज के पर कतरे जा रहे हैं या उनका पार्टी में रूतबा कम होता जा रहा है.

मुझे लगता है कि इसके पीछे दूसरा गणित है. उत्तरप्रदेश में चुनाव के बाद बीजेपी की जीत के बाद पार्टी के अंदर ही ये आज उठने लगी थी कि बीजेपी में मोदी के बाद योगी ही लोकप्रिय नेता है. साथ ही इस घड़े ने यह भी पूछना शुरू कर दिया कि संसदीय बोर्ड में योगी को कब जगह मिलेगी. तो शायद यही वजह है कि शिवराज को संसदीय बोर्ड में जगह नहीं मिली क्योंकि अगर शिवराज को जगह मिलती तो लोग पूछने लग जाते कि अगर शिवराज को जगह मिल सकती है तो योगी को क्यों नहीं. तो सायद यह भी एक वजह थी कि योगी को नहीं लेना था कमेटी में इसलिए शिवराज की भी छुट्टी कर दी गई.

तीसरी सबसे बड़ा चौंकाने वाला फैसला बीएस येदियुरप्पा को बोर्ड में शामिल करना था. बीजेपी में 75 साल से उपर के लोगों को सक्रिय राजनीति से हटा दिया जाता है. येदियुरप्पा 75 साल के हैं इसलिए उन्हें इस्तीफा देने को कहा गया था. लगभग 20 दिनों तक वो इस्तीफा को टालते रहे और काफी मान मनौव्वल के बाद उन्होंने इस्तीफा दिया. लेकिन लिंगायत समुदाय के येदियुरप्पा की ताकत को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है. हाल में जब अमित शाह बेंगलुरू गए तो उनसे मिलकर आए. बहरहाल, येदियुरप्पा नाराज थे क्योंकि उनके बेटे को बीजेपी ने एमएलसी नहीं बनाया. येदियुरप्पा चाहते थे कि उनके बेटे को एमएलसी बनाकर कैबिनेट में जगह दी जाए. लेकिन बीजेपी ने वो नहीं किया. लेकिन साथ ही यह भी हकीकत है कि भाजपा उनको एक हद से ज्यादा नाराज नहीं कर सकती है. हमने देखा था कि येदियुरप्पा ने किस तरह यह घोषणा की थी कि अब वो चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन उन्होंने ये ऐलान कर दिया था कि उनका बेटा ही अब उनकी सीट से चुनाव लड़ेगा. बीजेपी में अमूमन ये होता नहीं है क्योंकि केन्द्रीय चुनाव समीति यह तय करती है कि किसे कहां से चुनाव लड़ना है. लेकिन येदियुरप्पा ने अपनी ओर से इसका ऐलान कर दिया था. तो ये भी एक संदेश था कि येदियुरप्पा किस तरह नाराज हैं और अपने बेटे के लिए वो किस तरह की भूमिका चाहते हैं.

इसके अलावे अगर हम चुनाव समीति की बात करें तो देवेन्द्र फडणवीस को वहां जगह दे दी गई है. देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे लोकिन उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाया गया. कहा जाने लगा कि फडणवीस के पर कतरे गए और इसको दूर करने के लिए उन्हें वित्त और गृह मंत्रालय दी गई और अब उन्हें केन्द्रीय चुनाव समीति का सदस्य भी बना दिया गया है.

इसके अलावे ओम माथुर जो कि गुजरात बीजेपी के प्रभारी थे औऱ वे नरेन्द्र मोदी के करीबी माने जाते हैं. उन्हें भी केन्द्रीय चुनाव समीति का सदस्य बनाया गया है. एक संदेश दिया गया कि अभी वे सक्रिय राजनीति में रहेंगे.

भूपेन्द्र यादव जो अमित शाह के बेहद करीबी हैं और महाराष्ट्र एवं बिहार संभाल चुके हैं, उन्हें भी जिम्मेदारी दी गई है. सर्वानंद सोनोवाल जिन्होंने मुख्यमंत्री पद कुर्बान किया था, उन्हें भी पुरस्कृत किया गया.

इसके अलावे पार्टी में क्षेत्रीय संतुलन और जातीय संतुलन का भी ध्यान रखा गया है. एक जरूरी बात यह है कि शाहनवाज़ हुसैन को चुनाव समीति से हटा दिया गया है. इस तरह बीजेपी में अब न तो सरकार में कोई मुसलमान है और न ही कोई सांसद मुसलमान है ..और न ही पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर अब कोई मुसलमान रह गया है.

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